एक साल बाद फिर एक चुनाव की बारी. विधायकों या सांसदों का नहीं है इसलिए शोरगुल भी नहीं. लेकिन अहम है. अहम इस मायने में कि यह गांवों का चुनाव है. उन गांवों का, जहां विकास की किरणें पहुंचाने में झारखंड सबसे ज्यादा पिछडा रहा है. राज्य निर्माण के एक दशक से भी अधिक समय गुजर जाने के बाद भी. इस मायने में भी अहम है, क्योंकि राज्य के मुखिया अर्जुन मुंडा बात-बेबात अपनी उपलब्धियों की फेहरिश्त में राज्य में पहली बार और कुल मिलाकर 32 सालों बाद पंचायत चुनाव करा लेने की बात सभी जगह कहते रहते हैं.
झारखंड में पंचायत के रिक्त पड़े 2026 सीटों के लिए पंचायत उपचुनाव शीघ्र ही होंगे. बकौल राज्य निर्वाचन आयुक्त एसडी शर्मा, जनवरी के आखिरी सप्ताह से लेकर मार्च तक कभी भी यह चुनाव हो सकता है. इसके लिए सभी जिले में तैयारियां शुरू हो चुकी हैं.
जहां चुनाव होने हैं, वहां के इलाके में एक बार फिर आकांक्षाएं हिलोर मार रही हैं. लोगों का उत्साह परवान पर है. लेकिन इस चुनाव के बहाने एक बडा सवाल कि झारखंड बनने के ग्यारह साल बाद पहली बार पिछले साल जो पंचायत चुनाव हुए, उनसे राज्य ने क्या खोया, क्या पाया!
2010 में हुए पंचायत चुनाव के माध्यम से राज्य के गांवों-कस्बों में पहली दफा अपनी सरकार बनी. कुल 51195 पद पर नए नेता चयनित हुए. 29414 पद पर महिलाओं ने अपनी जीत हासिल की थी. 50 प्रतिशत का आरक्षण था, महिलाओं ने 58 प्रतिशत सीटों पर कब्जा जमाया. इसे झारखंड निर्माण के बाद से सबसे बडी सामाजिक-राजनीतिक क्रांति के रूप में देखा और आंका गया.
लेकिन अब एक साल बाद पेंच-दर-पेंच सामने आते जा रहे हैं. पहला पेंच यह कि अब तक कायदे से पंचायतों को अधिकार ही नहीं दिये जा सके हैं. कई महिला प्रतिनिधियों से बात होने पर वे कहती हैं कि न ही सरकारी कर्मचारी उनकी बात सुनते हैं और न हीं उनकी बातों को तरजीह दी जाती है. झारखंड में पंचायती सरकार के बाद यह भी माना गया था कि पंचायत चुनाव नहीं होने की वजह से झारखंड को प्रत्येक वर्ष केंद्र से मिलनेवाली पंचायतों की राशि से वंचित रहना पड़ रहा है. वह तो सबसे पहले रूकेगा. यह राशि कोई छोटी-मोटी राशि भी नहीं. करीबन 500 करोड़ है. लेकिन अब सच का दूसरा पहलू यह है कि केंद्र से 345 करोड़ बैकवर्ड रीजन ग्रांट के और 200 करोड़ करीब 13वें वित्त आयोग की राशि मिलनी थी, लेकिन राज्य सरकार द्वारा यूटिलाइजेशन न भेजने के कारण इस वर्ष वह राशि आई ही नहीं है.
उधर, विभाग के पूर्व निदेशक शुभेंद्र झा बताते हैं कि यह राशि आई थी परंतु पेंच इस मामले में फंसा रहा कि योजनाएं जिला प्लानिंग कमिटी बनाएगी या जिला परिषद के लोग. झा कहते हैं, ‘इसी उधेड़बुन में राशियों का आवंटन पंचायतों को नहीं किया जा सका है. लेकिन अब ये चुनाव हो गए हैं तो राशि आवंटित होनी चाहिए. मैं जब कार्यकाल में था तो केंद्र को यह लिखा गया था कि इसमें विभाग की कोई गलती नहीं है. चुनाव न होने के कारण देर हुई थी. मुझे लगता है केंद्र इस बात को समझेगा.’
यहां तक तो ठीक है लेकिन वर्तमान में पंचायती राज के उपनिदेशक मोतीलाल राम, मुमताज अहमद और सहायक उप निदेशक आर पी गुप्ता किसी को इस बात की जानकारी ही नहीं है कि केंद्र से कितने पैसे राज्य सरकार को बीआरजीएफ यानि बैकवर्ड रिजन ग्रांट फंड या 13वें वित्त आयोग से मिले हैं. यह भी कि पंचायतों के लिए सरकार ने कितनी राशि की मांग की है और कितनी राशि केंद्र से आई है. पंचायतों को अब तक कितनी राशि दी गई है. इस बारे में भी वे अनभिज्ञ हैं. ग्रामीण विकास विभाग के विशेष सचिव भी यह कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि पंचायत की बात पंचायती राज विभाग ही बताएगा. उसका कोई सबंध ग्रामीण विकास विभाग से नहीं है. इससे साफ होता है कि पंचायत की सरकारें गेंद की तरह हो गई हैं, कभी इस पाले तो कभी उस पाले में.
