जम्मू-कश्मीर से जुड़े मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का इंतज़ार
सर्वोच्च न्यायालय ने जम्मू-कश्मीर में धारा-370 हटाकर इसके पूर्ण राज्य का दर्जा ख़त्म करने के केंद्र सरकार के निर्णय के ख़िलाफ़ दायर याचिकाओं पर 16 दिन चली सुनवाई के बाद अपना फ़ैसला सुरक्षित रखा है। सबकी निगाह इस बड़े फ़ैसले पर होगी, क्योंकि सर्वोच्च अदालत में इन याचिकाओं की सुनवाई काफी विस्तार से हुई और सभी पक्षों ने अपनी बात रखी। क्या जम्मू-कश्मीर में धारा-370 बहाल होगी या इसका पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा? इसका सबको बेसब्री से इंतज़ार है। जो भी फ़ैसला होगा, निश्चित ही उसके दूरगामी राजनीतिक प्रभाव होंगे।
इस मामले पर सर्वोच्च अदालत की प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने सुनवाई की, जिसके अन्य सदस्य न्यायमूर्ति किशन कौल, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत हैं। संविधान पीठ ने 16 दिन तक दोनों पक्षों की गहन जिरह सुनी और 5 सितंबर को फ़ैसला सुरक्षित रख लिया। सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों ने संवैधानिक पहलुओं से लेकर ऐतिहासिक घटनाक्रम पर तर्क रखे। एक मौके पर तो अदालत ने इस मामले में मुख्य याचिकाकर्ता कश्मीर के नेता मोहम्मद अकबर लोन से यह कहकर हलफ़नामा माँग लिया कि क्या वह जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा मानते हैं ?
जम्मू-कश्मीर का यह मामला काफी पेचीदा है। इसे सिर्फ़ क़ानून और राजनीति के छोटे दायरे में रखकर सीमित नहीं किया जा सकता। दक्षिण एशिया की बदलती कूटनीतिक और राजनीतिक स्थिति में भारत के लिए जम्मू-कश्मीर का बहुत गहरा मतलब है, चाहे वह सामरिक हो या भौगोलिक। धार्मिक पहचान के कारण भी राज्य को भारत के साथ मज़बूती से जोड़े रखने के लिए जम्मू-कश्मीर का मामला संवेदनशील है; क्योंकि पड़ोसी देश पाकिस्तान इसी आधार पर वहाँ आतंकी गतिविधियाँ चलाता रहा है। जम्मू-कश्मीर को धारा-370 हटने से पहले विशेष दर्जा हासिल था और इसे ख़त्म करने का समर्थन राज्य के राजनीतिक दलों ने ही नहीं, आम जनता ने भी नहीं किया था। जब मोदी सरकार इससे जुड़ा बिल संसद में लायी थी, तब जम्मू-कश्मीर की विधानसभा भी चलन में नहीं थी।
आज़ादी के बाद के तमाम वर्षों को देखें, तो जम्मू-कश्मीर के लोग दृढ़ता से भारत के साथ खड़े रहे हैं। चाहे वह सन् 1962 का चीन के साथ युद्ध हो, सन् 1965 और सन् 1971 के पाकिस्तान के साथ युद्ध हों या सन् 1999 का कारगिल युद्ध। यही कारण है कि कई जानकार इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं कि कश्मीर को देश के राजनीतिक दलों को महज़ अपनी राजनीति का औज़ार मात्र नहीं समझना चाहिए। जहाँ समर्थक मोदी सरकार के जम्मू-कश्मीर में धारा-370 और पूर्ण राज्य का दर्जा ख़त्म करने का ज़ोरदार समर्थन करते हैं, वहीं ऐसे लोगों और बुद्धिजीवियों की कमी नहीं है, जो यह मानते हैं कि इस मसले को समझदारी से ही सुलझाया जाना चाहिए और इसका पूर्ण राज्य का दर्जा तत्काल बहाल कर वहाँ चुनाव होने चाहिए, ताकि जनता को अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार मिल सके।
क्यों अहम होगा फ़ैसला?
सर्वोच्च अदालत का क्या फ़ैसला आएगा? इस पर टिप्पणी नहीं की जा सकती है। संविधान पीठ ने तमाम तर्क सुने हैं और देश के आम लोगों से लेकर राजनीतिक दलों और जम्मू-कश्मीर की जनता को भी इसका इंतज़ार है। लेकिन यह साफ़ है कि यह फ़ैसला का$फी अहम होगा। अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के मोदी सरकार के फ़ैसले पर सर्वोच्च अदालत की पाँच जजों की संविधान पीठ की मुहर लगती है, तो वह निश्चित ही चुनावों में भी भुनाएगी। राज्य में चुनाव को लेकर ज़रूर केंद्र सरकार का रवैया ढीला-ढाला रहा है।
जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दलों के अलावा देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस राज्य का दर्जा बहाल करने और वहाँ जल्दी चुनाव की जबरदस्त समर्थक रही है। राज्य में राजनीतिक गतिविधियाँ पिछले चार साल से लगभग ख़त्म हैं और जनता के पास कोई चुना हुआ प्रतिनिधि नहीं है, जिसके पास वह अपनी समस्या ले जा सके। उप राज्यपाल हैं और अफ़सरशाही भी, लेकिन जनता का उन तक पहुँचना मुश्किल होने के कारण उसे दिक़्क़त झेलनी पड़ती है। यह स्थानीय प्रतिनिधियों के अलावा और कोई नहीं कर सकता। कश्मीर ही नहीं, हिन्दू बहुल जम्मू के लोग भी राज्य का दर्जा ख़त्म होने से नाराज़ दिखते हैं। कठुआ के बिलावर में नरेश खजुरिया ने हमसे बातचीत में कहा- ‘धारा-370 ख़त्म की तो की; लेकिन हमारा राज्य का दर्जा ख़त्म नहीं होना चाहिए था। चार साल हो गये इलेक्शन नहीं हुआ। हम किसे अपनी समस्याएँ बताएँ?’
