आलोचना के शिखर पुरुष कहे जाने वाले नामवर सिंह सात दशक से भी ज्यादा समय से साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं. ‘कविता के नए प्रतिमान’ ,‘दूसरी परंपरा की खोज’, ‘कहानी- नई कहानी’, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’, ‘छायावाद’ ‘इतिहास और आलोचना’ और ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग’ उनकी महत्वपूर्ण रचनाएं हैं. ‘कविता के नए प्रतिमान’ और ‘दूसरी परंपरा की खोज’ का पाठ हिंदी साहित्य के छात्र अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ की तरह करते हैं. ‘कविता के नए प्रतिमान’ के लिए उन्हें 1971 में साहित्य अकादेमी सम्मान मिला था. वे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में भारतीय भाषा विभाग के संस्थापक अध्यक्ष हुए और वहां कई दशकों तक अध्यापन का कार्य भी किया. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलाधिपति होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त है. वे राजकमल प्रकाशन समूह से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका ‘आलोचना’ का लंबे समय से संपादन कर रहे हैं. पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से उन्होंने कलम नहीं चलाई है. लेकिन उनके कहे का भी वजन इतना है कि मौखिक साहित्य की परंपरा को भी उन्होंने समृद्ध करने में कोई कोर कसर नहीं रखी है. हालांकि वे मौखिक साहित्य को साहित्य नहीं मानते. 28 जुलाई को नामवर सिंह ने 86 साल पूरे किए. उनसे स्वतंत्र मिश्र की बातचीत.
आप आलोचना के शिखर पुरुष हैं. क्या उम्र के इस पड़ाव में आपको लगता है कि कुछ करना रह गया?
देखिए, आकांक्षाओं पर कोई लगाम नहीं लगा सकता, लेकिन उम्र के इस पड़ाव में आकर पढ़ने-लिखने की क्षमता में कमी आ जाती है. एक अरसे से लिखना छूट गया है. अब बोलना ज्यादा होता है जिसे हम मौखिक साहित्य कहते हैं. लेकिन मैं व्यक्तिगत तौर पर इसे साहित्य नहीं मानता. मेरे श्रद्धेय रामविलास शर्मा ने प्रतिज्ञा की थी कि वे सभा, गोष्ठियों में नहीं जाएंगे. उन्होंने इसे जीवन के अंतिम दिनों तक निभाया भी. वे आसन मार कर लिखते रहे. बाद के दिनों में वे लिख नहीं पाते थे. वे तैयारी करके रखते और कोई जाता और उनके कहे को कागज पर उतार लेता. मैं उन दिनों जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में था. मैंने उनके लिए यह व्यवस्था की थी. बाद की बहुत सारी किताबें उन्होंने बोलकर ही लिखवाई है. मैं ऐसा नहीं कर पाया. मुझे इसका अभ्यास भी नहीं है. मैं दिनभर पढ़ने-पढ़ाने, मिलने-मिलाने और सभा-गोष्ठियों में व्यस्त रहता और फिर रात को खाना खाकर दस बजे रात से लेकर सुबह के चार-पांच बजे तक रोज लिखने का काम करता. मैंने ‘दूसरी परंपरा की खोज’ सात या आठ दिन में लिखी थी. ‘कविता के नए प्रतिमान’ मैंने एक महीने में पूरी की थी. पिछले 11-12 साल से दिन भर की व्यस्तताओं के बाद अब रात को सिर्फ पढ़ने का काम हो पाता है.
पिछले दिनों आप पर ‘जेएनयू में नामवर’ किताब आई. हाल ही में राजकमल से भी चार किताबें प्रकाशित हुई हैं. सामयिक प्रकाशन से भी प्रेम भारद्वाज के संपादन में आप पर एक किताब आई है. आप इसे कैसे देखते हैं?
सच पूछिए तो मुझे आशीष त्रिपाठी की किताबों के प्रकाशन से खुशी मिली है. आशीष बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं. अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में मेरे छपे लेखों को वे संकलित करने का काम कर रहे हैं. मेरी आठ पुस्तकें राजकमल से छप चुकी हैं जबकि चार पुस्तकें अभी प्रकाशित होनी हैं. आशीष की इस योजना के अंतगर्त दो साल के भीतर कुल बारह खंडों में इसे समेटने की योजना है. इससे लोगों को यह पता चलेगा कि मैंने बोलने से ज्यादा लिखने का काम किया है. ये साहित्य से संबंधित मेरे अलग-अलग विषयों पर लिखे गए लेख हैं. बहुत सारे लोग अपने भाषण तक का रिकॉर्ड भी रखते हैं. यह कला मुझे नहीं आती और मुझे यह थोड़ा अहंवादी भी लगता है. अज्ञेय जी शुरू से ही अपने साथ एक छोटा-सा टेप रिकॉर्डर लेकर चलते थे. इसलिए अज्ञेय जी का बोला हुआ कुछ भी लुप्त नहीं हुआ है. मैंने ऐसा कभी नहीं किया. मुझे लगता है कि ऐसा करने से आदमी आत्मचेतस हो जाता है. मुक्त होकर बोलने का अपना मजा है.
