नटवरलाल या शोभराज जैसे शातिर ठगों के किस्से बताते हैं कि जेल से भागने वाले कैदी डुप्लीकेट चाबी से ताला खोलते हैं, सुरंग बनाते हैं या फिर प्रहरियों को नशे में धुत्त कर देते हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ में कैदी इसके इतर भी कई देसी और हैरान करने वाले तरीकों से रफूचक्कर होते हैं. राजकुमार सोनी की रिपोर्ट.
ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम
नेकी पर चले और बदी से टले ताकि हंसते हुए निकले दम……
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 95 किलोमीटर दूर मौजूद गरियाबंद जिले की जेल में कैदी जब हर सुबह व्ही शांताराम की फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ का यह गीत लय और ताल के साथ गाते थे तो वहां तैनात महिला जेलर डी बारा और उनके सहयोगियों को यह लगता था कि उनकी जेल में अनुशासन कायम है. लेकिन एक रोज उनका भ्रम तब टूट गया जब लूट, हत्या तथा अन्य कई गंभीर आरोपों में सजा काट रहे छह कैदी लोहे की सलाखें काटकर भाग निकले. जांच में पता चला कि बैरक की छड़ों को काटने के लिए कैदियों ने जिस ब्लेड का इस्तेमाल किया था उसकी पहुंच एक टूथपेस्ट के जरिए हुई थी. कैदियों को उनके मुलाकाती समय-समय पर ऐसा टूथपेस्ट पहुंचा देते थे जिसकी ट्यूब के भीतर तेजधार ब्लेडों को पनाह देने की पूरी गुंजाइश बनी रहती थी. ब्लेडों को ट्यूब के पिछले भाग से घुसाया जाता था जिसकी भनक बारीक से बारीक जांच-पड़ताल के बाद भी नहीं लग पाती थी. पहले एक चिकित्सक रहीं और थोड़े समय के लिए जेल प्रभारी बनाई गईं डी बारा कहती हैं, ‘मैं सोचती थी कि कैदी नेकी के रास्ते पर चलने और बदी से दूर रहने का संकल्प ले रहे हैं. पर मुझे क्या मालूम था कि प्रार्थना के साथ जो लय और ताल सुनाई दे रही है वह छड़ों पर ब्लेड चलाकर पैदा की जा रही है.’
तो इस तरह 26 मार्च 2007 को रविकिशन, घनश्याम, श्यामसुंदर, चोमेश्वर, सौरभ दिनमणी, धर्मेंद्र जैसे खूंखार कैदी जेल से भागने में सफल हो गए. कैदियों की फरारी के बाद डी बारा की सेवाएं अस्पताल को लौटा दी गईं. लापरवाही बरतने के आरोप में जेल प्रहरी मोहनलाल और रविप्रकाश की वेतनवृद्धि रोक दी गई और एक अन्य प्रहरी मन्नू सिंह को नौकरी से हाथ धोना पड़ा. फरार कैदियों में चार फिर गिरफ्त में आ चुके हैं. दो कैदी रविकिशन और श्यामसुंदर अब तक पुलिस की पकड़ से बाहर हैं.
छत्तीसगढ़ में कैदियों के जेल तोड़कर भागने की यह कोई अकेली घटना नहीं है. 2005 से लेकर 20 जून 2012 तक जेल ब्रेक की 21 एवं विभिन्न न्यायालयों में पेशी के लिए लाने- ले जाने के दौरान कैदियों के फरार होने की 116 घटनाएं हो चुकी हैं. जेल महकमे के रिकार्ड के मुताबिक इस अवधि में कुल पांच सौ एक कैदी फरार हो चुके हैं. फरार होने के लिए ये कैदी जिन तरकीबों का सहारा लेते हैं वे काफी दिलचस्प हैं. 20 अगस्त 2012 को रायगढ़ जेल से एक कैदी हारून नमाज पढ़ने के दौरान फरार हो गया था. हारून ने जेल प्रबंधन से मांग की थी उसे नमाज पढ़ने के लिए एकांत चाहिए. प्रबंधन ने उसकी मांग मानते हुए उसे जेल के स्कूल में ठहरा दिया था. हारून ने यहां मौका देखकर नए-पुराने गमछों की मदद से स्कूल के चैनल गेट की छड़ों को खींचकर उनके बीच कामचलाऊ जगह बना ली. फिर वह गेट से बाहर निकला और शौचालय के पाइप से चढ़कर 20 फीट ऊंची दीवार लांघते हुए रफूचक्कर हो गया.
