वैश्विक महामारी कोरोना संक्रमण का खतरा देखते हुए कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री मोदी ने देश में तालाबन्दी यानी लॉकडाउन की घोषणा की थी और इस घोषणा के साथ ही प्रधानमंत्री ने विश्वास दिलाया कि इस दौरान जनता की मदद के लिए केंद्र सरकार समेत सभी राज्य सरकारें उनके साथ हैं। लेकिन लॉकडाउन-02 लॉकडाउन-03 के दौरान गरीब परिवारों पर भारी मार देखने को मिली है। जो अभी भी उन्हें बदहाली में खींचे हुए है। लोग अपनी दिहाड़ी या रोज़ की कमायी पर निर्भर थे, उनका तो पहले ही बुरा हाल हो चुका था; अब तो मासिक कमाने वाले मध्यम वर्गीय परिवारों की स्थिति भी खराब और दयनीय हो चली है। उनके घरों में राशन के लाले पड़े हुए हैं। मध्यम वर्ग निम्न वर्ग के हालात की तरफ बढ़ चला है। जानकारों के मुताबिक, जुलाई माह में लगभग 18 करोड़ से अधिक लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा और आगामी समय में यह आँकड़ा बढ़ सकता है। बच्चों के स्कूल की फीस, घर का किराया, राशन खर्र्च एवं ऋण िकस्तों की चिन्ता ने आम नागरिक को अवसाद की ओर धकेल दिया है। दिल्ली के पटेल नगर में एक डॉक्टर से बात करने पर उन्होंने बताया कि आजकल मेरे पास मानसिक अवसाद के मरीज़ों की तादाद में लगातार इज़ाफा हो रहा है। कोरोना-काल में लॉकडाउन की स्थिति में अवसाद से ग्रसित लोगों का कहना है कि उन्हें नींद नहीं आती और आने वाले समय की चिन्ता लगी है। इनमें से अधिकांश लोग मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखते हैं।
जब मेरी बात कुछ दुकानदारों और उनकी दुकान पर काम करने वाले लोगों से हुई, जिनकी दिल्ली के अलग-अलग बाज़ारों में छोटी-मोटी दुकानें हैं। दिल्ली के पश्चिम विहार इलाके के ज्वालाहेड़ी बाज़ार में छोटी-सी कपड़े की दुकान चलाने वाले राजपाल राही का कहना है कि मेरी दुकान से मुझे मासिक अच्छी कमायी हो जाती थी; लेकिन लॉकडाउन की वजह से दुकान बन्द करनी पड़ी है। घर के हालात बिगडऩे पर अब मैं अपने स्कूटर पर रखकर पश्चिम विहार और पंजाबी बाग की कॉलोनी में फल बेचता हूँ; जिससे बमुश्किल महीने का गुज़ारा हो पाता है। अगर यह स्थिति ज़्यादा दिन चली, तो मुझे लगता है कि मुझे अपनी दुकान बेचनी पड़ सकती है। लॉकडाउन की अवधि के लगातार बढ़ोतरी से पैदा हो रही परिस्थिति से तो केंद्र और राज्य सरकारों को लोगों को फिर से भोजन बाँटना पड़ सकता है। क्योंकि हालात बद से बदतर होते दिखायी पड़ रहे हैं। हालाँकि प्रधानमंत्री ने 6 किलो अनाज देने की घोषणा पिछले दिनों की थी; लेकिन वह राशन किस प्रकार मिलता है? किस क्वालिटी का होता है? यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। मदद के नाम पर मिले इस 6 किलो अनाज से कितने दिन एक परिवार का गुज़ारा होगा? यह भी सोचनीय विषय है। वैसे राशन तो पहले सामान्य दिनों में भी हर राशन कार्ड धारक हर परिवार को मिलता ही था।
