कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत की 70 फ़ीसदी आबादी रोज़गार के लिए कृषि और कृषि कार्यों पर निर्भर है। यही वजह है कि कृषि क्षेत्र सीधे देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। इसके बावजूद सरकारों पर देश के किसानों की अनदेखी का आरोप लगते रहे हैं। यह आरोप यूँ ही नहीं लगते, उसके तमाम कारण हैं। अगर देखा जाए, तो किसानों पर पड़ती चौतरफ़ा मार न उन्हें चैन से जीने देती है और न ही मरने देती है।
पिछले दिनों प्राकृतिक आपदा यानी बेमौसम की घनघोर बारिश और बेतादाद ओले पडऩे की घटना ने किसानों को ख़ून के आँसू रुलाया। इस बारिश और ओलों ने उनकी गेहूँ, सरसों व रबी की अन्य फ़सलों को बर्बाद कर दिया; लेकिन केंद्र सरकार ने उन्हें मुआवज़ा देने तक पर ध्यान नहीं दिया। सरकार आज तक उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी तक फ़सलों को देने के लिए कोई नियम क़ानून बनाने को तैयार नहीं है। क्या सरकार की इस ढुलमुल नीति के पीछे किसानों की फ़सलों को मुफ़्त में लूटने जैसी कोई चाल या मंशा है? यह बात मैं ऐसे ही नहीं कह रहा हूँ, बल्कि इसके पीछे तथ्य हैं।
बहरहाल, केंद्र सरकार 2022 में किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा भी नहीं निभा सकी। किसानों को इस बार सरसों के उचित दाम तक नहीं मिल पा रहे हैं, जबकि केंद्र की मोदी सरकार ने ख़ुद ही पिछले साल 2021-22 में देश में सरसों का भाव 7,444 रुपये प्रति कुंतल तय किया था। लेकिन इस बार किसानों को सरसों का बढ़ोतरी के साथ यह भाव तो छोडि़ए, पुराना भाव भी नहीं मिल रहा है। इस साल किसानों को सरसों का बाज़ार भाव महज़ 4,500 रुपये प्रति कुंतल तक ही मिल पा रहा है। इस प्रकार से एक ही वर्ष में एक कुंतल पर सीधे-सीधे क़रीब 3,000 रुपये का घाटा किसानों को हो रहा है। पहले से ही बेमौसम भारी बारिश और ओले पडऩे से तबाह किसान अब अगली फ़सल बोने की तैयारी को लेकर सरसों सस्ते भाव में बेचने को विवश हैं। देखने वाली बात है कि पिछले 10 वर्षों में एक कुंतल सरसों के घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य में महज़ 2,410 रुपये की बढ़ोतरी है, जो कि बहुत कम है। दूसरी ओर जिस अनुपात में सरसों के दाम गिरे हैं, उस अनुपात में सरसों के तेल के भाव कम नहीं हुए हैं, बल्कि तेल के भाव एक बार आसमान पर जाने के बाद लगभग स्थिर बने हुए हैं। सरसों का भाव गिरने से मोटा लाभ तो बिचौलियों और व्यापारियों को ही मिल रहा है, जो कि देश के ईमानदार और मेहनती किसानों के साथ-साथ आम उपभोक्ताओं के साथ भी बड़ी लूट की तरह है।
साल 2017-18 में अपरिष्कृत एवं परिष्कृत पाम आयल पर आयात शुल्क 45 फ़ीसदी था तथा परिष्कृत पाम आयल पर अतिरिक्त 5 फ़ीसदी सुरक्षा शुल्क भी था, जबकि पूर्व में अधिकतम आयात शुल्क 80 फ़ीसदी तक था। इससे किसानों को पिछले वर्षों की अपेक्षा कुछ सही दाम मिले। लेकिन धीरे-धीरे घटाते हुए आयात शुल्क अक्टूबर, 2021 में शून्य कर दिया। इससे विदेशों से आने वाले पाम आयल की मात्रा बढ़ गयी। ऊपर से सरसों का तेल आयात भी 2021-22 के उपरांत बढऩा शुरू हो गया। परिणाम स्वरूप किसानों को एक कुंतल सरसों पर क़रीब 3,000 रुपये कम प्राप्त हो रहे हैं। सरसों के दाम कम होने के मुख्य कारणों में जहाँ आयात-निर्यात नीति है, वहीं केंद्र सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीद न देने और कुल उत्पादन की 75 फ़ीसदी उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य की ख़रीद की परिधि से बाहर करने की नीति है। सरकार ने अन्य कई प्रकार के अवरोध ख़रीद पर लगाये हुए हैं, जिनमें एक दिन में एक किसान से 25 क्विंटल से अधिक ख़रीद नहीं करना तथा वर्ष भर में ख़रीद की अवधि अधिकतम 90 दिन रखना है। इस अवधि में आने वाली छुट्टियाँ, बारदाना न होने, ख़रीद केंद्र पर सही व्यवस्था न होने, कर्मचारी आदि की हड़ताल होने के कारण ख़रीद की वास्तविक अवधि 60 से 70 दिन ही रह जाती है।
