दिल्ली विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का कहना था, ‘ आज राजनीतिक दल सड़क पर चलते आम आदमी की आवाज को जगह नहीं दे रहे हैं. आम आदमी पार्टी ने ऐसे लोगों को सुना, उन्हें स्थान दिया. हम ऐसा नहीं कर पाए. हमें आम आदमी पार्टी से सीखने की जरूरत है.’
यह 13 माह पहले बनी हुई एक नई नवेली पार्टी की ऐतिहासिक सफलता पर भारत की सबसे पुरानी पार्टी की प्रतिक्रिया है. वह राजनीतिक नौसिखियों से बनी इस साल भर पुरानी पार्टी से न सिर्फ हार स्वीकार कर रही है बल्कि उससे सीखने की भी जरूरत बता रही है. कभी इसी पार्टी के एक नेता ने आप के नेताओं को गटर के कीड़े तक कह दिया था. आप ने भारतीय लोकतंत्र और राजनीति पर क्या असर किया है, यह प्रतिक्रिया इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.
जानकारों से लेकर आम जनमानस भी मानता है कि आप की चुनावी सफलता भारतीय राजनीति में कई दीर्घकालिक बदलावों का संकेत है. सबसे बड़ी बात यह है कि इस पार्टी ने भारतीय लोकतंत्र को मजबूत किया है. इसने राजनीति में मतदाताओं के सामने एक नया विकल्प पेश किया है. एक ऐसा विकल्प जिसने देश की पारंपरिक राजनीति को न सिर्फ चुनौती दी है बल्कि एक नए वर्ग का निर्माण भी किया है–एक ऐसा वर्ग जो आज तक मुख्यधारा की राजनीति से कटा हुआ था, जो परंपरागत राजनीति से नाराज था, जिसने आज तक न किसी राजनीतिक दल का न झंडा-डंडा उठाया था और न ही किसी के लिए नारे लगाए थे, जो व्यवस्था परिवर्तन की इच्छा रखता था लेकिन राजनीति से दूर ही रहना चाहता था. ऐसे लोगों के बीच आम आदमी पार्टी ने राजनीति को एक सम्मानित शब्द बनाया है. इस वर्ग के लिए वह एक ऐसा मंच या विकल्प बनकर भी आई जहां वह अपनी बात कर सकता था. ऐसे लोगों को आप के रूप में प्रतिनिधित्व मिला. आप ने सबसे अधिक चुनौती उसी पारंपरिक राजनीति के लिए पेश की है जो जाति, धर्म, क्षेत्र और संप्रदाय जैसे कारकों पर आधारित है.
पार्टी नेता योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘आप की सबसे बडी सफलता उन सीटों की नहीं है जो उसने दिल्ली चुनाव में जीती हैं बल्कि उसकी सबसे बड़ी सफलता है कि उसने राजनीति में लोगों की आस्था जगाई है. लोगों को राजनीति से जोड़ा है. उनमें भरोसा पैदा किया है कि बदलाव हो सकता है. साथ में उसकी वजह से ही नेताओं की आंखों में कुछ शर्म आ पाई है जिसकी वजह से वे पहले जहां सरकार बनाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते थे लेकिन आज खुद की जगह दूसरे को सरकार बनाने के लिए कह रहे हैं.’ आप ने देश भर में चल रहे तमाम जनआंदोलनों के लिए भी उम्मीद जगाने का काम किया है. जनसत्ता के संपादक ओम थानवी कहते हैं, ‘आप की सफलता के बाद तमाम जनसंघर्षों से जुड़े लोगों में सोच पनपेगी कि लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष के साथ ही चुनावी राजनीति को भी आजमाया जा सकता है. ’
भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को न्याय दिलाने लिए पिछले तीन दशकों से संघर्ष कर रहे भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के अध्यक्ष अब्दुल जब्बार कहते हैं, ‘हम आप की सफलता से बेहद खुश और उत्साहित हैं. जो सरकारें जनसंघर्षों को नजरअंदाज करती है, उन्हें कुचलती हैं उनके मुंह पर यह तमाचा है. लोग सड़क पर संघर्ष करने के साथ ही अब राजनीतिक विकल्प के बारे में भी सोचेंगे. हम भी इस दिशा में सोच रहे हैं.’
