यह कहानी सूरज ने किरणों से कही, किरणों ने हवाओं से, हवाओं ने बादलों से, बादलों ने चांद से, चांद ने धरती से, धरती ने बिज्जी से और बिज्जी ने हमसे. पूरब से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक, धूप से छाया तक, सत्य से माया तक, क्षितिज से अनंत तक, आकाश से पाताल तक पसरी इस कहानी में दिन-रात आते-जाते रहे, सूरज-चांद निकलते-डूबते गए, देवताओं के कोप की मारी धरती किसानों के हल से परती में बदलने से बचती रही, आशा जीवन को बचाती रही, दुविधा प्रेम में बदलती रही और इन सारे रंगों से बनने वाले जिंदगी के रंग मुस्कुराते रहे. इस कहानी में राजा आए, रंक आए, प्रेत आए, मानुस आए, भूत आए, भांड आए, रानी आई, दाई आई, दुनिया भर का भोलापन आया, जमाने भर की चतुराई आई- यह कहानी हमें जगाती भी रही और सुलाती भी रही, हंसाती भी रही और रुलाती भी रही.
वाकई, बिज्जी- यानी विजयदान देथा- न होते तो हम जान भी न पाते कि हमारी लोककथाओं का वितान कितना बड़ा है. आधी सदी तक राजस्थान के रेतीले-रंगीले, जलविहीन-तरल प्रांतरों में घूमते-भटकते हुए, हवेलियों, कुओं, बावड़ियों, महलों, किलों और खेत-खलिहानों की धूल-खाक, पानी-हवा, आग-ताप झेलते-छानते हुए वे लोककथाओं का वह खजाना खोजते और सहेजते रहे जो मिट्टी की स्मृतियों में शामिल है और स्मृतिविहीनता के इस नए वीराने में मिट्टी हुआ जा रहा है. ‘बातां री फुलवाड़ी’ के अब तक प्रकाशित चौदह खंड राजस्थानी लोककथाओं की समृद्ध विरासत हंै जिन पर कोई भी संस्कृति गर्व कर सकती है. यह अनूठी तपस्या थी जो एक जगह बैठकर नहीं बल्कि जगह-जगह घूम कर, बिज्जी करते रहे जिसने उन्हें साधुओं जैसी घुमक्कड़ी दी, शिशुओं जैसा उल्लास दिया और किसी ऋषि जैसी उदात्तता भी दी.
लेकिन विजयदान देथा सिर्फ संग्राहक और संचयक नहीं थे, उन्होंने इन लोककथाओं का पुनर्सृजन भी किया. इन कहानियों पर पड़ी वक्त की धूल-गर्द छांटी, उन्हें समकालीनता के शीशे से तराशा और अपनी कल्पनाशील कलम का ऐसा स्पर्श दिया कि वे कहानियां जैसे जादू बन गईं. उनकी बारीक दृष्टि ने इन कहानियों में छुपा वह जनपक्षीय तत्व खोजा जो राजा की हेकड़ी को अंगूठा दिखाता है और गड़रिये की फकीरी को सलाम करता है. उनकी कहानी का भांड साधु का रूप धर कर एक सेठ को इस तरह मोह लेता है कि वह अपनी पूरी संपत्ति साधु के नाम कर देता है. लेकिन इस मौके पर भांड अपने असली रूप में आ जाता है और गाल बजाता हुआ कहता है कि यह ‘रिजक की मर्यादा’ के विरुद्ध है. यह कंगाली की वह बादशाहत है जो आखिरकार अत्याचारी राजा और उसके साले के खात्मे का जरिया बनती है. बिज्जी जैसी पारदर्शी आंख ही किसी सियारिन के भीतर दुनिया की सुंदरतम स्त्री जैसा गुरूर देख सकती है और किसी सियार में एक ऐसे गर्वीले प्रेमी का अभिमान जो सूरज और चांद से लड़ने को तैयार हो जाए. सियारिन प्यास बुझाने झील किनारे जाती है तो रात में चांद और दिन में सूरज की परछाईं देख उसे पराये मर्द की अशिष्टता बताती है. अपने शील- अपने सत्त- को लेकर वह इतनी सजग है कि उसे ‘धूप और हवा का परस भी नहीं सुहाता’. उनकी एक कहानी ‘उलझन’ की बंजारन अपना मगरूर बंजारा पति छोड़, जंगल में बनमानुस की तरह जी रहे एक छूटे हुए बच्चे को आदमी बनाती है, भाषा सिखाती है और दुनिया दिखाती है. बाद में वह राजा का बेटा निकलता है, लेकिन जिसने उसे इस राजपाट लायक बनाया, उसकी उपेक्षा करता है. अपने विरुद्ध खड़ी एक दुनिया में स्त्री के साहस और अकेलेपन की ऐसी मार्मिक कहानियां बिज्जी के जमा हुए खजाने में ही संभव हैं.
