70 के दशक में किस्सा कुर्सी का जैसी विवादास्पद फिल्म बनाने वाले अमृत नाहटा भी दो बार बाड़मेर से सांसद रहे. नाहटा अब दुनिया में नहीं हैं, लेकिन बाड़मेर में कुर्सी का किस्सा न सिर्फ जारी है बल्कि पूरे देश का ध्यान भी खींच रहा है. मुख्य रूप से भाजपा और कांग्रेस का द्वंद देखने वाली इस सीट से इस बार निर्दलीय हो चुके एक हालिया भाजपाई और भाजपाई हो चुके एक हालिया कांग्रेसी की टक्कर ज्यादा सुर्खियां बटोर रही है. बाड़मेर के जसोल गांव में जन्मे और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में रहे जसवंत सिंह ने जिंदगी का आखिरी चुनाव अपने घर से लड़ना चाहा था, लेकिन टिकट मिला कुछ दिन पहले ही कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए सोनाराम चौधरी को. जसवंत ने पार्टी से बगावत करके निर्दलीय के रूप में परचा दाखिल किया और उनके ऐसा करते ही बाड़मेर की लड़ाई दो की बजाय तीन ध्रुवों में बंट गई. तीसरा ध्रुव हैं कांग्रेस उम्मीदवार और मौजूदा सांसद हरीश चौधरी.
क्षेत्रफल की दृष्टि से बाड़मेर देश की सबसे बड़ी लोकसभा सीट है. बाड़मेर और जैसलमेर, दो जिलों को मिलाकर बनने वाले इस निर्वाचन क्षेत्र में कुल आठ विधानसभा सीटें हैं. इनमें से आज सात भाजपा के पास हैं. वैसे पारंपरिक रूप से यहां से कांग्रेस जीतती रही है जिसने 15 आम चुनावों में नौ बार यह सीट अपनी झोली में डाली है. सोनाराम खुद यहां से तीन बार सांसद रहे हैं. भाजपा यहां सिर्फ एक बार 2004 में विजयी रही है जब जसवंत के बेटे मानवेंद्र सिंह ने सोनाराम को ढाई लाख से भी ज्यादा वोटों से हराया था. 2009 में हरीश चौधरी ने करीब एक लाख 20 हजार वोटों के अंतर से मानवेंद्र सिंह को पटखनी दी थी. देश के कई दूसरे इलाकों की तरह बाड़मेर में भी बड़े मुद्दों से ज्यादा असर जात-बिरादरी के समीकरणों का रहता है. करीब 16 लाख मतदाताओं वाली इस सीट पर जाट मतदाताओं की संख्या तीन लाख से ऊपर है. राजपूत समुदाय के वोट दो लाख से ऊपर माने जाते हैं. करीब डेढ़ लाख वोट अनुसूचित जाति के हैं और दो लाख के लगभ सिंधी और मुस्लिम समुदाय के. सोनाराम चौधरी और हरीश चौधरी जाट समुदाय से हैं जबकि जसवंत सिंह राजपूत समुदाय से. बाकी दो समुदायों को कांग्रेस का पारंपरिक वोट माना जाता है. कांग्रेस को आशा है कि सोनाराम के उतरने से जाट वोट बंट जाएंगे जबकि उसका पारंपरिक वोट उसके साथ रहेगा और वह जीत जाएगी. जसवंत राजपूत और अल्पसंख्यक वोट का समीकरण बिठाकर अपनी नैय्या पार लगाने की उम्मीद में हैं. इलाके के क्षत्रिय संगठन उनका साथ देने का ऐलान भी कर चुके हैं. उधर, बीते विधानसभा चुनाव में हार का मुंह देख चुके सोनाराम का दावा है कि उनकी हार कांग्रेस के भितरघात के कारण हुई थी. वैसे हो सकता है कि जसवंत सिंह के पक्ष में उमड़ी सहानुभूति के चलते एक ऐसा ही भितरघात भाजपा में भी उनका इंतजार कर रहा हो.
जसवंत की जिद पर वसुंधरा की जिद को तरजीह मिलने की वजह से राजनीतिक प्रेक्षक बाड़मेर की जंग को इन दोनों दिग्गजों के बीच की लड़ाई के रूप में भी देख रहे है. नामांकन दाखिल करने के बाद जसवंत सिंह ने कहा भी कि वसुंधरा राजे ने उनके साथ धोखा किया है. सोनाराम रिटायर्ड कर्नल हैं और जसवंत सिंह पूर्व मेजर. दो पूर्व फौजियों की इस जंग के नतीजे पर पूरे देश की नजर रहेगी.