वरिष्ट पत्रकार दिलीप पड़गांवकर कहते हैं, ‘किसी आंदोलन को राजनीतिक दल में परिवर्तित कर सफल बना पाना आसान काम नहीं है. लेकिन आम आदमी पार्टी ने यह करके दिखाया है. ऐसे में आप की सफलता में तमाम जनसंघर्षों के लिए ये मजबूत संदेश छिपा है कि वे भी चुनावी राजनीति में सफल हो सकते हैं.’ पार्टी से जुड़े अजीत झा बताते हैं कि दिल्ली विधानसभा का चुनाव परिणाम आने के बाद तमाम जनसंघर्षों से जुडे लोगों ने पार्टी से संपर्क किया है. वे चुनावी राजनीति में उतरने के लिए तैयार हैं. इनमें से बड़ी तादाद उन लोगों की भी है जो पहले आंदोलन के राजनीतिक होने के विरोध में थे.
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यूं होता तो क्या होता
अगर केजरीवाल शीला के खिलाफ न लड़ते तो
जानकारों की मानें तो केजरीवाल के लिए दिल्ली की किसी अन्य सीट पर चुनाव जीतना ज्यादा आसान था लेकिन शीला दीक्षित के खिलाफ उतर कर उन्होंने अपने इरादों की ऊंचाई का एक और उदाहरण पेश किया. आम तौर पर प्रमुख विपक्षी नेता आमने-सामने आने से हमेशा परहेज ही करते रहे हैं. इस तरह देखा जाए तो केजरीवाल ने ऐसा करके गजब का राजनीतिक साहस दिखाया जिसे जनता ने हाथों-हाथ लिया. केजरीवाल के इस कदम से भाजपा को भी नए सिरे से अपनी रणनीति बनानी पड़ी और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विजेंद्ग गुप्ता को मुकाबले में लाना पड़ा. इससे पहले शायद ही ऐसा हुआ होगा कि भाजपा और कांग्रेस ने अपने दिग्गजों को इस तरह आमने सामने किया हो. केजरीवाल के इस कदम ने लोक सभा चुनावों को लेकर ‘आप’ के प्रति लोगों के सकारात्मक सहयोग की उम्मीदें बढ़ा दी हैं.
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आप को दिल्ली में मिली सफलता का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि पार्टी ने विविध मतदाताओं के बीच अपनी पैठ बनाई है. एक तरफ पार्टी ग्रेटर कैलाश जैसे पॉश इलाके में विजयी हुई है तो दूसरी तरफ झुग्गी और पिछड़े इलाकों में भी उसे सफलता हासिल हुई है. अगर युवा पार्टी से बड़ी संख्या में जुड़े हुए हैं तो दूसरी तरफ वरिष्ठ नागरिकों की एक भारी तादाद भी उससे जुड़ी है. एक तरफ जहां पार्टी ने सोशल मीडिया का क्रांतिकारी प्रयोग करके राजनीति में सोशल मीडिया के महत्व को स्थापित किया है और उसकी देखादेखी बाकी दल भी सोशल मीडिया पर अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए लगातार जोर लगा रहे हैं तो वहीं पार्टी झुग्गी झोपड़ियों में भी अपना एक मजबूत नेटवर्क स्थापित कर चुकी है. दिल्ली के परिप्रक्ष्य में अगर हम देखें तो पाएंगे कि पार्टी ने समाज के हर वर्ग को खुद से जोड़ने की कोशिश की है.
आप ने जो चुनावी आगाज किया है वह ऐतिहासिक है. 1980 के दशक में आंध्र प्रदेश में उभरी टीडीपी को छोड़ दें तो देश ने शायद ही कोई ऐसी सियासी शुरुआत देखी है. जानकार मानते हैं कि आप ने खुद को विश्वसनीय विकल्प के रूप में उस जनता के सामने पेश किया जो भ्रष्टाचार, भ्रष्ट नेता-राजनीति और अत्यधिक महंगाई से तंग आ चुकी थी.
