फूट की कूटनीति

विपक्ष में फूट डालने की जिस नीति को अपनाकर कांग्रेस के अर्जुन सिंह से लेकर दिग्विजय सिंह तक ने मध्य प्रदेश में अबाध शासन किया अब शिवराज सिंह चौहान ने उसी नीति से कांग्रेस का पासा पलट दिया है. शिरीष खरे की रिपोर्ट.

इन दिनों मध्य प्रदेश की राजनीति भक्तिकाल से गुजर रही है. इस काल में प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान ने अपनी मंडली के करीबी मंत्रियों के साथ मथुरा पहुंचकर गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा लगाई है. यह भी संयोग ही है कि इसी बीच नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने भी हरिद्वार की यात्रा पूरी कर ली. मध्य प्रदेश में आई भारी बाढ़ के बीच दोनों नेताओं की तीर्थयात्रा को यदि प्रदेश के हालिया घटनाक्रम से जोड़कर देखा जाए तो चौहान के सामने राजनीतिक चुनौतियों का सूखा दिख रहा है, वहीं अजय सिंह अपनी ही पार्टी की घेराबंदी से कुछ ऐसे घिरे हैं कि चुनौती देते नहीं दिखते.

सत्ता और विपक्ष की स्थितियों ने मध्य प्रदेश के अतीत के उस जमाने की याद दिला दी है जब कांग्रेस अपने शासनकाल में विपक्ष को विभाजित रखती थी. मगर आज समय का पहिया घूम चुका है. कांग्रेस ठीक वैसे ही विभाजित है जैसे अर्जुन सिंह (1980-85) और दिग्विजय सिंह (1993-03) के जमाने में भाजपा थी. दिग्विजय सिंह की सुंदरलाल पटवा सहित भाजपा के कई दिग्गजों जैसे विक्रम वर्मा, बाबूलाल गौर और गौरीशंकर शेजवार से घनिष्ठता जगजाहिर थी. राजनीतिक प्रेक्षकों के मुताबिक दिग्विजय विपक्ष के कुछ नेताओं को साधकर उनके दल के बाकी नेताओं के बीच संशय पैदा करते थे, जिससे उनमें आपसी फूट पड़ जाती थी. दिग्विजय ने विरोधियों से समन्वय बनाकर उनकी धार को भोंथरा बनाए रखा था. उनके करीबियों की मानें तो यह उनके गुरु अर्जुन सिंह की उस नीति का अनुसरण था जिसके मुताबिक- यदि किसी से गुड़ देकर लाभ लिया जा सकता है तो उसे जहर क्यों दिया जाए. समन्वय की यह राजनीति अर्जुन सिंह ने ही शुरू की थी. तब नेता प्रतिपक्ष सुंदरलाल पटवा के साथ उनकी जोड़ी चर्चा के केंद्र में थी. उन्हीं दिनों भाजपा में पटवा के प्रतिद्वंद्वी कहे जाने वाले कैलाश जोशी ने चुरहट लाटरी कांड को लेकर सिंह पर आरोप लगाया था कि उन्होंने अपने क्षेत्र चुरहट में लाटरी योजना के तहत करोड़ों रुपये की हेराफेरी की है. जोशी ने इस मामले में हाईकोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया. कहा जाता है कि उस समय जोशी का उन्हीं के पार्टी के एक बड़े खेमे ने साथ छोड़ दिया था.

‘अब भाजपा ने अपना वर्ग चरित्र बड़ी तेजी से बदला है. पार्टी अब उन मुद्दों की राजनीति कर रही है जो परंपरागत रूप से कांग्रेस का वोटबैंक मजबूत करते थे’

इस घटना को यदि मौजूदा परिदृश्य में देखा जाए तो यह शिवराज सिंह सरकार के डंपर कांड से मेल खाती है. 2005 में शिवराज के मुख्यमंत्री बनने के पांच महीने बाद उनकी पत्नी साधना सिंह ने चार डंपरों की खरीद तो की लेकिन अपने आय-व्यय के ब्योरे में उनका उल्लेख नहीं किया. यह मामला तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी ने उठाया. उनका कहना था कि श्रीमती सिंह ने पंजीयन में अपने पति का नाम और आवास का पता भी गलत लिखा है. नंवबर, 2007 में जब मामला लोकायुक्त में पहुंचा तब कांग्रेस की नैया सुरेश पचौरी के हवाले थी. अगले साल विधानसभा के चुनाव को देखते हुए कई कांग्रेसियों ने इस मौके पर मैदान मारने का मंसूबा भी पाला था लेकिन डंपर व्यवसाय में जब प्रतिपक्ष के नेताओं के भी आर्थिक हित सामने आने लगे तो पार्टी नेतृत्व ठंडा पड़ गया और यह मामला वहीं खत्म हो गया.

