बीती 25 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि फतवे किसी पर थोपे नहीं जा सकते. अदालत का कहना था कि मुफ्ती किसी मसले पर फतवा दे सकते हैं, लेकिन उसकी अहमियत एक मसले पर किसी की राय जितनी ही है.
अदालत का यह फैसला शरिया के अनुरूप ही है. शरिया फतवा और कजा के बीच फर्क करता है. फतवा यानी राय जो किसी को तब दी जाती है जब वह अपना कोई निजी मसला लेकर मुफ्ती के पास जाए. फतवा का शाब्दिक अर्थ असल में सुझाव ही है और इसका मतलब यह है कि कोई इसे मानने के लिए कानूनी रूप से बाध्य नहीं है. यह सुझाव भी सिर्फ उसी व्यक्ति के लिए होता है और वह भी उसे मानने या न मानने के लिए आजाद होता है.
दूसरी तरफ कजा का मतलब है कानूनी फैसला. किसी भी मुफ्ती को कजा जारी करने की इजाजत नहीं है. कजा राज्य अधिकृत अदालत का अधिकार है और हर कोई इसका पालन करने के लिए बाध्य है.
भारत धर्मनिरपेक्ष देश है जहां कानून का राज है. संसद जो कानून बनाती है वे मुसलमानों सहित तमाम समुदायों पर एक तरह से लागू होते हैं. अलग शरिया कानून हो, मुसलमानों को ऐसी मांग करने की कोई जरूरत नहीं है. इबादत से जुड़े मामलों में वे शरिया के हिसाब से चलने के लिए आजाद हैं जो कि बेहद निजी मसला है. लेकिन सामाजिक मसलों में उन्हें उन्हीं कानूनों के हिसाब से चलना होगा जो बाकी सभी समुदायों पर लागू होते हैं.
मुसलमानों के लिए एक अलग कानूनी दर्जे की अवधारणा अंग्रेजों की देन है. ऐसा उन्होंने 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाकर किया. इसलिए यह अंग्रेजों की विरासत है, कोई इस्लामी सिद्धांत नहीं. दरअसल कानूनी रूप से एक समुदाय को अलग दर्जा देकर अंग्रेज शासकों ने अपना राजनीतिक हित साधा था. लेकिन आजाद भारत में इस नीति को जारी रखने की कोई जरूरत नहीं है.
623 ईसवी में पैगंबर मोहम्मद मक्का छोड़कर मदीना में रहने लगे थे. हालांकि तब से पहले भी मदीना में कुछ मुसलमान रह रहे थे, लेकिन प्रभुत्व वहां यहूदियों का था. उनकी संख्या और आर्थिक ताकत दोनों ही ज्यादा थी. वहां एक यहूदी अदालत ही थी और उस समय के मुसलमान अपने मामले लेकर उसी अदालत में जाते थे. उन्होंने कभी किसी अलग अदालत की मांग नहीं की.
जब पैगंबर नहीं रहे तो कई मुसलमानों ने अरब छोड़ दिया और पड़ोसी देशों में जाकर बस गए. इतिहास बताता है कि उन्होंने इन देशों की कानूनी व्यवस्था को ही स्वीकार कर लिया और किसी अलग कानूनी व्यवस्था की मांग नहीं की. यह सहाबा की मिसाल है जो पैगंबर के साथी थे. इस्लाम के मुताबिक पैगंबर के साथियों की मिसाल जायज है और भारत के संदर्भ में भी लागू होती है.
इसलिए न तो यह सही है कि एक अलग अदालत की मांग की जाए और न यह कि फतवे के जरिए एक समानांतर व्यवस्था स्थापित की जाए. सही तरीका सिर्फ यही है कि मुसलमान भी दूसरे समुदायों की तरह देश के कानून का पालन करें. निजी दायरे में इबादत के तरीके जैसी चीजों के लिए वे आजाद हैं, लेकिन यह सही नहीं है कि वे अपने समुदाय के लिए भारत में अलग से एक कानूनी व्यवस्था की मांग करें.
पश्चिमी दुनिया में मुसलमानों ने इस मसले पर एक व्यावहारिक तरीका अपना लिया है. अलग कानून की मांग करने के बजाय वे स्थापित कानूनों से तालमेल बिठाने के तरीके निकाल लेते हैं. जैसे उत्तराधिकार का कानून वहां उससे अलग है जैसा इस्लामी कानून बताते हैं. लेकिन जहां तक मुझे मालूम है, वहां मुसलमानों ने कभी भी उत्तराधिकार का एक अलग कानून बनाने की मांग नहीं की. इसके बजाय उन्होंने एक बहुत व्यावहारिक हल ढूंढ़ लिया है. उत्तराधिकार का मसला इस्लामी कानूनों के हिसाब से हल हो, इसके लिए वे वसीयत लिखने की परंपरा का अनुसरण करते हैं.
कुरान के मुताबिक इस्लाम के दो हिस्से हैं. दीन और शरिया. दीन में वे बुनियादी सिद्धांत हैं जो हर जगह लागू होते हैं. इनमें ईमानदारी, आस्था, नैतिक मूल्यों और इबादत से जुड़े वे सबक हैं जिनका पालन एक मुसलमान को हर हाल में करना चाहिए. ये बातें निजी प्रकृति की हैं इसलिए किसी भी समाज में औरों के लिए कठिनाई पैदा किए बगैर इनका पालन करने में कोई दिक्कत नहीं है.
दूसरी तरफ शरिया का ताल्लुक उन सामाजिक नियमों से है जिनका पालन कैसे होगा यह उस समाज विशेष की परिस्थितियों पर निर्भर करता है. मुसलमानों के लिए यह जरूरी नहीं है कि वे इन नियमों का शब्दश: पालन करें. वे उस हद तक इनका पालन कर सकते हैं जहां तक समाज इसकी इजाजत देता है. फतवों पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला किसी इस्लामी सिद्धांत के उलट नहीं जाता और भारत के मुसलमानों को इसका सम्मान करना चाहिए.