अर्थशास्त्री रमेश शरण कहते हैं कि पंचायत चुनाव न होने के कारण हर साल पंचायत मद का 500 करोड़ का नुकसान हो रहा है. वे बताते हैं, ‘हालांकि पंचायत चुनाव से तुरंत बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती. खास बात यह भी कि भ्रष्ट्राचार का विकेंद्रीकरण न हो तो गांवों की स्थिति बेहतर हो सकती है. सरकारें केरल और राजस्थान के तर्ज पर सत्ता का विकेंद्रीकरण करना चाहती हैं लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि वहां और यहां भौगोलिक स्थिति, संस्कृति आदि में अंतर है और वह सब यहां असफल हो जाएगा.’ प्रो शरण आगे यह भी जोड़ते हैं कि यहां पंचायतें सिर्फ मुखिया केंद्रित हो गई हैं. ग्राम सभा व जिला परिषद की भूमिका नगण्य हो गई है. यदि ग्राम स्वराज की बात करनी है तो ग्राम सभाओं और जिला परिषद को भी मानदेय देना चाहिए.
पंचायती सरकार पिछले एक साल के सफर में पेंच-दर-पेंच में फंसती रही है. आंतरिक व वाह्य, दोनों ही स्तर पर. आदिवासी महिला प्रतिनिधियों के साथ तो उतनी समस्या नहीं, क्योंकि वे मातृसत्तात्मक समाज सेआती हैं इसलिए महिलाओं को अपने हिसाब से निर्णय लेने की बहुत हद तक आजादी होती है लेकिन जमशेदपुर व पलामू जैसे इलाके में अपनी पत्नियों के विजयी होने पर पति ही सिस्टम को ऑपरेट करते हैं. बहुत हद तक बिहार के मुखियापति आदि की तर्ज पर. दूसरे किस्म की समस्याओं की तो भरमार है.
महिला आयोग की सदस्य वासवी कहती हैं कि पंचायतों के साथ मजाक हो रहा है. हर प्रमंडल में तीनों स्तर के प्रतिनिधियों को एक साथ प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए था ताकि उनमें समन्वय हो, लेकिन सरकार अलग-अलग प्रशिक्षण देकर सिर्फ रस्मी कवायद कर कर रही है. महिलाएं भारी संख्या में हैं लेकिन उन्हें सूचनाओं से लैस करने की दिशा में कोई ठोस कोशिश नहीं की गई. उदाहरण के लिए वन अधिकार अधिनियम 2006 का क्रियान्वयन ग्राम सभा द्वारा होना है पर जब उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं है तो वे क्या करेंगी. पीढियों से जंगल में रह रहे आदिवासियों को अधिकार पाने के लिए दावा प्रपत्र भरना होता है. लेकिन ग्राम सभा के लोगों को भी नहीं पता कि यह कैसे भरा जाएगा. इसी वजह से राज्य में सिर्फ 34000 दावा प्रपत्र भरे गए और उनको लगा कर सिर्फ 15000 को ही जमीन आवंटित की गई.
हालांकि सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बरला दूसरी राय रखती हैं. उनके अनुसार पंचायतों में मुखिया की भूमिका दबंग की होती जा रही है. खूंटी में जबरन लोगों की जमीन लेकर चेक डैम बनाया जा रहा है. जिला के आयुक्त को इसका पता तक नहीं है. ऐसे में बदलाव की उम्मीद बेमानी है.
हालांकि ऐसा भी नहीं सब कुछ नकारात्मक ही है. कई मोर्चे पर उम्मीद की किरणें भी दिख रही हैं. सामाजिक कार्यकर्ता व पंचायती राज विषय पर काम करने वाले सुधीर पाल कहते हैं कि यदि अन्य राज्यों की तुलना में प्रदर्शन देखा जाए तो झारखंड कई राज्यों से बेहतर स्थिति में है. यहां आपदा प्रबंधन, कंबल बांटने, पंचायत भवन बनाने, पेयजल स्वच्छता आदि के मद में पैसे आए हैं और धीरे-धीरे उसका असर दिखेगा.
सिर्फ एक साल के आकलन पर झारखंड में पंचायती सरकार से निराशा की उम्मीद नहीं की जा सकती, क्योंकि यहां एक दशक में राज्य की राजनीति ही अभी पटरी पर नहीं आ सकी है. लेकिन झारखंड जैसे राज्य में समग्रता में बदलाव के लिए पंचायतों को हाशिए पर डाल और सिर्फ फंड की फंडेबाजी से इसके परिणाम भी नहीं देखे जा सकते. एक और चुनाव होनेवाला है, लेकिन जो चुन लिए गए हैं, उनके सक्रिय अस्तित्व को पहले स्वीकार तो किया जाए.