शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’
दिल्ली-एनसीआर में सर्दियों में हर साल प्रदूषण अपने चरम पर होता है। हर साल सरकारें बीमारी की तरह फैले इस प्रदूषण पर सियासत, वादे और दावे करती हैं। हर साल ही प्रदूषण इतने गम्भीर स्तर पर पहुँचता है कि दिल्ली-एनसीआर में लोगों का साँस लेना मुहाल हो जाता है। दिल्ली-एनसीआर में तीन-चार महीने तक रहने वाले इस प्रदूषण का आरोप किसानों पर लगता है कि वे पराली जलाते हैं। लेकिन इस प्रदूषण की कोई एक वजह नहीं होती है। अफ़सोस की बात यह है कि जब प्रदूषण ख़तरनाक स्तर पर पहुँचने लगता है, तभी सरकारों को इसकी याद आती है। दिल्ली में तो हाल यह है कि यहाँ केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के बीच प्रदूषण को लेकर हर साल ही टकराव होता है। केंद्र सरकार प्रदूषण की सारी की सारी ज़िम्मेदारी दिल्ली सरकार पर डाल देती है।
हालाँकि कई बार राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण और सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले वर्षों में कई बार केंद्र और दिल्ली की सरकारों की फटकार लगायी है। लेकिन इस बार दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण को लेकर राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने प्रदूषण को लेकर इतना ही कहा कि राज्यों को टायर पायरोलिसिस इकाइयों (टीपीयू) को तुरन्त बन्द करने का निर्देश दिया है। इस बार नवंबर के पहले सप्ताह में ही दिल्ली का एक्यूआई 500 के आसपास पहुँच गया था। यह ख़तरनाक स्तर होता है, जिससे बीमार लोगों को तो ख़तरा होता ही है, सामान्य लोग भी बीमार पडऩे लगते हैं। यही हाल पहले सप्ताह में एनसीआर का भी रहा। हालाँकि नवंबर के सप्ताहांत तक इस प्रदूषण से राहत मिली और दिल्ली में लागू हुए ग्रैप-4 को हटा लिया गया।
ग्रैप-4 लागू होने पर बहुत ज़रूरी सामान ढोने वाले ट्रकों को ही शहर में घुसने दिया जाता है। रजिस्टर्ड मीडियम और हेवी गुड्स व्हीकल्स के चलने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। रजिस्टर्ड डीजल पर चलने वाली कारों पर भी रोक रहती है। फैक्ट्रियाँ बन्द कर दी जाती हैं। भवन निर्माण और उनकी तोडफ़ोड़ को रोक दिया जाता है। सरकारी दफ़्तरों में आधे-आधे कर्मचारियों को ही बुलाया जाता है, बाक़ी को घर से काम करने को कहा जाता है। स्कूल बन्द कर दिये जाते हैं। हालाँकि यह स्थायी समाधान नहीं है। स्थायी समाधान है- प्रदूषण पर स्थायी रोक। इसके लिए सरकारों को दूरगामी सोच के साथ स्थायी इंतज़ाम करने होंगे।
सर्दियों में हर साल वायु की आद्रता बढऩे लगती है। इसके चलते वातावरण में हर रोज़ होने वाला प्रदूषण ऑक्सीजन क्षेत्र (जोन) में ही रह जाता है और जिस हवा को साँस लेने के लिए अधिकतम शुद्ध होना चाहिए, वह प्रदूषित होने लगती है। ऐसा नहीं है कि गर्मियों में शहरों में कम प्रदूषण फैलता है। लेकिन हवा में आद्रता (नमी) कम होने के चलते वह वायुमंडल के ऊपरी स्तर पर चला जाता है, जिसके चलते ऑक्सीजन क्षेत्र उतना प्रदूषित नहीं होता, जितना कि सर्दियों में हो जाता है। इससे एक्यूआई स्तर थोड़ा ठीक रहता है। बारिश में भी हवा में आद्रता काफ़ी होती है। लेकिन बारिश होने के कारण वायुमंडल में फैला कार्बन धुलकर ज़मीन पर बैठ जाता है और पेड़ों की धुलाई होने के कारण, पानी की अधिकता के कारण ऑक्सीजन की मात्रा वायुमंडल में बढ़ जाती है। लेकिन सर्दियों में प्रदूषण बढ़ जाता है और काफ़ी तकलीफ़देह हो जाता है।