अरसे बाद सत्ता और विपक्ष की जुगलबंदी का खुला नजारा बीते विधानसभा सत्र में तब देखने को मिला जब भ्रष्टाचार के एक बड़े मुद्दे पर दोनों की कथित खींचतान ने मुद्दे की ही हवा निकाल दी. बतौर शिक्षक अपना करियर शुरू करने वाले और भाजपा के शिक्षा प्रकोष्ठ के संयोजक सुधीर शर्मा ने पिछले सात साल में इतनी तरक्की की है कि केवल खनन क्षेत्र में उनका टर्न ओवर कुछ करोड़ों से पांच हजार करोड़ रुपये हो गया है. वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले दिलीप सूर्यवंशी की भी 2003 से अब तक रिकॉर्ड कमाई हुई. इस दौरान सड़क निर्माण के क्षेत्र में उनका टर्न ओवर 13 करोड़ रुपये से पांच हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया. कमाई के इन रिकॉडों की छानबीन के लिए जब आयकर विभाग ने दोनों के ठिकानों पर छापामारी की तो उसमें कई ऐसी बातें सामने आईं जो राज्य सरकार की इन लोगों पर कथित रियायत का सबूत थीं.

प्रदेश की आम जनता सहित राजनीतिक जानकारों को उम्मीद थी कि विधानसभा के मानसून सत्र में यह मसला जोर-शोर से उठेगा और भाजपा राज में जिस भ्रष्टाचार की चर्चा गाहेबगाहे होती रहती है उस पर पार्टी को सदन में सफाई देनी पड़ेगी. लेकिन इस मौके पर प्रदेश विधानसभा में जो हुआ उसमें मुद्दे पर चर्चा के अलावा सब कुछ अभूतपूर्व था. बारह दिन के लिए बुलाए गए मानसून सत्र के तीसरे दिन ही स्पीकर से दुर्व्यवहार करने के आरोप में कांग्रेस के दो विधायकों चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी (भिंड) और कल्पना पारूलेकर (महिदपुर) की पहले तो विधायकी छिनी, फिर 24 घंटे के भीतर इस मामले में पुनर्विचार की कोशिशें हुईं और आखिरकार देश के इतिहास में पहली बार विधायकों की बहाली के लिए विशेष सत्र बुलाकर उनकी बहाली भी हो गई.

इस बहाली पर कांग्रेस ने चुप्पी साधे रखी तो भाजपा ने भी अपनी उदारवादी छवि दिखाई, पर पूरी कवायद से भ्रष्टाचार का असल मुद्दा गायब हो गया. विधानसभा में कांग्रेस का व्यवहार बताता है कि भाजपा को भ्रष्टाचार पर घेरने को लेकर उसकी कोई तैयारी नहीं थी. संसदीय रिपोर्टिंग से जुड़े जानकार बताते हैं कि भ्रष्टाचार कोई आपातकाल का मुद्दा नहीं था जिसे स्थगन प्रस्ताव के तहत उठाया जाना चाहिए था. यदि कांग्रेस चाहती तो छापे में सूर्यवंशी के यहां मिली हरी नोटशीट (केवल मंत्रालय के उपयोग में लाई जाने वाली नोटशीट) से चर्चा शुरू करा सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. दूसरा, चर्चा के लिए स्पीकर का आसंदी तक पहुंचना जरूरी था लेकिन उल्टा उसने स्पीकर का ही रास्ता रोक दिया जिसके बाद स्पीकर ने सत्र समाप्ति की घोषणा कर दी.

देखा जाए तो मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री सहित सात मंत्रियों के खिलाफ लोकायुक्त में भ्रष्टाचार से जुड़ी शिकायतों की जांच चल रही है. शिवराज सरकार के दौरान वित्तीय अनियमितताओं के अलग-अलग मामलों में लोकायुक्त ने अब तक 900 करोड़ रुपये की जब्ती भी की है. जाहिर है यहां भ्रष्टाचार अपने आप में इतना बड़ा मामला है जिसके दम पर कांग्रेस दुबारा खड़ी हो सकती है. मगर यह शिवराज की ‘अर्जुन (सिंह) नीति’ का ही असर दिखता है कि आपसी गुटबाजी से कांग्रेस की कमर टूटी हुई है और उसके बड़े नेता अपने-अपने ठिकानों में आराम की राजनीति फरमा रहे हैं. सरकार की कमजोरियों से ध्यान बंटाने के मामले में भी शिवराज सिंह चौहान ने कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे स्व. अर्जुन सिंह की नीतियों का ही विस्तार किया है. अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अर्जुन सिंह ने शहरों में अस्थायी निवासियों को पट्टे और सिंगल बत्ती कनेक्शन जैसी लुभावनी योजनाओं से लोकप्रियता पाई थी.