भारत सरकार के उपक्रम भारतीय खाद्य निगम के अनुसार, देश के पास करीब-करीब सालभर के राशन की पर्याप्त व्यवस्था है, जिसका इस्तेमाल महामारी के दौरान लॉकडाउन की स्थिति में देश के ज़रूरतमंद लोगों के भोजन की व्यवस्था करने में किया जा सकता है। इसके अलावा नयी फसलों के आ जाने से इस भण्डार में खाद्यान्न का और इज़ाफा होता है। एक सर्वे के अनुसार, सामान्य हालात में देश भर में ज़रूरतमंदों को अनाज बाँटने के लिए लगभग 50 से 60 मिलियन (500 से 600 लाख) टन राशन की आवश्यकता पड़ती है। एक अनुमान के मुताबिक, मई तक देश के पास लगभग 1000 करोड़ टन से अधिक खाद्यान्न उपलब्ध हैं। खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग (डीएफपीडी) की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019-20 में मई माह तक गेहूँ का उत्पादन 1062 लाख टन एवं सरकारी खरीद 359 लाख टन रही। वहीं धान का 1174 लाख टन उत्पादन व 473 लाख टन खरीद हुई। जबकि इस वित्तीय वर्ष में भारत में लगभग 3000 लाख टन रिकॉर्ड खाद्यान्न (गेहूँ-धान) के उत्पादन का अनुमान है। इस हिसाब से भारत गरीबों को साल भर से ज़्यादा खिलाने में सक्षम है।
अगर आपने गौर किया हो, तो देश में लॉकडाउन की घोषणा के बाद सम्पन्न लोग राशन की खरीद में किस प्रकार टूट पड़े थे। हालाँकि बाद में बड़ी समस्या यह हुई कि लॉकडाउन की घोषणा से डरकर लोगों ने अधिक राशन जमा कर लिया। जबकि पूरे देश में लॉकडाउन होने के बावजूद ज़रूरी राशन की दुकानें खुली रहीं हैं। उसके बावजूद भी लोग बड़े पैमाने पर राशन की खरीद करने में जुटे रहे। लॉकडाउन के बीच लोगों का अधिक राशन जमा करके रखने और कीमतों के बढ़ जाने से गरीब ही नहीं मध्यम वर्ग भी मुसीबत में आ चुका है। पिछले कुछ दिनों से लगातार तेल की कीमतों में उछाल से ढुलाई का खर्र्च बढ़ता जा रहा है। छोटे दुकानदार, रेहड़ी-पटरी और फेरी करने वाले दम तोडऩे के कगार पर है। यहाँ तक कि बड़े दुकानदार भी अधिक किराये और बिक्री कम होने के कारण, व्यापार को समेटने लगे हैं। गुरुद्वारों के सामने खाने की लम्बी-लम्बी लाइनें देखी जा रही है। खबरों के अनुसार बहुत से लोग तो आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो रहे हैं।
महामारी के बढ़ते प्रकोप, दहशत और खोप के चलते अभी भी कम ही लोग घरों से बाहर निकल रहे हैं। जिससे साइकिल रिक्शा, ऑटो, टैक्सी, ई-रिक्शा आदि से जुड़े लोग भयंकर संकट का सामना करने पर मजबूर हैं। खानपान, फैशन, कपड़े, आदि कि अगर कोई दुकान खुली भी है, तो उससे ग्राहक नदारद है। बाज़ार में इन वस्तुओं की कोई माँग नहीं है, सिर्फ ज़रूरी वस्तुएँ जैसे राशन, दूध, सब्ज़ी और फल की ही बिक्री हर छोटे-बड़े बाज़ार में देखने को मिल रही है। जबकि कई जगह देखने में आ रहा है कि ढुलाई की असुविधा होने से भी खाद्य सामग्री में कमी हो रही है। सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि जहाँ भी खाद्य सामग्रियाँ स्टॉक में हैं, वहाँ इस्तेमाल नहीं हो पा रही और इससे कालाबाज़ारी बढ़ गयी है। जिसका सीधा असर गरीब और मध्यम वर्ग पर पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में राशन से जुड़ी तमाम वस्तुओं की कीमतों में इजाफा हुआ है और साथ ही मौज़ूदा समय में अचानक खाद्य वस्तुओं कमी भी देखी जा रही है।
