‘यह सब आंसुओं के साथ खत्म हुआ. कहते हैं कि ज्यादातर खेल कोचों के कार्यकाल का अंत ऐसा ही होता है. लेकिन मेरा मामला थोड़ा अलग था.’
अपनी आत्मकथा बिहाइंड द शेड्स की शुरुआत डंकन फ्लेचर ने इन्हीं पंक्तियों के साथ की है. भारतीय टीम के मौजूदा कोच फ्लेचर ने ये लाइनें 2007 में तब लिखी थीं जब इंग्लैंड एशेज सीरीज में ऑस्ट्रेलिया के हाथों 0-5 की अपमानजनक हार झेल चुका था. उनके आत्मविश्वास की वजह यह थी कि इस हार को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो इंग्लैंड के कोच के तौर पर सात साल लंबा उनका कार्यकाल बहुत शानदार रहा था. दो दशक तक रूठे रहे एशेज कप को 2005 की गर्मियों में वे इंग्लैंड वापस ले आए थे. इसके अलावा 2000 से 2004 के बीच उनके मार्गदर्शन में इंग्लैंड ने श्रीलंका, वेस्टइंडीज, पाकिस्तान और दक्षिण अफ्रीका को टेस्ट श्रृंखलाओं में फतह किया था. उन्हीं के नेतृत्व में इंग्लैंड ने लगातार आठ टेस्ट मैच जीतने का रिकॉर्ड बनाया. इन चमकदार सफलताओं की वजह से ही शायद इंग्लैंड में उनकी विदाई इतनी गरिमापूर्ण बन गई थी कि उन्होंने इस आयोजन को ही अपनी आत्मकथा की पहली लाइन का आधार बनाने का फैसला कर लिया.
हालांकि फ्लेचर टेस्ट क्रिकेट के जितने बढ़िया कोच थे उतने ही बुरे कोच वे एकदिवसीय मैचों में साबित हुए थे. इंग्लैंड के ही संदर्भ में देखें तो उन्होंने जिन 166 एकदिवसीय मैचों में कोचिंग की उनमें से इंग्लैंड को सिर्फ 75 मैचों में जीत हासिल हुई और 82 में टीम को हार का मुंह देखना पड़ा.
बाकी में नतीजे नहीं निकल सके. यानी उनकी सफलता की दर पचास फीसदी से भी कम रही. जिस समय फ्लेचर ने भारतीय टीम की कोचिंग संभाली उस समय टीम टेस्ट मैचों की नंबर एक टीम थी. पिछले एक दशक के दौरान धीरे-धीरे उसने विदेशी पिचों पर हारने का मिथ तोड़ दिया था. मांद के शेर वाला ठप्पा टीम के माथे से मिटने लगा था. ऐसे समय में टीम के पूर्व कोच दक्षिण अफ्रीकी गैरी कर्स्टेन ने कोच के तौर पर डंकन फ्लेचर का नाम सुझाया था. टेस्ट मैचों में उनकी कोचिंग का शानदार रिकॉर्ड देखते हुए यह माना गया कि वे इस नंबर एक टीम को यहां से आगे ले जाने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं. लेकिन उनके नेतृत्व में खेली गई पिछली लगभग सभी श्रृंखलाओं में भारतीय टीम की जो गत बनी है उसने फ्लेचर की प्रतिष्ठा को छिन्न-भिन्न कर दिया है. पिछले 11 टेस्टों में टीम दस में हारी है और सिर्फ एक जीत मयस्सर हुई है.
इतने शर्मनाक रिकॉर्ड के बाद पूरे भारतीय मीडिया में टीम को बदलने की बात हो रही है, कप्तान को बर्खास्त करने की मांग हो रही है, सचिन तेंदुलकर को संन्यास की सलाह दी जा रही है लेकिन फ्लेचर की असफल भूमिका उतनी बात नहीं हो रही.
भारतीय क्रिकेट टीम के कोच का पद दुनिया के कुछ सबसे मलाईदार खेल कोच पदों में से एक है. करार के मुताबिक फ्लेचर को सालाना सवा करोड़ रुपये मिलते हैं. इसके अलावा व्यक्तिगत रुचि का स्टाफ, आवास, साल में अपने घर जाने के पांच रिटर्न टिकट और मैदान में लंबा-चौड़ा सपोर्ट स्टाफ. फ्लेचर का करार दो साल का है जिसके लगभग छह महीने अभी बाकी हैं. इन छह महीनों के दौरान ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान को भारत आना है और भारत को दक्षिण अफ्रीका में श्रृंखला खेलनी है. सवाल है कि क्या इतने घटिया रिकॉर्ड के बाद फ्लेचर पर विश्वास किया जा सकता है. इनमें से ऑस्ट्रेलिया के साथ श्रृंखला एक तरह से बदले की श्रंखला है क्योंकि उसने भी इस साल की शुरुआत में भारत को इंग्लैंड की तरह ही 0-4 से हराया था.