छत्तीसगढ़ को देश की सबसे बड़ी जेल ब्रेक ( दंतेवाड़ा ) की घटना का गवाह भी माना जाता है. इस घटना का मास्टर माइंड कैदी सुजीत कुमार था जिसने अपने अच्छे व्यवहार की वजह से जेल प्रभारी बीएस मानेकार और कैदियों का दिल जीत रखा था.16 दिसंबर 2007 की शाम जब कैदियों को भोजन परोसा जा रहा था तब सुजीत ने जेल के प्रशासनिक कक्ष, जहां उसकी आवाजाही सामान्य ढंग से बनी हुई थी, में दवाई लेने के बहाने प्रवेश किया और सबसे पहले उन तमाम चाबियों पर कब्जा जमाया जिसके जरिए कैदियों के बाहर निकलने का मार्ग प्रशस्त हो सकता था. इसके बाद सुजीत के इशारे पर कैदियों ने जेल की चादरों और कंबलों को चीरकर रस्सियां बनाई और फिर प्रहरियों को बंधक बना लिया. इस घटना में एक ही दिन में 299 कैदी फरार हुए थे. फिलहाल सुजीत आंध्र की एक जेल में बंद है, घटना के पांच सालों के बाद भी पुलिस 195 कैदियों का पता नहीं लगा पाई है.
वैसे छत्तीसगढ़ में जेल ब्रेक की यही एक घटना ऐसी थी जिसमें इंसास और थ्री नाट थ्री जैसे हथियारों से कैदियों ने गोलियां भी दागी थी. नहीं तो ज्यादातर मौकों पर कैदी सीमित और देसी संसाधनों को ही अपना काम चलाते रहे हैं. कभी कुम्हड़े और लौक के भीतर रखकर जेल में पहुंचाई गई आरी से लोहे की छड़ें काटी गई हैं तो कभी चादरों और कंबलों को चीरकर रस्सी बनाने के बाद कैदियों ने दीवार फांदी है.
आंखों में धूल झोंकने वाली कहावत को छत्तीसगढ़ में कैदियों ने लगभग शब्दश: चरितार्थ कर दिखाया है. लगभग इसलिए कहा जा रहा है कि क्योंकि यहां आंखों में धूल की जगह मिर्ची झोंककर पुलिस को चकमा दिया गया. 19 जुलाई 2007 की सुबह कोरबा जिले की कटघोरा जेल में जब कैदियों के बीच हाथापाई होने लगी तो प्रहरियों को हथियार लेकर बैरक का दरवाजा खोलना पड़ा. लेकिन इससे पहले कि प्रहरी आपस में भिड़े कैदियों को अलग-थलग करते, कैदियों ने अचानक एक साथ मिलकर प्रहरियों पर ही धावा बोल दिया. हथियारों के साथ बंधक बना लिए गए प्रहरियों की आंखों में अदरक नींबू- मिर्ची का घोल फेंका गया और उनसे मेनगेट की चाबियां छीन ली गई. घटना के बाद आंखों में मिर्ची की चुभन झेल रहे कर्मियों ने जैसे-तैसे सायरन बजाया लेकिन तब तक दिलीप, राजू, बोधराम, चिंटू, दीपक, गणेशू पटेल, कमेंद्र पुरी, हीरा पटेल और परमेश्वर नाम के खूंखार कैदी रफूचक्कर हो चुके थे. हालांकि जल्द ही ये सभी पुलिस के हत्थे चढ़ गए. बाद में उन्होंने बताया कि उन्होंने जेल के रसोइए को विश्वास में लेकर नींबू- मिर्च अदरक की अच्छी- खासी मात्रा हासिल की थी. इसके चार साल बाद जांजगीर जिले की जेल में भी कुछ यही हुआ. लूट और हत्या के आरोप में बंद पुष्पेंद्र, वीरेंद्र, विजयकुमार और चंद्रशेखर चंद्रा नाम के कैदी 27 मई 2011 को प्रहरी तुलसीराम नेताम और मोहनराम भगत की आंखों में हरी मिर्ची का घोल फेंककर भाग खड़े हुए.