सर्दियों में उच्च एक्यूआई स्तर पर पहुँचने वाला प्रदूषण केवल दिल्ली-एनसीआर की समस्या नहीं है। इस वर्ष ही उत्तर प्रदेश के 20 शहरों में प्रदूषण का स्तर ख़राब और ख़तरनाक स्थिति में पहुँच गया। हरियाणा के भी कई शहरों में भी यही हुआ। दिल्ली सरकार द्वारा पानी का छिड़काव कराना एक छोटी-सी कोशिश हर साल की जाती है, जिससे कुछ हद तक ही राहत मिलती है। लेकिन किसानों द्वारा पराली जलाने को लेकर जिस तरह हर वर्ष राजनीति होती है, उससे सरकारों को बचना चाहिए।
यह सभी जानते हैं कि किसानों के पराली जलाने से प्रदूषण उतना ख़राब नहीं होता, जितना प्रदूषण डीजल-पेट्रोल के वाहनों से, फैक्ट्रियों-उद्योगों से, भवन निर्माण व तोडफ़ोड़ से और सर्दियों में कूड़ा, कोयला आदि के जलाने से होता है। रहा पराली का मसला, तो उसे गलाने का जो तरल पदार्थ दिल्ली सरकार ने ईजाद कराया, उसका उपयोग किया जाना चाहिए। अगर उससे समाधान होता है, तो पंजाब, हरियाणा समेत पूरे देश में जहाँ-जहाँ पराली खेतों में बचती है, उस पर उस तरल पदार्थ का उपयोग किया जाना चाहिए। नहीं तो पराली से कुछ बनाने के लिए कोई समाधान खोजा जाना चाहिए।
हरियाणा के कैथल जिले के कई किसान स्ट्रॉ बेलर, चॉपर जैसी मशीनों और स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम के माध्यम से इस पराली से हज़ारों रुपये कमा रहे हैं। ये किसान बेलर मशीन से पराली के बंडल (गाँठें) बनाकर चॉपर मशीन से पराली को जड़ को काटकर खेतों में फैला देते हैं। बंडल बनी पराली को स्ट्रॉ बेलर मशीन और सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम की मदद से बने बंडलों को किसान पराली से गत्ता और दूसरी चीज़ें बनाने वाली फैक्ट्रियों को बेच देते हैं। ये फैक्ट्रियाँ पराली को 130 से 135 रुपये प्रति कुंतल तक ख़रीद लेती हैं। वहीं हरियाणा सरकार पराली के निपटान के लिए प्रति एकड़ 1,000 रुपये अनुदान देती है। इस तरह किसानों को क़रीब 2,700 रुपये प्रति एकड़ तक की आमदनी हो जाती है। खेतों में बचे पराली के जड़ वाले अवशेष को खेतों में जोत दिया जाता है, जिससे ज़मीन को ताक़त मिलती है। यह तरीका पर्यावरण हितैषी (ईको फ्रेंडली) भी है और किसान पराली जलाकर प्रदूषण फैलाने की तोहमत से भी बच सकते हैं।
किसानों को पराली जलाने से रोकने के लिए उन पर जुर्माना लगाने और उन्हें बदनाम करने की जगह राज्य सरकारों को इस तरह किसान अनुदान की योजनाएँ चलानी चाहिए। साथ ही पराली ख़रीद का इंतज़ाम भी करना चाहिए। शहरों में सर्दियों में कोयला और कूड़ा जलने पर प्रतिबंध होना चाहिए। इसमें भी पॉलिथीन युक्त कूड़ा जलाने पर तो हर हाल में प्रतिबंध होना चाहिए। पराली के समाधान के लिए किसानों की मदद करने में राज्य सरकारों के अलावा केंद्र सरकार को भी आगे आना चाहिए। लेकिन इस मसले पर भी सभी सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियाँ अपनी पीठ बचाने के लिए सिर्फ राजनीति ही करती हैं। हैरानी की बात यह है कि इस राजनीति में विज्ञापनों के ज़रिये बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार किया जाता है। प्रदूषण निपटान में कामयाबी के लिए और ज़िम्मेदार सरकार पर हमले के लिए यह विज्ञापन टीवी चैनलों, अख़बारों से लेकर दीवारों तक दिख जाते हैं। दिल्ली में तो इस तरह के विज्ञापनों की भरमार देखी जा सकती है।
यही सरकारें विज्ञापन पर लगने वाले पैसे का उपयोग अगर काम करने पर ख़र्च कर दें, तो परिणाम ज़्यादा बेहतर दिखायी देंगे। सरकारों को यह भी समझना होगा कि वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए दूसरे प्रकार के प्रदूषणों को भी कम करना ज़रूरी है, क्योंकि एक प्रदूषण दूसरे प्रदूषण को बढ़ाता है।