वैसे खतरे की घंटी पिछले साल ही बज गई थी. जब भारतीय टीम ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में अपना सूपड़ा साफ कराके लौटी थी. इसके बावजूद भी बीसीसीआई की आंख नहीं खुली. ऐसा नहीं है कि किसी ने इसकी चर्चा नहीं की. मई में बोर्ड की वर्किंग कमेटी की एक बैठक में भारतीय टीम के पूर्व कप्तान अनिल कुंबले (फिलहाल कर्नाटक क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष) ने 0-8 का मुद्दा रखा था. उन्होंने धोनी-फ्लेचर की जवाबदेही से जुड़े कुछ सवाल भी रखे थे. लेकिन सूत्रों के मुताबिक उन्हें यह कहकर चुप करवा दिया गया कि बोर्ड अध्यक्ष एन श्रीनिवासन ये सारे सवाल धोनी-फ्लेचर के सामने पहले ही रख चुके हैं और जल्द ही उनकी तरफ से जवाब आ जाएगा. आज तक इस बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है कि कुंबले के उन सवालों का क्या जवाब कोच-कप्तान ने दिया और उस दिशा में टीम ने क्या बदलाव किए.
फ्लेचर ने भारतीय टीम का कोच पद तमाम सुविधाओं के अलावा अपनी कुछ अतिरिक्त शर्तों के साथ स्वीकार किया था. उन्हीं शर्तों के कारण 2011 में वेस्ट इंडीज के दौरे पर गई भारतीय टीम बिना किसी पूर्णकालिक कोच के गई. वजह यह थी कि विश्वकप विजय के बाद गैरी पद से हट चुके थे पर फ्लेचर तत्काल ज्वाइन करने को तैयार नहीं थे. उन्हीं शर्तों में से एक अलिखित शर्त यह भी बताई जाती है कि फ्लेचर ने बोर्ड अध्यक्ष को सीधे-सीधे कह दिया था कि वे टीम चयन, जूनियर टीम और घरेलू क्रिकेट से कोई वास्ता नहीं रखेंगे. एक तरह से फ्लेचर ने अपनी स्थिति साफ कर दी थी कि उन्हें जो 11 खिलाड़ी मिलेंगे वे उन्हीं से मतलब रखेंगे. बाकी देश के क्रिकेट सर्किट में क्या चल रहा है, कौन उनके किस काम आ सकता है इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है. सवाल उठता है कि राष्ट्रीय टीम का कोच अगर अपने अगल-बगल की चीजों से इतना कटा रहेगा तो वह अंतरराष्ट्रीय स्तर की टीम कैसे बनाएगा. फ्लेचर के इस बेरुखे रवैये में बीसीसीआई ने भी बड़ी भूमिका निभाई है. उनके कॉन्ट्रैक्ट में साफ-साफ लिखा है कि वे देश या विदेश के मीडिया से किसी तरह का संवाद नहीं रख सकते. इससे एक संवादहीनता की स्थिति लगातार बनी हुई है. दिग्गज क्रिकेटरों और विश्लेषकों को आज तक जरा भी अंदाजा नहीं कि आदर्श भारतीय टीम को लेकर फ्लेचर की योजना और विजन क्या है.
टीम के साथ उनके संबंधों को लेकर भी एक तरह का संदेह ही छाया रहता है. इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ दें तो कभी भी किसी खिलाड़ी ने उनके बारे में ऐसी कोई बात नहीं की है जिससे यह पता चल सके कि वे कितने बढ़िया या कितने खराब टीम मैन हैं. मैचों के दौरान भी लगभग हर परिस्थिति में उनके चेहरे पर पत्थर-सा स्थायित्व का भाव बना रहता है. कभी किसी ने उन्हें हार या जीत पर खुद को भावनाओं में बहते या व्यक्त करते हुए नहीं देखा है. इस मामले में टीम में जुमला चलता है कि कोच और कप्तान दोनों ही ‘पत्थर के सनम’ हैं. धोनी की कूल मानसिकता की बात तो काफी हो चुकी है. दोनों के बीच यही बात साझी है. माना जाता है कि यही स्थिति दोनों को आपस में जोड़े रखती है और इसी के चलते दोनों कठिन स्थितियों में भी आगे बढ़ते रहे हैं. वरना टीम के जूनियर खिलाड़ी, जिनके ऊपर भविष्य की भारतीय टीम खड़ा करने का दारोमदार है, उनकी मानंे तो फ्लेचर उनके साथ नाममात्र की बातचीत रखते हैं. यह स्थिति फ्लेचर के पूरी तरह से दिशाहीन होने का संकेत देती है और एक ऐसा अनिच्छुक व्यक्ति होने का भी जो अपनी पुरानी प्रतिष्ठा के दम पर एक मलाईदार पद पा गया है और एक ताकतवर कप्तान के साथ मिलकर किसी तरह से अपना कॉन्ट्रैक्ट पूरा करना चाहता है.
