बढ़ती जा रही भिखारियों की संख्या

शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’

केंद्र सरकार को इन दिनों जनसंख्या से लेकर अन्य तमाम तरह के सर्वेक्षण कराने चाहिए। इससे बेरोज़गारी, भिक्षावृत्ति तथा लोगों की आजीविका के संसाधनों के आँकड़े स्पष्ट होंगे। कोरोना-काल ने इस देश के सामान्य वर्ग से जो कुछ छीना है, उसने तमाम परिवर्तन ऐसे हुए हैं, जो दु:खी करते हैं। अगर देश में भिक्षावृत्ति पर एक नज़र डालें, तो पता चलता है कि इसमें बेतहाशा बढ़ोतरी होती जा रही है। केवल दिल्ली के मन्दिरों के आगे भिखारियों की स्थिति देखें, तो पता चलता है कि अक्षरधाम मन्दिर, कनॉट प्लेस के हनुमान मन्दिर, करोल बाग़ के झण्डेवाला मन्दिर, कालका मन्दिर, यहाँ तक कि गली-मोहल्लों में बने छोटे-छोटे मन्दिरों पर भिखारियों का जमावड़ा लगा रहता है। हाल यह है कि किसी श्रद्धालु के मन्दिर में घुसने और निकलने के दौरान भिखारी उसे चारों ओर से घेर लेते हैं। इसी तरह दिल्ली में बनी मज़ारों के आगे भिखारियों का जमावड़ा देखा जा सकता है। गुरुद्वारों में भी भिखारियों का क़ब्ज़ा कम नहीं है; लेकिन वहाँ उन्हें दोनों वक़्त का खाना आसानी से मिल जाता है, इसलिए इनकी संख्या गुरुद्वारों के बाहर कम ही दिखायी देती है।

लक्ष्मी नगर के साईं मन्दिर के पंडित संदीप कहते हैं कि चार-पाँच साल पहले तक हर बृहस्पतिवार को भिखारी और श्रद्धालु मन्दिर के आगे प्रसाद पाने आते थे; लेकिन अब भिखारी यहाँ हर रोज़ ख़ूब देखे जा सकते हैं। हम लोग इन्हें परेशान देखकर नहीं भगाते, पर यह पूजा-पाठ करने आने वालों को अब परेशान करने लगे हैं। बच्चे, जवान, बूढ़े, हर उम्र के भिखारी यहाँ देखे जा सकते हैं। कोरोना जबसे आया है, यह संख्या बहुत बढ़ गयी है। इसी तरह अक्षरधाम मन्दिर पर बच्चे को गोद में लिए फुटपाथ पर ठण्ड में बैठी एक महिला भिखारी से पूछा कि वह यहाँ क्यों बैठी है? तो उसने जवाब न देते हुए अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। यह पूछने पर कि उसका पति कहाँ है और क्या करता है? महिला ने ख़ामोशी से एक तरफ़ इशारा कर दिया। एक दूसरी महिला, जो कुछ दूरी पर बैठी थी; से पूछने पर उसने बताया- ‘बाबूजी का करीं, हमार घर नाहीं है। यहीं से जो पावत हैं, उसी से ये पापी पेटवा भरत हैं।’ यह कहते-कहते महिला का गला रुँध गया और रुँधे गले से उसने मुझसे भी भीख माँगी।

यह दशा किसी एक मन्दिर के बाहर की नहीं है, बल्कि मेट्रो स्टेशनों के बाहर से लेकर बस स्टैण्डों और बाज़ारों तक की है। हर रोज़ गली में दरवाज़े पर आकर आवाज़ लगाने वाले दर्ज़नों भिखारियों को देखा जा सकता है। भिखारियों की संख्या इतनी बढ़ चुकी है कि इनकी क्षेत्र और जगह भी बँट चुके हैं। स्थिति यह है कि अगर कोई व्यक्ति इन भिखारियों को कुछ बाँटने के लिए पहुँचता है, तो उसे भीख माँगने वालों की एक भीड़ घेर लेती है। भीख माँगने वालों में युवाओं और बच्चों के बारे में सोचने की ज़रूरत है, क्योंकि इनका जीवन बर्बाद हो रहा है। बच्चों से लेकर किशोर और युवा होते युवा-युवती जिस तरह मन्दिरों, मज़ारों के बाहर हाथ फैलाकर दिन भर बैठे रहते हैं, वह बढ़ती भुखमरी और बेरोज़गारी का स्पष्ट उदाहरण है। इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। अन्यथा बाढ़ की तरह बढ़ रही भिक्षावृत्ति देश में अराजक और आलसी लोगों की एक फ़ौज खड़ी कर देगी।

