बिहार में राजद को जद (एकी) और भाजपा का विकल्प मानने वाले हालांकि अब निराश होने लगे हैं। लेकिन निराशा की वजह यह नहीं कि जद (एकी) और भाजपा अपनी स्थिति मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं बल्कि यह कि राजद के नेताओं के बीच का तालमेल गड़बड़ा रहा हैं। किसका हुक्म बजाएं और किसका नहीं, पार्टी के साधारण नेता और कार्यकर्ता तय करते वक्त दुविधा से घिरने लगे हैं। लालू प्रसाद सोच रहे हैं कुछ और हो रहा है। अगर उनके दोनों बेटे आने वाले दिनों के संकट को ठीक से नहीं भांप पाए और निपटने की तैयारी नहीं कर पाए तो इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
महागठबंधन की सरकार के वक्त स्थिति राजद के अनुकूल थी। लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप मुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव के बीच शुरु खटपट इतनी विकराल हुई कि महागठबंधन की सरकार इससे बच नहीं पाई। नीतीश कुमार ने एकाएक अपने पद से इस्तीफा दे भाजपा के साथ हाथ मिला राजग की सरकार बना ली। उस वक्त भी राजद के अनुकूल स्थिति थी। नीतीश कुमार और भाजपा के खिलाफ वातावरण बना।
नीतीश कुमार की आलोचना इसलिए हुई कि उन्होंने फिर भाजपा से हाथ मिला लिया और उन पर यह आरोप भी लगा कि उन्होंने ऐसा सिर्फ अपनी कुर्सी बचाने के लिए किया। भाजपा की आलोचना इसलिए हुई कि वह तिकड़म से सत्तासीन होती है। आम लोगों में राजद के प्रति सहानुभूति हुई। नीतीश कुमार धोखा नहीं देते तो महागठबंधन यानी राजद पूरी मियाद तक सत्ता में रहता। सबसे अधिक राजद के विधायक होने पर भी वादे के मुताबिक नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया गया। राजद के समर्थक और वोटर सहानुभूति के चलते राजद के पक्ष में एकजुट हुए। तख्तापटल होने के बाद सूबे में हुए उपचुनाव में राजद की जीत इसका संकेत थी।
लालू प्रसाद की सूझबूझ से सूबे में उनकी पार्टी दस साल बाद सत्ता में आई थी। सत्ता में आने के बाद उनकी कोशिश यह हुई कि उनके दोनों बेटे (तेजस्वी प्रसाद यादव और तेज प्रताप यादव) राजनीति में जम जाए और अपने बल बूते पर सूबे की बागडोर संभालने लायक बन जाए। दोनों पहली बार विधायक बने और मंत्री भी। लेकिन बीच में ही अच्छा-खासा व्यवधान खड़ा हुआ कि वे सत्ता से बाहर हो गए। नीतीश कुमार करते भी क्या, काफी ऊब गए थे और मान-सम्मान पर आघात होने लगा था। लालू प्रसाद सब कुछ समझ रहे थे। लेकिन वे अपने बेटों पर नियंत्रण करनेे में सफल नहीं हुए। वे चुप रहे और उनकी चुप्पी को बेटों का बचाव माना गया। परिवारवाद का आरोप तो बहुत पहले से झेल रहे थे। वे अपने बेटों पर नियंत्रण कर पाए होते और नीतीश कुमार के मान-सम्मान की रक्षा करते तो आज स्थिति दूसरी होती।