आंखों में धूल झोंकने वाली पुरानी कहावत को छत्तीसगढ़ में कैदियों ने कई मौकों पर लगभग शब्दश: चरितार्थ कर दिखाया है
राजधानी रायपुर से 456 किलोमीटर आदिवासी बहुल जिले जशपुर में भी जेल ब्रेक की दो घटनाएं हो चुकी है. दोनों ही घटनाओं में कैदियों की ओर देसी नुस्खे आजमाए गए थे. बताते हैं कि जेल के कैदी प्रहरियों के सामने अक्सर बच्चों की एक कविता दोहराते. यह कविता थी–अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो. अस्सी नब्बे पूरे सौ, सौ से निकला धागा, चोर निकलकर भागा. पहले-पहल तो प्रहरियों को यह समझ में नहीं आया कि कैदी इस कविता का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं, लेकिन जब कैदियों ने जेल में प्रशिक्षण के दौरान चरखे में काते गए सूत से बनाई गई रस्सियों से प्रहरियों को बंधक बनाया तब इस रहस्य से पर्दा उठा कि कविता में धागे का इस्तेमाल कौन सा लक्ष्य हासिल करने के लिए किया जा रहा था.
15 मई 2008 को हुई इस घटना में लूट और हत्या के आरोप में सजा काट रहे अशोक कुमार, धनेश्वर, दीपक कुजूर, निर्मल केरकेट्टा, कमलेश टोप्पो, सविमल तिग्गा, नरेंद्र सिंह, दशरथ, बाबूलाल, नान्हू महली और रतन लकड़ा फरार हो गए थे. इसके बाद जेल प्रशासन ने जेलर अलौइश कुजूर, जेल प्रहरी सुधीर एक्का और धनमोहन भगत को निलंबित कर दिया था. इसी जेल से 18 जून 2012 को कैदी निर्मल खेपइ, नरेश यादव, तुलेश्वर, रंजीत जेना और आस्कर तिर्की भी फरार हो चुके हैं. इन कैदियों ने भी सलाखें काटने के लिए छोटी-छोटी आरियों का इस्तेमाल किया था. उन्हीं दिनों जेल में रंगाई-पुताई भी चल रही थी. बैरक की ऊपरी और निचली सतह पर आरी चलाने के दौरान इस बात का ध्यान रखा जाता था कि किसी भी सूरत में कोई चमक किसी को नजर न आए. इसके लिए कैदी ऊपरी छड़ों पर आरी चलाने के बाद चमक को ढकने के लिए शरीर की मैल उपयोग में लाते थे जबकि निचले हिस्से में अलसुबह चूना पोत दिया जाता था.
सरगुजा जिले के अंबिकापुर में जेल ब्रेक की तीन घटनाएं हो चुकी हैं. 23 नवम्बर 2007 को हुई पहली घटना में कैदी विनोद प्रजापति, मोहम्मद शमीम और जमुना सिंह ने भोजन करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली थाली को चीरकर धारदार ब्लेड बना लिया था. उधर, एक अगस्त 2010 को हुई दूसरी घटना में कैदी भोट वशिष्ठ और छोटू ने फरार होने के लिए पहले तो चादर, गमछे और शाल को जोड़कर रस्सी बनाई. इसके बाद उन्होंने रस्सी के एक सिरे पर वह पत्थर बांधा जो जेल में फूलों की क्यारियों के बीच बेतरतीब ढंग से पड़ा रहता था. फिर एक दिन मौका देखकर उन्होंने इस जुगाड़ का इस्तेमाल वैसे ही किया जैसे पुराने जमाने में सिपाही चोरी छिपे दुश्मन के किले पर चढ़ने में करते थे. रस्सी इस तरह से फेंकी गई कि इसके सिरे पर बंधा पत्थर जेल की दीवारों के एक जोड़ पर बनी दरारनुमा जगह पर फंस जाए. इसके बाद वे रस्सी के सहारे दीवार फांदकर भाग निकले.