राजेंद्र यादव ने बहुत लंबे अरसे से कहानी लिखनी बंद कर दी है. वे कहते हैं कि मुझे बड़े दायरे तक अपनी बात पहुंचानी है इसलिए मैंने वैचारिक लेखन का सहारा लेना शुरू कर दिया है. आप क्या सोचते हैं?
वे ठीक कर रहे हैं. यह समझदारी का सूचक है. उन्हें लगा कि मैं अब कहानी या उपन्यास नहीं लिख सकता हूं तब उन्होंने छोड़ दिया. वे जिस स्तर का लेखन चाह रहे होंगे नहीं लिख पा रहे होंगे. और ‘हंस’ के संपादक के तौर पर लिखना तो हो ही रहा था. सच है कि उन्होंने ‘हंस’ में अपनी लेखनी के बूते कई जरूरी बहसों को भी जन्म दिया है. उनका लेखन महत्वपूर्ण है. उन्होंने इन लेखों का संकलन भी तैयार करवाया है.
लेकिन मेरा सवाल यह है कि क्या कहानी या उपन्यास की तुलना में वैचारिक लेखन की पहुंच ज्यादा लोगों तक होती है?
वैचारिक लेखन अपने विचार के प्रचार के लिए होता है, जबकि रचनात्मक साहित्यिक लेखन आस्वाद के लिए. दोनों के कार्य अलग-अलग होते हैं. इस समय राजेंद्र यादव का वैचारिक लेखन ज्यादा लोगों तक पहुंच रहा है लेकिन एक समय था जब उनकी कहानियां बड़े दायरे तक पहुंच रही थीं. तात्कालिक समस्याओं पर उन्होंने खुलकर बहुत जोरदार ढंग से लिखा है. उनके वैचारिक लेखन को लोग नहीं भूल पाएंगे.
पिछले दिनों आपने ‘तद्भव’ पत्रिका के कार्यक्रम में साहित्य को सत्ता की कांता यानी जोरू कहा था. क्या आपको लगता है कि साहित्य सत्ता की जकड़ से बाहर हो पाया है?
मुझे बिल्कुल याद नहीं आ रहा है कि मैंने ऐसा कुछ कहा है. साहित्य सत्ता को चुनौती देने का काम करता है. लेकिन सत्ता लोकतांत्रिक है और यदि वह कोई काम लोक हित में करती हो तब उसकी आलोचना करने का कोई मतलब नहीं. लेकिन यदि कोई फासीवादी सरकार सत्ता में आती है तो वह मुक्त विचारों पर प्रतिबंध लगाती है. ऐसी स्थिति में सत्ता से टकरा कर ही अच्छा लेखन हो सकता है.
पिछले दिनों आपके भाई काशीनाथ सिंह को ‘रेहन पर रघ्घू’ के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से नवाजा गया. उन्होंने ‘तहलका’ को दिए इंटरव्यू में कहा था कि अगर उन्हें ‘काशी का अस्सी’ किताब के लिए पुरस्कृत किया गया होता तो ज्यादा खुशी मिलती. उन्होंने यह भी कहा था कि साहित्य अकादेमी ने ज्यादातर मौकों पर लेखकों को उनकी श्रेष्ठ रचना को पुरस्कृत करने के बजाय उनकी दूसरी कृति को सम्मानित किया है.
काशी की ‘काशी का अस्सी’ मुझे भी प्रिय है. काशी ने बिल्कुल ठीक कहा है. साहित्य अकादेमी की पुरस्कार देने की प्रक्रिया में ही खामियां हैं. पंत जी को उनकी बड़ी कमजोर किताब के लिए पुरस्कृत किया गया. उन्हें बहुत देर से पुरस्कार दिया गया. यशपाल और रेणु के साथ भी अकादेमी ने यही किया. रेणु को सर्वश्रेष्ठ कृति ‘मैला आंचल’ के लिए पुरस्कार नहीं दिया गया. जैनेंद्र जी को उनकी सबसे कमजोर किताब के लिए पुरस्कृत किया गया. उन्हें बहुत देर से पुरस्कृत किया गया. उदय प्रकाश के साथ भी ऐसा ही हुआ है. साहित्य अकादेमी ही नहीं बल्कि ज्ञानपीठ पुरस्कार भी लोगों को अच्छी किताबों के लिए नहीं दिया गया है. कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ बहुत देर से मिला. निर्मल वर्मा को ज्ञानपीठ उनकी बहुत कमजोर किताब के लिए मिला है. पुरस्कार देने की प्रक्रिया में ही समस्या है जिसकी वजह से ऐसा होता आया है.उसकी राजनीति ही अलग है. इसलिए पुरस्कार किसी कृति या कृतिकार के श्रेष्ठ होने का मानदंड नहीं है. कई लेखकों के साथ ऐसा हुआ है. इसलिए काशी के साथ भी ऐसा हुआ है तो उससे काशी का लेखन छोटा नहीं होगा बल्कि पुरस्कार देने की प्रक्रिया पर ही सवाल उठेगा.