 2011 की जनगणना के आँकड़े बताते हैं कि उस दौरान देश में चार लाख से ज़्यादा भिखारी और बिना किसी काम और आय के साधन वाले लोग थे। कई लोगों के लिए तो भीख माँगना एक व्यवसाय बन चुका है और भिक्षावृत्ति को आजीविका का साधन बना चुके लोग इसे किसी भी हाल में छोडऩा नहीं चाहते। ऐसा नहीं है कि पढ़े-लिखे लोग ही भीख माँग रहे हैं, बल्कि डिग्रीधारी लोगों ने भी कई जगह भीख माँगने को पेशा बनाया हुआ है। इनमें कुछ मजबूर भी होंगे, तो कुछ शौक़िया भी यह धंधा पकड़े हुए हैं। कई बार ऐसी ख़बरें सामने आयी हैं कि भिखारियों के संगठन बने हुए हैं, जो भिक्षावृत्ति से करोड़ों रुपये सालाना कमाते हैं। लेकिन केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें इस मामले पर ख़ामोश बैठी हुई हैं और बढ़ती भिक्षावृत्ति पर किसी को कोई चिन्ता नहीं है।

देश में बढ़ती भिक्षावृत्ति देश की आर्थिक दशा का वह आईना है, जो हर किसी को साफ़-साफ़ बेरोज़गारी, भुखमरी और देश की आर्थिक हालत की तस्वीर दिखा रहा है। पता नहीं क्यों सरकारों को यह तस्वीर दिखायी नहीं देती। जाने कितने ही लोग भीख माँगने को रोज़गार का विकल्प बनाते जा रहे हैं, जो उन लोगों के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है, जिनके सामने कोई हाथ अचानक भीख माँगने के लिए उठता है। इसमें एक बात जो अक्सर नज़रअंदाज़ की जाती है, वह भिक्षावृत्ति में लिप्त माफ़िया राज है। सन् 2011 में सामाजिक न्याय एवं सशक्ति की ‘शिक्षण स्तर और प्रमुख गतिविधि के तौर पर $गैर कामगारों’ के आँकड़ों में पुष्टि हुई थी कि उस दौरान के 4,13,670 भिखारियों में से 2,21,673 भिखारी पुरुष और 1,91,997 भिखारी महिलाएँ थीं। हैरानी की बात है इन भिखारियों में उच्च शिक्षा प्राप्त भी थे। इनमें 21 प्रतिशत 12वीं पास थे। सन् 2011 के राज्यवार आँकड़े बताते हैं कि उस समय सबसे ज़्यादा 81,244 भिखारी पश्चिम बंगाल में थे। इसके बाद उत्तर प्रदेश में 65,000 से ज़्यादा, बिहार और आंध्र प्रदेश में 30,000, मध्य प्रदेश में 28,000 भिखारी थे। इसी तरह दिल्ली में 23,000 भिखारी थे। आँकड़ों से पता चलता है कि आईटी हब बेंगलूरु जैसे शहर में सन् 2011 में 80 भिखारी स्नातक और 30 डिप्लोमाधारी थे। केरल जैसे शिक्षित राज्य में भी सन् 2011 में 42 प्रतिशत भिखारी शिक्षित थे।

मार्च, 2018 में भिखारियों को लेकर लोकसभा में सामाजिक कल्याण मंत्री थावरचंद गहलोत द्वारा जारी केंद्र सरकार के आँकड़े बताते हैं कि इस समय तक देश में कुल 4,13,760 भिखारी थे, जिनमें 2,21,673 पुरुष और 1,91, 997 महिला भिखारी थे। इस रिपोर्ट में भी पश्चिम बंगाल को सबसे ज़्यादा भिखारियों का राज्य बताया गया है। इस रिपोर्ट में सबसे कम केवल दो भिखारी लक्षद्वीप में बताये गये हैं। लेकिन कोरोना-काल के बाद से जिस तरह भिखारियों की संख्या बढ़ी है, उससे ऐसा लगता है कि देश में 10,00,000 से कम भिखारी नहीं होंगे। भिक्षावृत्ति के आँकड़े सर्वे न होने के कारण खुलकर हमारे सामने नहीं आ पा रहे हैं। यही कारण है कि भिक्षावृत्ति रोकने के लिए बने क़ानून किसी काम के नहीं हैं।