केंद्रीय जेल रायपुर की एक महिला बंदी अमरीका बाई ने तो सबको पीछे छोड़ दिया. हत्या के जुर्म में सजा काट रही अमरीका बाई जिस बैरक में बंद थी उसके पास केले के झाड़ थे. बताते है कि अमरीका बाई प्रायः केले तोड़ने के बहाने झाड़ पर चढ़कर दीवार पर नुकीले पत्थरों के जरिए ग्रिप बनाया करती थी. 25 अक्टूबर 2008 की रात प्रहरियों ने देखा कि दीवार पर कोई छिपकली की तरह रेंग रहा है. इससे पहले कि वे कुछ समझ पाते अमरीका बाई दीवाल फांदकर जेल के बाहर हो चुकी थी. हालांकि परिवार से मिलने की भावुक कमजोरी की वजह से वह उसी दिन पकड़ भी ली गई थी. जेल में दोबारा आने के बाद जब अमरीका बाई ने अफसरों के सामने अपनी फरारी के तौर-तरीके का प्रदर्शन किया तो सभी भौचक्के रह गए थे. अमरीका बाई लंबे समय तक रायपुर जेल में रही और अफसर, प्रहरी व जेल कर्मचारी उसे स्पाइडरलेडी ही कहते रहे.
‘यहां कैदी बेकार से बेकार चीज काम में ले आते हैं’
केंद्रीय जेल रायपुर में जेल उपमहानिरीक्षक केके गुप्ता ने देश के नामचीन पाकेटमारों के साथ रहकर और कई बार तो उनके चक्कर में लात-घूंसे खाकर भी पाकेटमारी पर पीएचडी हासिल की है. वे इन दिनों कैदियों की फरारी के तौर-तरीकों को लेकर शोधकार्य में जुटे हुए हैं. उनसे हुई बातचीत के अंश.
छत्तीसगढ़ में जेल ब्रेक की बढ़ती घटनाओं पर क्या कहेंगे.
जेल में पहुंचने वाले हर बंदी का एक रूटीन तय हो जाता है. कई बार रूटीन से निराश हो चुके कैदियों को लगता है कि बाहरी दुनिया में चाहे जितनी आपाधापी हो वह मजेदार तो है. यदि कैदी ठान लेता है कि वह भागेगा तो फिर चाहे जितनी चौकसी कर दी जाए, वह अपने सपने को हकीकत में बदलने की कोशिश करता ही है. लेकिन यदि प्रहरी भी यह ठान ले कि कैदियों को फरार नहीं होने देना है तो फिर कैदी भाग ही नहीं सकता.
क्या कैदियों के फरार होने की और कोई वजह नहीं है?
एक वजह सुरक्षाबलों की कमी भी है. छत्तीसगढ़ की 25 जेलों में फिलहाल 14 हजार 225 लोग विभिन्न मामलों में सजा काट रहे हैं. राष्ट्रीय मानक के तहत छह कैदियों की देखरेख के लिए एक सिपाही का होना अनिवार्य है. लेकिन छत्तीसगढ़ में महज 18 सौ सुरक्षाकर्मियों से काम चलाया जा रहा है. अब भी 571 कर्मचारियों की कमी है.
आपकी जानकारी में क्या कोई इसलिए भी जेल से भागा क्योंकि उसे किसी से बदला लेना था?
ऐसा मैंने केवल फिल्मों में ही देखा है.
कैदियों के फरार होने के तौर-तरीकों को लेकर चल रहे अपने शोध के बारे में कुछ बताएं.
अभी काम चल रहा है, लेकिन मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि छत्तीसगढ़ के कैदियों की फरारी का तरीका अनूठा है. यहां के कैदी बेकार से बेकार चीज से काम निकाल लेते हैं. कोई कंबल के एक-एक रेशे से मोटी रस्सी तैयार करते हुए पकड़ा गया है तो कोई जेल की मल निकासी व्यवस्था से भी भागा है. कुछ समय पहले एक जेल की पूरी पाइप लाइन का इस्तेमाल ही सीढ़ी बनाने के लिए किया गया था.