यह 23 मार्च 1931 की सवेरे थी। भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव सुबह उठे। उन्हें अगल दिन यानी 24 मार्च को फांसी पर लटकाया जाना था। इन तीनों को सांडर्स हत्या मामले में सात अक्तूबर 1930 को मौत की सज़ा सुनाई गई थी। इनके अलावा तीन और अभियुक्तों अजय घोष, जतिंदर दास सान्याल और देसराज को छोड़ दिया गया। इसमें कुंदनलाल को सात साल का कड़ा कारावास और प्रेम दत्ता को पांच साल की सज़ा सुनाई गई। किशोरी लाल, महावीर सिंह, विजोय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जयदेव और कमलनाथ तिवारी को उम्रकैद की सज़ा दी गई।
23 मार्च की सुबह यह अनुमान नहीं था कि फांसी उस दिन भी हो सकती थी। लोगों के रोष को देखते हुए फांसी एक दिन पूर्व यानी 23 मार्च शाम को ही लगाने का आदेश दे दिया गया। देश में यह पहला ऐसा मामला था जब किसी को भी शाम के समय फांसी दे दी गई थी। वैसे फांसी हमेशा सुबह दी जाती थी। फांसी देने की पूरी प्रक्रिया के समय स्टीड, बारकर, रॉबर्टस, हार्डिज, चोपड़ा उप जेल अधीक्षक खान साहिब मोहम्मद अकबर वहां मौजूद थे। फांसी देने वाले जल्लाद मसीह को शहादरा से बुलाया गया था। शहादरा लाहौर के निकट एक स्थान है। जैसे ही इन तीनों क्रांतिकारियों को उनकी कोठडिय़ों से निकाला गया, सारी जेल ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारों से गूंज उठी।
पिछले 88 साल में हम हर 23 मार्च को उन शहीदों को याद कर लेते हैं। 23 मार्च 1931 को पूरा देश शोक में डूब गया था। लोग सड़कों पर निकल आए थे। लोगों का गुस्सा पागलपन की हद तक था। इस कारण प्रशासन ने शहीदों के शव उनके परिवारों को नहीं सौंपे। इसकी बजाए उन्होंने जेल की पिछली दीवार तोड़ी और अंधेरे में तीनों के शव सतलुज नदी के किनारे अंतिम संस्कार के लिए ले गए। वहां उनके शरीरों को टुकड़ों में काट कर जलाने का प्रयास किया। शव अभी आधे ही जले थे कि गुस्से में भरी लोगों की भारी भीड़ वहां पहुंच गई। भीड़ को देख पुलिस वाले वहां से भाग खड़े हुए। इसके बाद वहां पहुंचे लोगों ने उनका अंतिम संस्कार किया।
इससे जुड़े कई सवाल आज भी जवाब की प्रतीक्षा कर रहे हैं। एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी आरके कौशिक ने कुछ छुपे तथ्यों का पता लगाया। उन्होंने इन तीनों क्रांतिकारियों के अंतिम घंटों का जि़क्र किया है।
वे लिखते हैं-” 22मार्च की रात को लाहौर में एक भारी तूफान आया था। इससे पूर्व लाहौर हाईकोर्ट के जज एमवी भीडे ने वह याचिका खारिज कर दी थी जिसमें स्पेशल ट्रिब्यूनल के उस अधिकार को चुनौती दी गई थी जिसके तहत उसने भगत सिंह, शिवराम राजगुरू और सुखदेव को फांसी की सज़ा सुनाई थी। इस कारण फांसी का मिलना तय था।