भिक्षावृत्ति को रोकने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 की व्यापक व्याख्या में माना है कि जीवन के अधिकार का अर्थ मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है, जो शोषणकारी स्थिति से होना है। सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद-21 के तहत जीवन के अधिकार की अभिव्यक्ति में आजीविका का अधिकार शामिल है। लेकिन अनुच्छेद-23 कहता है कि जीवन का अधिकार शोषण से मुक्त हो। भिक्षावृत्ति विरोधी क़ानूनों को संविधान के अनुच्छेद-19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर जबरदस्त आक्रमण कहा जा सकता है और यह भीख माँगने वाली आबादी के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का भी उल्लंघन करता है। ऐसे ही देश के विभिन्न राज्यों में भिक्षावृत्ति क़ानून बने। मुख्य रूप से बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट-1959, मध्य प्रदेश भिक्षावृत्ति निवारण अधिनियम-1973, उत्तर प्रदेश भिक्षावृत्ति प्रतिषेध अधिनियम-1975 है। इसी क़ानून की तर्ज पर उत्तराखण्ड सरकार ने कुछ वर्ष पहले ऑपरेशन मुक्ति बनाया था, जो पूरी तरह सफल नहीं हो सका। ऐसे ही राजस्थान की गहलोत सरकार ने बीती 26 जनवरी तक राजस्थान को भिक्षावृत्ति मुक्त राज्य बनाने की बात कही थी; लेकिन इसका कोई बड़ा असर राज्य में देखने को नहीं मिला।

रेलवे अधिनियम-1989 की धारा-144 के मुताबिक, यदि कोई व्यक्ति भारतीय रेलवे के किसी परिसर या रेलगाड़ी में भीख माँगता पकड़ा जाता है, अर्थात् भिक्षावृत्ति से संबन्धित गतिविधियों में संलग्न पाया जाता है, तो उस पर 1,000 रुपये तक का ज़ुर्माना या एक वर्ष तक की जेल या फिर दोनों ही हो सकते हैं। इस अधिनियम की धारा-167 में यह प्रावधान है कि रेलगाड़ी / रेलवे प्लेटफॉर्म / अन्य रेलवे परिसर में धूम्रपान करने पर जेल की सज़ा हो सकती है। लेकिन रेलवे स्टेशन से लेकर रेलवे परिसर में भिखारियों का मिलना कोई दुर्लभ बात नहीं है।

वास्तव में भिक्षावृत्ति की आड़ में वेश्यावृत्ति, नशे का धंधा, बच्चा चोरी और अपहरण जैसे जघन्य अपराध पनप रहे हैं। बढ़ती महँगाई और जनसंख्या, घटते रोज़गार और कम पड़ते संसाधन भिक्षावृत्ति बढऩे के प्रमुख कारण हैं, जिनसे निपटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को साफ़ नीयत से कई ठोस क़दम उठाने होंगे।

अगर भिक्षावृत्ति को रोकना है, भिक्षावृत्ति बढऩे के कारणों और इसे रोकने में आड़े आने वाली चुनौतियाँ। सरकार के पास भिक्षावृत्ति के आँकड़े भले ही मौज़ूद नहीं हैं; लेकिन फिर भी इसे बढऩे से रोका जा सकता है। जिन राज्यों में भिक्षावृत्ति निरोधक क़ानूनों को राज्य सरकारों को सही तरीक़े से अमल में लाना होगा। लोगों में नाकारापन, आलस्य और कामचोरी की प्रवृत्ति को ख़त्म करते हुए विकास कार्यों पर ध्यान देना होना। तरह-तरह से रोज़गार बढ़ाने होंगे। सरकार और विभिन्न संगठनों का दावा है कि भिक्षावृत्ति को ख़त्म करने हेतु अनेक उपाय किये गये हैं और यह कुछ हद तक सफल रहे हैं। लेकिन भीख माँगना अभी भी जारी है, जिसके लिए भिक्षा माँगने वालों की ही तरह भिक्षा देने वाले भी दोषी हैं और सरकारें भी।