राजनीतिकों का तो कहना यह है कि राजद के समर्थकों और वोटरों में आ रही निराशा का एक बड़ा कारण लालू प्रसाद के दोनों बेटों के बीच चल रहा शीत युद्ध है। पार्टी पर सबसे ज्यादा वर्चस्व किसका हो। पार्टी किसका सबसे ज्यादा हुक्म बजाए। इसी तरह के तमाम सवालों को लेकर तेज और तेजस्वी में शीत युद्ध है। उनके बीच चल रहे शीत युद्ध से उनके समर्थकों और वोटरों के बीच गलत संदेश यह जा रहा है कि वे दोनों आपस में लड़-भिड़ रहे हैं, तो उनका (समर्थक और वोटर) भला क्या होगा। साफ-साफ यह कि लालू प्रसाद के ‘माईÓ समीकरण यानी यादवों और मुस्लिमों का क्या होगा।
जानकार बताते हैं कि तेज और तेजस्वी के बीच शीत युद्ध के लिए खुद लालू प्रसाद ही जिम्मेदार हैं। तेज का मानना है कि लालू प्रसाद ने उनकी उपेक्षा की है और भेदभाव बरता है। परिवार में ही उनकी हकमारी हुई है। वे तेजस्वी के बड़े है और किसी गुण में कम भी नहीं है। इसके विपरीत तेजस्वी यह मानते है कि उनके गुणों और कौशल को देख कर ही उन्हें आगे रहने का मौका मिला है। तेज प्रताप चाहते हैं कि पार्टी वे चलाएं और विधानसभा व विधायकों को तेजस्वी संभाले। लेकिन तेजस्वी को यह मंजूर नहीं। दोनों भाइयों में मनमुटाव उसी दिन से शुरू हो गया था जब तेजस्वी को उप मुख्यमंत्री और तेज को केवल मंत्री बनाया गया था। उस समय तो मनमुटाव दबा रह गया लेकिन बाद में, खासकर सत्ता से बाहर होने के बाद फूट पड़ा है। लालू प्रसाद शुरू में जब उन्हें संभाल नहीं पाए, तो अब संभालना आसान भी नहीं रह गया है। अब तो उन्हें चारा घोटाले में सजा हो गई है और दिनोंदिन स्वास्थ्य भी बिगड़ा है।
जानकार याद भी दिलाते हैं कि 2005 में सूबे में राजद की दुर्गति की एक बड़ी वजह परिवारवाद ही था। मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के दोनों भाइयों (सुभाष यादव और साधु यादव) की पार्टी और सरकार में कम चलती नहीं थी। पार्टी में उनका और उनके कार्यकलापों की आलोचना करने की हिम्मत किसी नेता (शिवानंद तिवारी को छोड़ कर) में नहीं थी। लेकिन जब लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के हाथ से सूबे की सत्ता चली गई, तब उन्हें पता चला कि वजह क्या है। राबड़ी देवी के दोनों भाइयों को पार्टी से अलग होना पड़ा। फिलहाल वही स्थिति लालू प्रलाद के दोनों बेटों की है। सवाल उठ ही सकता है कि क्या वैसा ही नुकसान होगा जैसा कभी सुभाष-साधु की वजह से हुआ था।
लोकसभा चुनाव के मद्देनजर नीतीश कुमार और भाजपा के नेता ऐसी स्थिति पैदा कर रहे हैं जिससे दो बातें साफ हो जाएं। एक, नीतीश कुमार और भाजपा की एकता मजबूत है। दूसरे, नीतीश कुमार ही सूबे में राजग के सर्वेसर्वा हैं। नीतीश कुमार और भाजपा के नेता इन बातों से राजद के राजग विरोधी अभियान को बेअसर करना चाहते हैं। बात भी यह है कि राजद के पास इन बातों की काट नहीं है। विपक्षी दल के नेता के रूप में तेजस्वी विभिन्न मुद्दों को लेकर नीतीश कुमार और सरकार को तो घेर रहे हैं लेकिन नीतीश कुमार और सरकार अपने पलट जबाव से साफ बच रहे हैं। सरकार को घेरने का जो असर होना चाहिए, वह हो नहीं पा रहा है। वजह यह कि विधानसभा के बाहर राजद के नेता-कार्यकर्ता नीतीश कुमार और सरकार के खिलाफ सड़क पर नहीं उतर पा रहे हैं। तेज और तेजस्वी किसी दूसरी बात में उलझे हैं।