‘देश की नीतियां कैग की रिपोर्टों से नहीं चलतीं’

केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, आशीष खेतान से बातचीत में बता रहे हैं कि आखिर क्यों कोल ब्लॉक आवंटन पर प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की नीति लाने में छह साल का वक्त लग गया.

आपकी सरकार ने ऊर्जा, इस्पात और सीमेंट की कीमतों में बढ़ोतरी का हवाला देते हुए कोल ब्लॉक आवंटन को सही ठहराया. लेकिन अधिकांश  ब्लॉकों में तो उत्पादन शुरू ही नहीं हुआ है.

80 फीसदी ब्लॉकों में उत्पादन अब भी शुरू नहीं हुआ है. ज्यादातर ब्लॉकों में वन विभाग की मंजूरी और भूमि अधिग्रहण को लेकर कुछ समस्याएं हैं. हम इस बात को समझते हैं कि समस्याएं वास्तव में होंगी. लेकिन हम इस पर चिंतित भी हैं कि कुछ लोगों की समस्याएं वास्तविक नहीं हैं. हम लोगों ने  मंत्रियों का एक समूह बनाया है जो यह पड़ताल करेगा कि किन कंपनियों ने जान-बूझकर कोयले का उत्पादन अभी तक शुरू नहीं किया है. 

 नए आवंटियों ने इतने लंबे समय तक कोयले का उत्पादन शुरू नहीं किया. ऐसे में क्या आपको नहीं लगता कि इस नीति का उद्देश्य ही पूरा नहीं हो पाया? 

हमने जब कोल ब्लॉक आवंटित करना शुरू किया था तब किसी किस्म की बाधा नहीं थी. समस्याएं बाद में खड़ी हुई हैं. इसलिए हम नीति को गलत नहीं कह सकते. अगर आप कोयले का उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं तो आपको कोल इंडिया का उत्पादन बढ़ाना होगा या फिर निजी कंपनियों को कोल ब्लॉक आवंटित करने होंगे. 

क्या आपने ऐसी कंपनियों की पहचान की जिनमें इस काम के लिए कोई गंभीरता नहीं है? 

ऐसी कंपनियां तो हमेशा ही रहेंगी. ऐसी कंपनियों  की पड़ताल का काम मंत्रियों के समूह के जिम्मे है. 

2004 में यह निर्णय लिया गया था कि भविष्य में सभी आवंटन प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी से होंगे. लेकिन इससे संबंधित फाइल पीएमओ और कोयला व कानून मंत्रालयों में चक्कर काटती रही. क्यों? 

कुछ राज्यों ने केंद्र को पत्र लिखकर कहा था कि नीलामी से कोयले की कीमतों पर असर पड़ेगा और नतीजे के तौर पर ऊर्जा की कीमतें बढ़ जाएंगी.   

किन राज्यों ने?

राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड और प. बंगाल ने. वर्ष 2010-11 में हमने इन राज्यों के साथ बैठकें कीं. हमने उनसे कहा कि नीलामी से मिलने वाली आमदनी राज्यों को ही दी जाएगी. केंद्र एक पैसा नहीं रखेगा. 

क्या आपको नहीं लगता कि फैसले में छह साल का वक्त नहीं लगना चाहिए?

 इसमें छह साल नहीं लगे हैं. प्रस्ताव 2006 में आया. निर्णय 2008 में लिया गया. यूपीए- 2 सत्ता में 2009 में आया. प्रस्ताव स्थायी समिति के पास भेजा गया. इस तरह के निर्णय लेने में दो साल का वक्त तो लग ही जाता है. सबसे पहले राज्यों के मंत्रियों की बैठकें हुईं. शर्तों को लेकर उनकी आपसी सहमति बनी.  इसके बाद सुधार विधेयक स्थायी समिति के पास भेजा गया. फिर दिशा-निर्देश बनाए गए. यूपीए-2 के सत्ता में आने के बाद से किसी भी ब्लॉक का आवंटन नहीं किया गया. 

लेकिन नीति बनने के बाद भी ऐसा क्यों है कि कोई ब्लॉक नीलामी के लिए उपलब्ध नहीं है?

मैंने कहा न कि दिशा-निर्देश भी बनाने थे. इसके अलावा ब्लॉकों की पहचान करने का काम भी था. इसमें 6-8 महीने का वक्त लगा. अब एक-दो महीने में नीलामी की प्रक्रिया शुरू हो सकती है.

कैग के अप्रत्याशित लाभ के तर्क पर आप क्या कहेंगे? 

लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार में फैसले किस तरह होते हैं इसे बहीखाते की ऑडिटिंग करते हुए नहीं समझा जा सकता. अप्रत्याशित लाभ क्या है? अगर कोयले की कीमतें ऊपर जाती हैं और इसकी वजह से ऊर्जा की कीमत में बढ़ोतरी की जाती है तो लोगों के लिए बिजली का इस्तेमाल और महंगा हो जाएगा. क्या तब यह हमारी विफलता नहीं होगी? 

संसद में मानसून सत्र में कैग की रिपोर्ट पेश की जाएगी. आप इस चुनौती का सामना कैसे करेंगे?

देश की नीतियां कैग की रिपोर्ट से नहीं चलतीं. कैग को एतराज करने दीजिए. पेट्रोलियम पदार्थों पर सब्सिडी हम कैग के बनाए नियम से नहीं दे रहे. डीजल, पेट्रोल और एलपीजी पर सब्सिडी देना देश की नीति है. हमने यह नीति सस्ती दर पर कोयला आपूर्ति के लिए बनाई थी ताकि ऊर्जा, सीमेंट और इस्पात लोगों की जेब पर भारी न पड़ें. 

क्या आपके पास इसका कोई आंकड़ा है कि कोल ब्लॉक इस तरह देने का ऊर्जा या इस्पात की कीमतों पर क्या असर हुआ? 

अगर आप पिछले 10 सालों में पेट्रोलियम और ऊर्जा की कीमतों में हुई बढ़ोतरी की तुलना करेंगे तो आपको जवाब मिल जाएगा. 

लेकिन यह सस्ती ऊर्जा की आपूर्ति की वजह से नहीं बल्कि राज्य सरकार की ऊर्जा वितरण कंपनियों के लगातार घाटा सहने की वजह से हुआ है. यह घाटा अब 20  खरब करोड़ रुपये तक पहुंच गया है. 

लेकिन यह तो आप मानेंगे कि सस्ते कोयले से ऊर्जा कंपनियों को सस्ती ऊर्जा खरीदने में तो मदद मिली ही है.