ठीक इसी तर्ज पर शिवराज सिंह चौहान ने भी राज्य में विकास का आधार बनाने के बजाय कई लोकप्रिय योजनाओं जैसे लाड़ली लक्ष्मी योजना (जन्म से शादी तक का खर्च) और जननी सुरक्षा योजना (प्रसव का खर्च) को बढ़ावा देकर खुद को आम आदमी का नेता कहलवाया है. इसके अलावा, अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह ने भाजपा से अलग आदिवासी और अल्पसंख्यकों की राजनीति की थी, लेकिन बीते कुछ सालों में शिवराज सिंह चौहान ने भी कांग्रेस की ही राजनीति शुरू कर दी है. वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह बताते हैं, ‘भाजपा ने अपना वर्ग चरित्र बहुत तेजी से बदला है. उसने कांग्रेस के राजनीतिक क्षेत्र में जाकर उसी के वर्ग के मुद्दों को उससे कहीं अधिक आक्रामक तरीके से उठाना शुरू कर दिया है. इससे कांग्रेस असमंजस में है कि अब वह किस किस्म की राजनीति करे.’

2008 के विधानसभा चुनाव में कुल 230 में से भाजपा ने यहां 142 और कांग्रेस ने 72 सीटें जीती थीं.

विपक्ष के नजरिये से यह ठीक-ठाक संख्या थी. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस महज डेढ़ फीसदी के अंतर से हारी. 2009 के लोकसभा चुनाव में कुल 29 में से यहां कांग्रेस की सीटें चार से बढ़कर 12 हो गईं. चुनाव विश्लेषकों के मुताबिक जनता ने राज्य सरकार के खिलाफ असंतोष का इशारा किया था लेकिन उसके बाद कांग्रेस इस असंतोष को वोट में तो नहीं ही खींच पाई, खुद सत्ता की तरफ खिंचती हुई नजर आई. इसकी कीमत उसे सभी पांचों उप चुनाव में अपनी परंपरागत सीटों को भारी अंतर के साथ गंवाकर चुकानी पड़ी.

इस दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने कांग्रेस का पुराना दांव उसी पर आजमाकर उसे सत्ता का पिछलग्गू बना लिया. इसके तहत कांग्रेस के कई बड़े नेताओं और उनके संबंधियों को तरह-तरह के ठेके बांटे गए. इसी कड़ी में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के ओएसडी (विशेष अधीनस्थ अधिकारी) प्रवीण कक्कड़ का नाम भी आता है. भाजपा सरकार ने कक्कड़ को खरगोन में शराब फैक्टरी का लाइसेंस दिया है. इसी के साथ भाजपा ने कहीं-न-कहीं जनता को यह संदेश भी दिया है कि कांग्रेस के नेता अपने फायदे के लिए सरकार के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. यही वजह है कि जब भी सरकार का कोई घपला उजागर होता है तो जनता इस बात पर भ्रमित हो जाती है कि इसमें विपक्ष की कितनी हिस्सेदारी है. सूत्रों की मानें तो कांग्रेस में एक बड़ा तबका भाजपा से आर-पार की लड़ाई लड़ना चाहता है लेकिन शीर्ष नेतृत्व ऐसा नहीं चाहता. वरिष्ठ पत्रकार शिव अनुराग पटैरिया के मुताबिक, ‘सत्ता पर हमला वही कर सकता है जिसके अपने हित निहित न हों लेकिन कुछ सालों से राजनेताओं के हित कई धंधों में निहित हो गए हैं और बड़े से बड़े मुद्दे पर चुप्पी साध लेना जैसे उनकी मजबूरी बन चुकी है.’

चुनावी राजनीति में निचले स्तर का संगठन सबसे जरूरी आधार होता है, यही मतदाताओं को मतदान केंद्र तक ले जाता है लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेताओं पर से बार-बार भरोसा उठने से कार्यकर्ताओं का उत्साह गहरी नीद में है. वहीं लंबे समय तक भाजपा का सिक्का चलने से प्रदेश में जगह-जगह उसके कार्यकर्ताओं का दंभ साफ दिखाई देने लगा है जिसकी शिकायत हाल ही में दिग्विजय सिंह ने इंदौर में एक कार्यक्रम के दौरान भाजपा सांसद सुमित्रा महाजन से भी की थी. उन्होंने महाजन से कहा, ‘इंदौर में अपराध बहुत बढ़ गए हैं.’ जवाब में महाजन ने कहा, ‘कैलाश को तो आपने ही बढ़ाया था, दिग्विजय!’ कैलाश से महाजन का आशय प्रदेश के उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय से था. जब दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे तब भाजपा विधायक होने के बावजूद विजयवर्गीय, सिंह के खासमखास थे. दिग्विजय-महाजन का यह लघु संवाद मध्य प्रदेश की राजनीति का सार भी है. सार यह कि भाजपा ने कांग्रेस से जो सीखा था, आज वही उसे लौटा रही है.