गौरतलब है कि दूसरे काम-धन्धे और रोज़गार बन्द होने पर कई लोगों ने सब्ज़ियाँ और फल बेचने शुरू कर दिये हैं। एक हिसाब से सब्ज़ियाँ और फल-सब्ज़ी बेचने वालों की बाढ़-सी आ गयी है। लेकिन उपभोक्ता को फिर भी राहत नहीं मिल रही है। सब्ज़ियों और फलों के रेट आसमान पर हैं। जबकि दूसरी ओर किसान का फल और सब्ज़ियाँ नहीं बिक पा रही हैं। कई किसानों को सब्ज़ियों के वाजिब दाम न मिल पाने पर उनको अपनी सब्ज़ियों को नष्ट करना पड़ रहा है। पिछले दिनों एक किसान ने अपने पालक के खेत में ट्रैक्टर चलाने की खबर आयी थी। उत्तर प्रदेश के ज़िले बुलंदशहर के एक किसान ने बताया कि उसका आम 10 से 12 रुपये किलो ही बिका है। बाज़ार में खरीदार नहीं मिले; जबकि दूसरी ओर शहरों में आम 60 से 180 रुपये प्रति किलो के हिसाब से अभी भी बिक रहा है। वहीं दूसरी ओर दूध बेचने वाले किसानों का कहना है कि उनको मात्र 30 से 35 रुपये किलो का भाव मिलता है। जबकि उपभोक्ता को यह 60 से 80 रुपये किलो तक में प्राप्त हो रहा है। सब्ज़ी उगाने वाले एक किसान का कहना है कि मण्डी में उसका टमाटर सिर्फ 4 से 6 रुपये किलो ही बिकते हैं; जबकि शहरों में इन दिनों 60 से 100 रुपये किलो तक टमाटर बेचा जा रहा है।
बहरहाल इस महामारी से यह तो स्पष्ट हो गया है कि अगर लॉकडाउन लम्बे समय तक चलता है, तो ऐसे में सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि कमायी के सारे रास्ते बन्द होने और सरकार के राशन की वितरण प्रणाली में गड़बड़ी के कारण बड़ी संख्या में लोग गरीबी या भुखमरी के शिकार हो सकते हैं- अगर परिस्थितियों में जल्दी सुधार नहीं होता है तो; जिसकी सम्भावना बहुत कम नज़र आ रही है। अगस्त माह के अन्त तक बैंकों द्वारा दिये गये मोरेटोरियम पीरियड (ऋण स्थगन अवधि) का भी अन्त हो जाएगा और सितम्बर माह से बैंक िकस्त लेनी शुरू कर दी है। ऐसे समय में आम आदमी के हाथों में नकदी की िकल्लत होने की प्रबल सम्भावना है। रही-सही कसर चीन से सीमा विवाद से पूरी हो गयी है, यह अपने आप में एक दुर्घटना है।
बहरहाल इन परिस्थितियों में लोगों के लॉकडाउन को तोड़कर सड़क पर आने की सम्भावनाएँ बढ़ गयी हैं; क्योंकि उनके पास अपना कुछ खोने को नहीं है। उनको तो सिर्फ अपना पेट भरने का साधन चाहिए, जिसके लिए वह कोई भी काम करने पर उतारू हो सकते हैं। इससे कहीं-न-कहीं सामाजिक व्यवस्था में गड़बडिय़ाँ पैदा हो सकती हैं। चोरी एवं लूटपाट की वारदात लगातार बढ़ रही हैं। गाँव-देहात के क्षेत्रों में भी ट्यूबवेल मोटर और अन्य कृषि यंत्रों की चोरी की वारदात बढऩे की खबरें आ रही हैं। इन परिस्थितियों में सरकार को कम-से-कम लोगों को एक सहारा देने की ज़रूरत है, ताकि आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों को यह विश्वास हो जाए कि सरकार उनकी चिन्ता कर रही है और कम-से-कम उनके खाने का इंतज़ाम तो कर रही है।
मेरा मानना है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें आपसी समन्वय के साथ इस संकटकाल से निपटने की और बेहतर कोशिश करें, ताकि अगर भारत में कोरोना वायरस और फैलता है तथा इससे खाद्यान्न उत्पादन में कमी नज़र आती है, तो उस स्थिति में मध्यम और निम्न वर्ग के लिए रोज़गार व खाद्यान्न की व्यवस्था करने में समस्या न हो। मानवता के नाते भारतीय राजनीति में सहयोगात्मक एकजुटता दिखनी चाहिए। क्योंकि कोरोना वायरस के संक्रमण के नुकसान से जिस तरह दूसरे देश प्रभावित हुए हैं, अगर वैसा नुकसान भारत में होता है, तो इससे निपटना न तो अकेले केंद्र सरकार के वश की बात होगी और न ही किसी राज्य सरकार की। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों को पक्ष-विपक्ष और स्वहित की चिन्ता छोड़कर देशहित और जनहित के रास्ते पर आगे बढऩा चाहिए।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक है और यह उनके निजी विचार हैं।)