और ऐसी कहानियां ढेर सारी हैं जिनका सिलसिला शुरू हो जाए तो न दिन पूरे पड़ें न रातें खत्म हों. असली बात यह है कि बिज्जी की अचूक दृष्टि इन कहानियों के सहारे उस लोकतत्व को बड़ी आसानी से छांट और छान लेती है जो एक हद तक हमारी समृद्ध और वास्तविक भारतीयता का आधार है. बिज्जी इन कहानियों को एक आधुनिक और बहुलतावादी पाठ भर नहीं देते, वे उस पूरी परंपरा को सामने रख देते हैं जिसमें सामंती जीवन-दृष्टि के समानांतर और उसके प्रतिकार में खड़ी एक लोकदृष्टि भी विकसित होती चलती है.
कभी सिर्फ राजस्थानी में लिखने की जिद और फिर बाद में हिंदी में उसका पुनर्लेखन करते हुए ही बिज्जी ने लोक और आधुनिक के बीच का वह पुल बनाया जिसमें हमारी भाषा बेहद समृद्ध दिखाई पड़ती है- निस्संदेह राजस्थानी मुहावरों और बोली-बानियों के ठाठ से सजी-धजी, लेकिन अखिल भारतीय अपील पैदा करने वाली. लोक और शास्त्रीय के बीच यह तनी हुई रस्सी बिज्जी ने जिस तरह बुनी और साधी, उसी का नतीजा था कि एक तरफ उनके गंभीर पाठकों की संख्या बहुत बड़ी रही तो दूसरी तरफ लोकरंजन के सबसे बड़े माध्यम सिनेमा को बार-बार उनकी कहानियां अपनी ओर खींचती रहीं.
विजयदान देथा का कृतित्व यह भी बताता है कि भारत की विपुल लोकसंपदा को संभालने के लिए एक नहीं कई बिज्जी चाहिए. बेशक, उन्होंने जो लोककथाएं सहेजीं, उनमें बहुत सारी कहानियां राजस्थान की सरहद के बाहर भी कही-सुनी जाती रही हैं, लेकिन फिर भी एक बड़ा भंडार ऐसा है जो अब बड़ी तेजी से विलुप्त हो रहा है क्योंकि जिस स्मृति में वह संचित है, उस पर बहुत सारे सांस्कृतिक- या अपसांस्कृतिक- हमले हो रहे हैं. लेकिन इस भंडार को बचाना जरूरी है- एक विलुप्त हो रही परंपरा को बचाने के लिए ही नहीं बल्कि उस नई आधुनिकता को सिरजने के लिए भी जो अपने मूल में जनपक्षीय, बहुलतावादी और संवेदनशील है- वह आधुनिकता, जो जड़, यांत्रिक और प्रदत्त नहीं है, बल्कि बिज्जी की कहानियों के अलग-अलग किरदारों में, अपनी परंपरा से निकले बिल्कुल हाड़मांस के जीवन की तरह धड़कती है, जिसमें इतनी मौलिकता है कि वह बार-बार अपना पुनर्सृजन कर सके.