पत्रिका ‘फॉरवर्ड प्रेस’ में प्रेम कुमार मणि ने लिखा है कि गोदान में प्रेमचंद का गांव दूर से दिखता है जबकि रेणु का गांव भोगा हुआ गांव है. वे रेणु को बड़ा करने के लिए प्रेमचंद को छोटा बता रहे हैं. आपकी टिप्पणी चाहूंगा.
पहली बात यह कि रेणु और प्रेमचंद की तुलना नहीं होनी चाहिए. तुलना समसामयिक लेखकों की ही होनी चाहिए. रेणु की तुलना उनके युग के लेखकों से की जानी चाहिए. प्रेमचंद से रेणु की तुलना कैसे हो सकती है. प्रेमचंद का ऐतिहासिक महत्व है. प्रेमचंद की तुलना में रेणु ने बहुत कम लिखा है. प्रेमचंद ने तीन सौ से ज्यादा कहानियां लिखी हैं. उनसे कई गुना बड़े उपन्यास लिखे हैं. प्रेमचंद के कथा-साहित्य की दुनिया बहुत बड़ी है. महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्होंने स्वाधीनता संघर्ष के दौर में अपना लेखन किया. इसलिए उनकी जगह कोई नहीं ले सकता है. अलग-अलग दौर में बहुत बड़े साहित्यकार हो सकते हैं लेकिन वे प्रेमचंद नहीं हो सकते.
दलित साहित्य और स्त्री लेखन के बारे में आप क्या सोचते हैं?
दलित लेखन बड़ी मात्रा में हो रहा है, यह बहुत अच्छी बात है. लेकिन स्त्रियों के मुकाबले दलित लेखन कम हो रहा है. गुणवत्ता के दृष्टिकोण से अगर देखें तो दलित लेखन के मुकाबले स्त्रियों का लेखन ज्यादा मजबूत भी है. दलित लेखन में कुछ ही लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं. दलित विमर्श की तुलना में स्त्री विमर्श पर केंद्रित पत्रिकाएं कम हैं. लेकिन स्त्री विमर्श पर पुस्तकों की संख्या ज्यादा है. संख्या की दृष्टि से नहीं गुणवत्ता के आधार पर साहित्य को देखने की दरकार है. पश्चिमी देशों में वुमेन स्टडीज (स्त्रियों द्वारा रचे गए साहित्य का अध्ययन) और ब्लैक स्टडीज (अश्वेत समुदाय द्वारा रचे गए साहित्य का अध्ययन) के नतीजों को अनुपात और गुणवत्ता के आधार पर देखा जाए तो बहुत अच्छा ब्लैक लिटरेचर लिखा गया है. ब्लैक लिटरेचर अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप सभी जगह लिखा जा रहा है. उस लिहाज से हमारे यहां दलित साहित्य कम है. ब्लैक लिटरेचर 19वीं शताब्दी से ही मिलना शुरू हो जाता है. हमारे यहां बाबा साहब आंबेडकर के बाद दलित लेखन की शुरुआत हुई. शायद देर से शुरू होने की वजह से दलित लेखन का स्तर गुणवत्ता के लिहाज से कमजोर है.
साहित्य में नई पौध के बारे में क्या सोचते हैं?
देखिए, नए लोग हम लोगों से बेहतर स्थिति में हैं और बहुत ही अच्छा लिख रहे हैं. कविता और कहानियां अच्छी आ रही हैं. आम तौर पर उपन्यास उतने अच्छे नहीं आ रहे हैं. आलोचनात्मक लेखन का स्तर बहुत बढ़िया है. अब बहुत सारी पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगी हैं और हर पत्रिका में युवा कहानीकार और युवा कवि छप रहे हैं. कुछ समय पहले ‘कथादेश’ का कहानी विशेषांक आया था. उसमें युवाओं की बहुत अच्छी कहानियां पढ़ने को मिलीं. दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम आता है जिसमें मुझे नई किताबों पर बात करनी होती है. पिछले चार साल से यह कार्यक्रम प्रसारित हो रहा है. इस कार्यक्रम को करने के दौरान मुझे अंदाजा हुआ कि अच्छी कविता, कहानियां और आलोचना की गंभीर पुस्तकें लिखी जा रही हैं.