यह आप के लोकतंत्र और चुनावी राजनीति का प्रभाव ही कहा जाएगा कि उसकी वजह से दूसरी पार्टियों पर आचरण की शुचिता का दबाव बढ़ा. भाजपा जैसी पार्टी को चुनाव के ऐन पहले अपना मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बदलना पड़ा, 70 अलग-अलग विधानसभाओं के लिए अलग-अलग घोषणापत्र तैयार करने पड़े. देश में आम आदमी पार्टी पहली ऐसी पार्टी बनी जिसने सियासत में तकनीक के महत्व को रेखांकित किया. इंटरनेट पर उसके प्रभावी अभियान का नतीजा है कि दूसरे भी अब सोशल मीडिया को गंभीरता से ले रहे हैं.
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विचित्र किंतु सत्य
निर्दलीयों तथा अन्य दलों की जमीन सिमटी
इस बार के विधान सभा चुनाव कांग्रेस भाजपा तथा आम आदमी पार्टी के अलावा निर्दलीयों एवं अन्य दलों के लिए पिछले चुनाव के मुकाबले घाटे का सौदा रहे. दिल्ली में आम आदमी पार्टी को छोड़ दिया जाए तो शेष राज्यों में कोई भी अन्य दल ठीक-ठाक प्रदर्शन नहीं कर पाया. पिछले विधान सभा चुनावों के परिणामों पर गौर करें तो इन पांच राज्यों में चुनाव जीते निर्दलीयों तथा अन्यों की संख्या 52 थी जबकि इस बार यह आंकड़ा 29 पर सिमट गया. इन परिणामों से एक निष्कर्ष यह भी निकाला जा सकता है कि ठोस विकल्प न होने की स्थिति में मतदाता बड़े राजनीतिक दलों पर ही भरोसा जताते हैं.
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आप ने देश की राजनीति को उसका चेहरा दिखाने का काम भी किया है जो पहचान, धर्म, जाति, चापलूसी, और काले धन आदि से घिरी हुई थी. उसने राजनीति दलों और नेताओं के सामने चुनावी खर्च का एक ऐसा मॉडल स्थापित किया है जो पारदर्शी और जनता से मिले दान पर आधारित था, जिसमें एक एक रुपये का हिसाब था, जिसे कोई भी देख जान सकता था. एक सीमित चंदे से चुनाव लड़कर और जीत कर उसने दिखाया. कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता कि ये सारे कारक राजनीति में कुछ सकारात्मक और स्थायी बदलावों के उत्प्रेरक बनेंगे.
कई जानकार ऐसा मानते हैं कि आप का आगाज भारत की राजनीतिक पार्टियों को एक चेतावनी है जो कहती है कि अब उन्हें अपने राजनीतिक तौर तरीके और संस्कृति में बदलाव लाना होगा. उन्हें आम जनता को और अधिक खुद से जोड़ना होगा. उसकी सुननी होगी क्योंकि उस आम जनता के पास अब एक और विकल्प है. सिर्फ ईमानदारी की बातों से काम नहीं चलेगा. ईमानदार होना भी पड़ेगा. पड़गांवकर कहते हैं, ‘जिस तरह की राजनीति पार्टी और नेता पहले किया करते थे उससे काम नहीं चले वाला. उन्हें बदलना होगा. युवा मतदाताओं की भूमिका निर्णायक होती जा रही है. उनकी महात्वाकांक्षाओं पर आपको ध्यान देना होगा. परंपरागत नेताओं और पार्टियों को नई राजनीतिक भाषा सीखनी होगी.’
दिल्ली विधानसभा परिणाम आने के दो दिन बाद जंतर मंतर पर पार्टी समर्थकों को संबोधित करते हुए योगेंद्र यादव का कहना था ‘ हम खेल (राजनीति) के नियम बदलेंगे.’ आने वाला समय ही बताएगा कि नियमों में यह बदलाव दीर्घकालिक होगा या फिर वह भी आखिरकार उन्हीं नियमों के शिकंजे में फंस जाएगी.