23 मार्च को तूफान थम चुका था। जेल अधीक्षक पीडी चोपड़ा के कक्ष में सभी अधिकारी फुसफुसाहट में बात कर रहे थे। भगत सिंह का वकील प्राणनाथ मेहता उनसे मिला। जैसे ही वह वकील जाने लगा, भगत सिंह ने उसे हाथ से लिखे कागज़ों के चार बंडल थमा दिए। इसके बाद स्टेड, बारकर, रॉबर्टस, हार्डिंग और चोपड़ा भगत सिंह से मिले। उन्होंने जान के बदले भगत सिंह को माफी मांगने की सलाह दी जिसे भगत सिंह ने नाकार दिया। इनके जाने के बाद जेल के वार्डन चत्तर सिंह ने भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को सूचना दी कि उन्हें उसी दिन शाम को फांसी दे दी जाएगी। चत्तर सिंह ने भगत सिंह को सलाह दी कि वह अंतिम समय में भगवान का नाम ले। पर उस समय भगत सिंह रूस के क्रांतिकारी व्लादिमीर लेनिन की किताब पडऩे में व्यस्त थे।
भगत सिंह ने जेल के एक मुस्लिम सफाई कर्मचारी बेब से कहा कि फांसी से पहले वह उसके घर का भोजन खाना चाहते हैं। बेब सहर्ष मान गया और इस वादे के साथ वहां से चला गया कि वह शाम को खाना लेकर आएगा। पर उसके तुरंत बाद सुरक्षा व्यवस्था मज़बूत कर दी गई इस कारण वह शाम को खाना ले कर जेल में दाखिल ही नहीं हो सका। उधर जेल के अंदर और बाहर तनाव का माहौल था। सरकार को दंगा-फसाद होने का डर था।
दोपहर बीत गई और घड़ी की सुइयां शाम का संकेत देने लगी। जि़ले के नागरिक और पुलिस अधिकारी जेल के मुख्यद्वार पर आ बैठे। उनमें शेख अब्दुल हामिद (अतिरिक्त जि़ला मेजिस्ट्रेट), डीएसपी कसूर सुदर्शन सिंह, डीएसपी (सिटी) अमर सिंह, डीएसपी मुख्यालय जेआर मोरिस और भारी संख्या में पुलिस बल वहां मौजूद था।
जि़ला कांग्रेस लाहौर के सचिव पिंडीदास जेल के पास ही रहते थे। भगत सिंह और उनके साथियों ने जो नारेबाजी की उसे पिंडीदास के घर पर सभी ने सुना। तीनों क्रांतिकारियों के साथ जेल के दूसरे कैदियों ने भी नारे लगाए।
भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव जब फांसी के तख्ते पर पहुंचे तो वहां मौजूद 1909 बैच के आईसीएस अधिकारी एए लाने रॉबर्टस ने भगत सिंह के साथ बातचीत की। भगत सिंह ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा- ”थोड़ी देर में लोग देखेंगे और याद रखेंगे कि भारतीय क्रांतिकारी किस बहादुरी से मौत को गले लगाते हैं’’। उन तीनों ने अपने चेहरे पर ‘टोपा’ पहनने से इंकार कर दिया। असल में भगत सिंह ने तो अपना ‘टोपा’ जि़ला मेजिस्ट्रेट के मुंह पर दे मारा था। इसके बाद तीनों एक दूसरे के गले मिले और नारे लगाए-‘डाउन दि ब्रिटिश अम्पायर।’ (अंग्रेजी हकूमत मुर्दाबाद)
सबसे पहले भगत सिंह को फांसी दी गई। उसके बाद राजगुरू और फिर सुखदेव को फांसी पर लटकाया गया। किंग एडवर्ड मेडिकल कालेज के प्रिंसीपल कर्नल हार्पर नेलसन और सिविल सर्जन कर्नल एनएस सोढी उस समय जेल में भीतर ही थे पर उन्होंने फांसी लगती नहीं देखी। बाद में सिविल सर्जन सोढी ने तीनों की मौत कर पुष्टि कर दी। जेेल के बाहर भारी गिनती में लोग जमा थे। रात को 10 बजे डीएसपी कसूर सुदर्शन सिंह और डीएसपी सिटी अमर सिंह की अगवानी में ”ब्लैक बैच’’ पुलिस रेजिमेंट का दस्ता उन तीनों के शरीर लेकर निकल गया। सुदर्शन सिंह ने रास्ते में एक गं्रथी और एक पंडित जगदीश अचरज को साथ लिया और गंडा सिंह वाला गांव के पास तीनों को आग के हवाले कर दिया। पर इतने में लोग आ पहुंचे और पुलिस को भागतना पड़ा’’।