लेकिन दशक भर पहले तक स्थितियां ऐसी नहीं थीं. 1-10 के स्कोर के बाद या तो कप्तान या फिर कोच को रास्ता छोड़ना पड़ता. सौरभ-जॉन राइट (टीम इंडिया की नींव डालने वाली जोड़ी) के मामले में हमने यही देखा, राहुल द्रविड़-ग्रेग चैपल के बारे में यह बात और साफ हो गई थी. थोड़ा और पीछे जाएं तो सचिन तेंदुलकर का उदाहरण सामने है. तब तक देश में विदेशी कोचों का चलन शुरू नहीं हुआ था. सचिन ने कुल 13 टेस्ट मैचों में कप्तानी की थी. उनका स्कोर था छह हार और सात ड्रॉ. इसके बावजूद उन्हें कप्तानी से जाना पड़ा. आज धोनी की कप्तानी पर तो सवाल उठ रहे हैं लेकिन कोच के बारे में कोई बात नहीं कर रहा है. धोनी की पिछले तीन टेस्ट के स्कोर पर अगर नजर डालें तो उनका औसत 18 का है. इस आंकड़े के आधार पर धोनी टीम में जगह पाने के भी अधिकारी नहीं हैं, लेकिन वे टीम के सबसे ताकतवर कप्तान हैं. जो चिंताजनक बात देखने में आ रही है, वह है कोच और कप्तान का दंभी और हठी रवैया. टेस्ट दर टेस्ट खिलाड़ी उसी स्टाइल में आउट हो रहे हैं, फील्डिंग में वही खामियां दिख रही हैं लेकिन सुधार का कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहा. तेंदुलकर को ही लें जिनके पिछले कुछ समय से बार-बार क्लीन बोल्ड होने पर सवाल उठ रहे हैं. ऐसे में एक कोच के तौर पर फ्लेचर की भूमिका क्या है?
हालांकि एक और गलती शायद फ्लेचर और धोनी दोनों ही नहीं झेल पाएं. इंग्लैंड के साथ आखिरी टेस्ट और पाकिस्तान के साथ अगली श्रृंखला से उनके भविष्य का भी फैसला होगा. भारत से लौटकर अगर 2013 में डंकन फ्लेचर अपनी आत्मकथा की प्रस्तावना फिर से लिखें तो पहली लाइन कुछ यूं होगी, ‘लोग कहते हैं ज्यादातर खेल कोचों के कार्यकाल का अंत दुखद ही होता है. शायद लोग सही कहते हैं.’
कुछ और बातें
- क्रिकेट के खेल का एक क्रम होता है. बल्लेबाजी, गेंदबाजी, फील्डिंग, मैदान के अंदर और बाहर सटीक रणनीति और सबसे नीचे है पिच की भूमिका. लेकिन भारतीय टीम के कोच और कप्तान ने श्रृंखला से पहले ही इस क्रम को उलटते हुए पिच की भूमिका को सर्वोपरि कर दिया. कप्तान धोनी बार-बार कहते पाए गए कि वे ऐसी पिचें चाहते हैं जो पहले ही दिन से 90 अंश का घुमाव दिखाएं. यह एक नेता का पलायनवादी मानसिकता थी जिसे अपने खेल कौशल से ज्यादा पिचों का सहारा था. इंग्लैंड ने यह कमजोरी पकड़ ली.
- पिछली छह पारियों में यह टीम सिर्फ एक बार 500 का आंकड़ा छू पाई है. बाकी पांच पारियों में टीम 400 रन भी नहीं बना सकी है. आरोप लग रहे हैं कि यह बीसमबीस के जमाने में पैदा हुई क्रिकेट नस्ल है जो पांच दिन की बारीकियों और उसके सौंदर्य से अनभिज्ञ है. इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे टेस्ट को पूजने वाले देशों के सामने बीसमबीस की वित्तपोषित नस्ल आगे और शर्मिंदगी ला सकती है.
- डंकन फ्लेचर कुल जमा चौथे विदेशी कोच हैं. इनसे पहले जॉन राइट, ग्रेग चैपल और गैरी कर्स्टेन भारतीय टीम के कोच रह चुके हैं. इनमें से जॉन राइट और गैरी कर्स्टेन का कार्यकाल सफल कहा जा सकता है. इसके पीछे एक वजह शायद यह रही हो कि राष्ट्रीय टीम के कोच के तौर पर दोनों की ही यह पहली जिम्मेदारी थी. इसलिए शायद दोनों पर खुद को साबित करने का दबाव था. इसके विपरीत ग्रेग चैपल और डंकन फ्लेचर अपने साथ उम्मीदों का पहाड़ और स्टारडम लेकर आए थे. दोनों उम्मीदों के बोझ तले ढेर हो गए. विदेशी कोचों की सफलता की दर 50 फीसदी ठहरती है. यहां विचार करने की जरूरत है कि इतनी मोटी रकम और तामझाम का नतीजा 50 फीसदी यानी सेकंड डिवीजन ही आना है तो क्या हमें ऐसे विदेशी कोचों की जरूरत भी है?