इधर, केंद्र की मोदी सरकार ने ‘प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान’ के अंतर्गत आने वाली दलहन में से अरहर (तूर), उड़द एवं मसूर दालों की ख़रीद नीति में 31 अगस्त, 2022 को 25 फ़ीसदी की सीमा को बढ़ाकर 40 फ़ीसदी तक कर दिया; लेकिन भारी भरकम आयात ख़र्च को रोकने के लिए तिलहन में इस प्रकार की छूट नहीं दी गयी। अन्य फ़सलों की भी यही हालत है। सच तो यह है कि मोदी सरकार ने किसानों की आय पर कुल्हाड़ी चलाकर उन्हें प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान योजना से भ्रम में रखा हुआ है। इस योजना में ‘मूल्य कमी भुगतान’ का उल्लेख है, जिसके अनुसार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम प्राप्त होने पर अन्तर राशि (भावांतर भुगतान) किसानों के बैंक खातों में भेजना अपेक्षित है। इसी प्रकार इस योजना में निजी ख़रीद एवं भण्डारण की दिशा में भी पाँच वर्ष उपरांत भी कोई प्रगति नहीं है, जिसके चलते किसी भी किसान को तिलहन उपजों में घाटा होने पर उसकी भरपाई के लिए अन्तर राशि प्राप्त नहीं हुई। कहने का मतलब यह है कि यह योजना का$गज़ों की शोभा ही बनी हुई है, धरातल पर इसका कोई अस्तित्व नहीं है।
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग द्वारा वर्ष 2015-16 में तिलहन के न्यूनतम समर्थन मूल्यों का संयोजन तेल अंश के साथ करने की अनुशंसा की थी, जिसमें सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 35 फ़ीसदी के मूल अंश के आधार पर निर्धारित किया जाना एवं 35 फ़ीसदी के तेल अंश से ऊपर प्रत्येक 0.25 फ़ीसदी बिंदु की दर पर 12.87 रुपये प्रति कुंतल जोडऩे का उल्लेख है। इसके मुताबिक, 35 फ़ीसदी तेल अंश की सरसों का वर्ष 2022-23 में न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,500 रुपये घोषित था, जबकि 48 फ़ीसदी तेल अंश की सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 6,118 रुपये प्रति कुंतल घोषित किया जाना चाहिए था। इस अनुशंसा का पालन न होने से एक कुंतल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1,068 रुपये कम था। इस अनुशंसा के लगने से सरसों उत्पादक किसान को प्रोत्साहन की प्रबल सम्भावना थी। लेकिन इसके विपरीत इसी आयोग द्वारा 2014-15 में तिलहन विकास के लिए पाम आयल को उच्च प्राथमिकता देते हुए वर्ष 2012 में तैयार किये गये प्रतिवेदन की आधार पर राष्ट्रीय पाम मिशन के लिए 11,040 करोड़ रुपये स्वीकृत किये गये हैं।
केंद्र सरकार का यह आचरण देश को तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की घोषणा के विपरीत है। इसी का परिणाम है कि भारत में खाद्य तेलों के आयात में एक दशक में 7,60,500 करोड़ रुपये ख़र्च किये जा चुके हैं। 20 वर्षों में आयात पर ख़र्च होने वाली राशि 8,780 करोड़ रुपये से बढक़र 1,41,500 करोड़ रुपये पहुँच गयी। यह बढ़ोतरी 16.11 गुना है। वर्ष 2021-22 में दूसरे देशों को खाद्य तेल मँगाने पर 1,41,500 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया। इसके बाद भी केंद्र सरकार देश में उत्पादित परम्परागत खाद्य तेलों को बढ़ावा देने की बजाय पाम आयल का बाज़ार बढ़ाने में लगी है। 2022-23 में भारत सरकार की वित्त मंत्री ने तिलहन के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने एवं आयात पर निर्भरता कम करने हेतु युक्तिसंगत एवं व्यापक योजना के तहत 2025-26 तक 1.676 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बढ़ाकर 54.1 मिलियन टन उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त करने की चर्चा तो की; लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं किया।
