बासंती बया और फागुन का पागलपन उधार लेकर बसंत पंचमी और होली के उमंग भरे त्योहारों के बीच हर वर्ष 14 फरवरी को प्रेम का नया त्योहार दस्तक देता है, वैलेंटाइंस डे. प्रेम का यह नया त्योहार आर्थिक उदारीकरण का सह उत्पाद ही तो है. 1991 के बाद से हमारे जीवन में काफी बदलाव आ चुका है. कुछ चीजें हमारे जीवन में रिक्त होती जा रही हैं और हमें उसका अहसास तक नहीं हो पा रहा. हमारे पास वस्तुएं बढ़ी हैं लेकिन रिश्ते? उनका क्या?
पहले त्योहार अपनों से मिलने के बहाने हुआ करते थे लेकिन अब वह बाजार के लिए अपना प्रॉडक्ट बेचने का एक जरिया भर हैं. इसी तरह वैलेंटाइन डे भी आता है और अचानक आसपास और बाजारों में गुलाब के फूल छा जाते हैं.
फरवरी महीने के शुरुआती दिनों बाग में गुलाब के फूलों को देखकर पता नहीं क्यों लगता है कि वह बेचारे अपनी जान की भीख मांग रहे हों. खिले हुए फूल अधखिली कलियों को अपनी पत्तियों के आंचल में छिपाते नजर आते हैं. लेकिन अंत में सब बेकार. ऐसा नहीं है कि वैलेंटाइंस डे के आने से पहले इतनी सदियां हमने बिना प्रेम के गुजार दीं. प्रेम तो हमेशा से था. यहीं हमारे बीच हमारी सांसों में हवा की तरह घुला हुआ जिसके लिए एक दिन तय करने की बात हमारे जेहन में कभी भूल से भी नहीं आई. बात अगर प्रतीकों से ही बनती हो तो हमारे पास वसंतोत्सव जैसे विनम्र आयोजन तो थे ही. लेकिन एक दिन सागर पार के आसमान से यह आक्रामक त्योहार अचानक डैने फैलाए उतरा और हमारे नन्हे मुन्ने त्योहारों को बुहार कर जाने कहां फेंक दिया. फिर भी अगर वे सामने आएं और उनको भी बाजार में बेचने की जरा सी भी गुंजाइश हो तो यह उनको कम से कम अपने उपनिवेश का दर्जा तो दे ही देगा. इतनी दरियादिली तो है ही इसमें.
वैलेंटाइंस डे यानी भावनाओं पर जेब की ताकत की स्थापना का त्योहार. दिल की नाजुकी की बातों पर चमकीली पन्नियों की जीत का त्योहार. जितना महंगा तोहफा, उतना गहरा प्रेम. इसके शब्दकोश में भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है. और ऐसा हो भी क्यों न आखिर इसने प्रेम की शाश्वत भावना को एक दिन के आयोजन में जो तब्दील कर दिया है. ऐसे में स्वाभाविक ही है कि 13 फरवरी की रात तक जो केवल लड़कियां होती हैं, 14 फरवरी की सुबह नींद खुलने पर वे सब प्रेमिकाएं बन चुकी होती हैं. इसके बाद शुरू होगा धावों का सिलसिला.
प्रेमीगण अपनी प्रेमिकाओं के लिए फूलों पर धावा बोलेंगे, संस्कृति के ठेकेदार इन प्रेमी-प्रेमिकाओं पर धावा बोलेंगे और भारतीय संस्कृति को ‘नष्ट’ होने से बचा लेंगे. वैलेंटाइंस डे की आलोचना का आधार केवल छद्म सांस्कृतिक राष्ट्रवादी चिंता नहीं है. वैश्विक ग्राम की अवधारणा के बीच ऐसे सांस्कृतिक मेल से बचना संभव नहीं है. लेकिन क्या वाकई यह प्रेम का त्योहार है, या फिर पहले से ही अपनी आजीविका के लिए संघर्ष कर रही जनता का दम निकालने वाला बाजार का एक और औजार भर है? अगर यह प्रेम का त्योहार है तो इसका तोहफों से इतना गहरा नाता क्यों है?
जिस तरह महंगी चॉकलेटों ने हमारी देसी मिठाइयों को चलन से बाहर करने का काम किया है मुझे डर लगता है कि यह बाजारू त्योहार जो अपने साथ रोज डे, प्रपोज डे, चॉकलेट डे और न जाने कौन-कौन से डे लाता है वह कहीं हमारे लिए होली और दिवाली के विकल्प भी न पेश कर दे. प्यार केवल दिखावा और मात्रा बनकर न रह जाए बल्कि बचा रहे हमारे अंतर्मन में हमारी ताकत बनकर. इसके लिए थोड़ी उम्मीद और थोड़ी प्रार्थना तो बनती है.