जम्मू में कुलदीप जम्वाल ने हमसे बातचीत अनुच्छेद-370 ख़त्म करने का पूरा समर्थन किया; लेकिन राज्य का दर्जा ख़त्म करने का विरोध। उधर राहुल दासगोत्रा ने कहा- ‘बेमतलब की राजनीति करती है बीजेपी। आप जनता को हमेशा सेना के पहरे में नहीं रख सकते। इस (370 ख़त्म और राज्य दर्जा ख़त्म करने) का अच्छा नतीजा नहीं निकलेगा। सुप्रीम कोर्ट को दोनों ही बहाल कर देने चाहिए।’
राज्य के आम लोग इससे बहुत आहत रहे हैं कि उनका विशेष राज्य का दर्जा ख़त्म करने के साथ ही पूर्ण राज्य का दर्जा भी छीन लिया गया। इसे वे किसी भी सूरत में सही नहीं मानते। दुकान चलाने वाले श्रीनगर के बादाम बाड़ी के अब्दुल्ल रसूल ने कहा- ‘आप (केंद्र सरकार) कहते हैं कि कश्मीर देश का ताज है। क्या आप सिर्फ़ कश्मीर की ज़मीन को अपना ताज मानते हैं या यहाँ की आवाम को भी? जो भी फ़ैसले हुए, वो अच्छे नहीं हुए। यहाँ की आवाम इससे ख़ुश नहीं; क्योंकि उन्हें आइसोलेट करके यह सब किया गया। हम उम्मीद करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट सूबे की आवाम से इंसाफ़ करेगा।’
हालाँकि निशात बाग़ के पास मोहम्मद अज़ीज़ बेग ने कहा- ‘370 ख़त्म करना कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन उनके मुताबिक, देश को कश्मीर के लोगों और यहाँ की ज़रूरतों को समझना चाहिए। हमने इतने साल तक मिलिटेंसी झेली है। मुस्लिम ही सबसे ज़्यादा मरा है। हमारी आवाम को इंसान समझकर ट्रीट करना चाहिए। इलेक्शन होना चाहिए और वो सब कुछ मिलना चाहिए, जो दूसरे सूबों को मिलता है।’
कब, क्या हुआ?
मोदी सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को संसद ने जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद-370 के तहत मिला विशेष दर्जा ख़त्म करने का प्रस्ताव पास किया था। इसके बाद जम्मू-कश्मीर के कई बड़े नेताओं को एनएसए के तहत नज़रबन्द कर दिया गया था। मोदी सरकार ने साथ ही राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख़ में बाँट दिया था। इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में 20 याचिकाओं के ज़रिये चुनौती दी गयी है।
इस मामले पर प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने 16 दिन सुनवाई की और फ़ैसला सुरक्षित रख लिया। मामले के पहले दो याचिकाकर्ताओं शाह फ़ैसल और शेहला रशीद ने सुनवाई से पहले ही याचिकाएँ वापस ले ली थीं।
सुनवाई में उठे मुद्दे
मुख्य याचिकाकर्ता लोन की तरफ़ से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल पेश हुए; जबकि उनके अलावा राजीव धवन, गोपाल सुब्रमण्यम, ज़फ़र शाह जैसे कई वरिष्ठ वकीलों ने अनुच्छेद-370 को बेअसर करने का फ़ैसला ख़ारिज करने की माँग की। इन वकीलों ने कहा कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय विशेष परिस्थितियों में हुआ था, लिहाज़ा उसे विशेष दर्जा मिला था। उनके मुताबिक, राज्य की एक अलग संविधान सभा थी, जिसका काम सन् 1957 में पूरा हो गया। भारत के संविधान से अनुच्छेद-370 हटाने का फ़ैसला जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सहमति से ही हो सकता था। लिहाज़ा संसद का फ़ैसला क़ानूनन ग़लत है।
उधर सरकार के समर्थन में वकीलों ने अपना पक्ष रखा। केंद्र सरकार की तरफ़ से अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमनी और सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने जिरह की। इसके अलावा कई संगठनों ने भी केंद्र के फ़ैसले के समर्थन में पक्ष रखा, जिनके लिए हरीश साल्वे, राकेश द्विवेदी और महेश जेठमलानी जैसे कई बड़े वकील पेश हुए। केंद्र ने कोर्ट को बताया कि अनुच्छेद-370 को बेअसर करने का फ़ैसला राष्ट्रहित के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर के लोगों की भलाई के लिए किया गया था।
अटॉर्नी जनरल ने राष्ट्र की अखंडता के पहलू पर ज़ोर दिया और बताया कि पुरानी व्यवस्था में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-35(ए) भी लागू था, जिसके चलते राज्य में बसे लोगों की एक बड़ी संख्या को दूसरे नागरिकों जैसे अधिकार नहीं थे। वह सम्पत्ति नहीं ख़रीद सकते थे। मतदान नहीं कर सकते थे। और अब वे लोग सबके बराबर हो गये हैं।