किसान महापंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामपाल जाट ने माँग की है कि पाम आयल को खाद्य तेलों की श्रेणी से हटाकर उसके खाद्य तेल के रूप में उपयोग करने पर प्रतिबंध लगाया जाए। आयातित खाद्य तेलों पर तत्काल रोक लगायी जाए और पाम ऑयल के आयात को सदा सर्वदा के लिए प्रतिबंधित किया जाए। देश को तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में राष्ट्रीय पाम मिशन को बंद कर देश के परम्परागत खाद्य तेलों के विकास की योजना आरम्भ करे। आयात शुल्क को बढ़ाकर 300 फ़ीसदी करने की तैयारी रखी जाए, जो 100 फ़ीसदी से कम किसी भी स्थिति में न हो। प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान में 25 फ़ीसदी तक ही ख़रीद करने सहित एक दिन में एक किसान से अधिकतम 25 कुंतल तक की ही ख़रीद जैसे अवरोधों को समाप्त किया जाए। दाने-दाने की ख़रीद की नीति बनने तक तूर, उड़द एवं मसूर की 40 फ़ीसदी ख़रीद की छूट सभी दलहन एवं तिलहन फ़सलों के लिए की जाए। ख़रीद वर्ष भर चालू रखी जाए, जिससे दाने-दाने की ख़रीद हो सके। सरसों सहित सभी तिलहनों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों का निर्धारण तेल अंश के आधार पर किया जाए। आदर्श कृषि उपज एवं पशुपालन (सुविधा एवं संवर्धन) अधिनियम-2017 के प्रारूप के अनुसार पूरे देश में आरक्षित मूल्य घोषित हो, जिससे किसानों को घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त हो सके। बता दें कि सरकार से सरसों का सही भाव दिलाने को लेकर उत्तर भारत के कई राज्यों के किसानों ने जंतर मंतर पर 6 अप्रैल, 2023 को सरसों सत्याग्रह किया, जिसका नेतृत्व स्वयं रामपाल जाट ने किया था।
इधर, टोंक ज़िले में एक और गाँव भी सरसों के दाम ठीक न मिलने पर आन्दोलन की राह पर है। किसान रामेश्वर प्रसाद चौधरी कहते हैं कि हमने विदेशों से खाद्य तेलों का आयात शुल्क को 100 फ़ीसदी तक करने की माँग को लेकर क्षेत्र के सांसद और विधायकों के साथ-साथ सरकारों को भी पत्र लिखने की ठानी है। किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य न तो सरसों का मिल रहा है, न गेहूँ, चने और दूसरी फ़सलों का ही मिल रहा है। व्यापारी कम दाम में इन फ़सलों, ख़ासतौर पर सरसों को ख़रीदा जा रहा है, क्योंकि विदेशों से पाम ऑयल तेल मँगवाकर तिलहन किसानों की कमर तोडऩे में सरकारें ही लगी हुई हैं।
बहरहाल, सरकार ने कृषि सुधारों के अंतर्गत आदर्श कृषि उपज एवं पशुपालन (सुविधा एवं संवर्धन) अधिनियम-2017 का प्रारूप तैयार कर सन् 2018 में ही राज्यों को प्रेषित करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली। राज्यों ने आज तक इस दिशा में कोई सार्थक क़दम नहीं उठाया। अगर राज्य सरकारें इसे अमल में लातीं, तो भी शायद किसानों को घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाता। इससे सरसों के 5,450 रुपये प्रति कुंतल भाव मिलने के साथ-साथ दूसरी फ़सलों का भी उचित मूल्य मिलने की संभावना बनी रहती। लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों की आनाकानी से ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि किसानों को अपनी उपजों को घाटे में बेचने के लिए विवश किया हुआ है। यह तो तब है, जब भारत सरकार ने संसद में निरंतर यह घोषणा की हुई है कि किसी भी किसान को उनकी उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दामों में बेचने को विवश नहीं होने दिया जाएगा। केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को गारंटीड मूल्य बताते हुए भी नहीं थकती है। अगर सरकार वास्तव में इस व्यवस्था को सुधारकर या बदलकर वास्तव में देश के अन्नदाता के लिए कुछ करना चाहती है, तो न खाने योग्य पाम ऑयल पर तत्काल रोक लगाये। पाम आयल के प्रयोग पर रोक लगते ही स्वत: सरसों और अन्य कच्चे खाद्य तेलों के दाम बढ़ जाएँगे, जिससे किसानों को उचित व लाभकारी मूल्य मिल पाएगा। सरकार को याद रखना होगा कि हमारी कृषि अर्थव्यवस्था बढ़ाने में किसानों का बड़ा योगदान है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)