उस बड़े नाले के किनारे बनी है, 40 फुटा सीमेंटेड सडक़। इस सडक़ को 13-ए शाहीन बाग के रूप में भी जाना जाता हैं। इसी सडक़ पर तकरीबन सवा महीने से तना हुआ है एक फटा-पुराना शामियाना। इस शामियाने के अन्दर बना है एक स्टेज। स्टेज की दीवार पर लगे पर्दे पर कई चित्र हैं, जो आज़ादी की लड़ाई के सपूतों के हैं। शामियाने में अंदर बिछी है एक दरी। हर रोज़ दोपहर बाद से देर रात तक अधेड़ों और नौजवानों की निगरानी में बड़ी तादाद में बैठी नज़र आती है। स्कूल कॉलेज जाने वाली लड़कियाँ, शादीशुदा नवयौवना, प्रौढ़, अधेड़ हो रही महिलाएँ और बच्चे। पूरे समय उस स्टेज पर ये सभी अपनी-अपनी बात रखते हैं; नारे लगाते हैं।
लेकिन अब दिल्ली के इस शाहीन बाग में सवा महीने से चल रहे इस धरने-प्रदर्शन से कानून व्यवस्था देखने-सँभालने वाले हुक्मरान बेइंतहा परेशान हैं। क्योंकि, इस प्रदर्शन की गूँज अब पूरे देश में है। हर छोटे-बड़े शहर में घरों से बाहर आकर महिलाएँ इस धरना-प्रदर्शन में हिस्सा ले रही है। उनका पहनावा किसी खास धर्म की ओर इशारा भले करता हो, पर उनके साथ दूसरी महिलाएँ भी हैं, जो उनके साथ है। इन सबके साथ जुड़े हैं कॉलेजों में पढऩे वाले नौजवान।
देश के संविधान को बचाने और उसे अमल में लाने की अपील कर रहे इन प्रदर्शनकारियों से अब शाहीन बाग को खाली कराने के लिए विरोधी और पुलिस कानूनी तौर पर कमर कस चुके हैं। दिल्ली पुलिस को अगले तीन महीने तक राष्ट्रीय सुरक्षा कानून से लैस कर दिया गया है। इसके तहत वह किसी को भी गिरफ्तार कर साल भर तक जेल में रख सकती है। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी पुलिस को सलाह दी है कि वह इस शान्तिपूर्ण धरना-प्रदर्शन से सडक़ खाली कराने के लिए समुचित कार्रवाई करें। युवक-युवतियाँ, महिलाएँ और बच्चे जब प्रतिवाद की राह लेते हैं, तब पूरे समाज में चिन्ता होती है। बिना विश्वविद्यालय की अनुमति के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में दिल्ली पुलिस के जवानों का घुसना छात्रावासों में घुसकर तोडफ़ोड़, आगजनी और पुस्तकालय में बैठे छात्र-छात्राओं को पीटना आदि बर्रे के छत्ते को छेडऩा ही माना जाएगा। इसके िखलाफ जामिया बस्ती की महिलाओं और अधेड़ों ने अपनी एकजुटता दिखायी।
इसी तरह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पुलिसकॢमयों को कहा गया था कि वह छात्रावासों की ओर न जाएँ। लेकिन वे गये और वहाँ उन्होंने तोडफ़ोड़ की। अपनी बढ़ी हुई फीस के मुद्दे पर जवाहरलाल नेहरू के छात्र कई दिन से विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे। लेकिन वहाँ दिल्ली पुलिस बस तमाशा देखती रही। जब उसे विश्वविद्यालय के अन्दर आने की अनुमति हासिल मिली, तब तक बाहर से नकाब लगाकर घुसे आसामाजिक तत्त्व छात्र-छात्राओं की पिटाई और तोडफ़ोड करके बाहर जा चुके थे। ये असामाजिक तत्त्व अब तक गिरफ्तार नहीं हुए हैं। मामलों की जाँच जारी है।
5 जनवरी की शाम के धुँधलके से रात 9:30 बजे तक बाहर से आये नकाबपोश जेएनयू परिसर में हावी रहे। जेएनयू छात्रसंघ की चुनी हुई प्रेसिडेंट आईशी घोष के सिर, पीठ और बाँह में खासी चोटें लोहे की रॉड्स और हॉकी स्टिक्स की मार से आयी हैं। छोटे कद की दुबली-पतली, आईशी ने संवाददाताओं से कहा-‘मैं डरती नहीं। हिंदू राष्ट्रवाद की राह पर देश को धकेलने वालों से मैं नहीं डरती। आप हमें पीटिए, फिर भी हम आपका मुकाबला करेंगे। पीछे नहीं हटेंगे।’
आज आईशी घोष, देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों और 120 शहरों में चल रहे महिलाओं-बच्चों के प्रदर्शनों में अहम चेहरा हैं। शाहीन बाग में लोग सवा महीने से जमा हैं। यहाँ महिलाएँ अपना नाम बताती हैं भारतीय। इनका पता है भारत। ये और इसके माता-पिता भी भारत मे ही जन्में। इनकी पढ़ाई-लिखाई और परिवरिश भी भारत में ही हुई।
‘देखते हो उस बुजुर्ग को। मंच पर सजे फेम मेें। इस चेहरे को ध्यान से देखो। वे गाँधी बाबा हैं।’ उनके सत्याग्रह आंदोलन में मेरे बाबा ने हिस्सा लिया था। मंच पर ही दूसरी तस्वीर है। देखो, वे हैं डॉ. भीमराव आंबेडकर। इन्होंने भारत में रहने वाले तमाम धर्म-समाजों को सामान अधिकार भारत के संविधान में दिया।’ उनका कहना है कि हम भारत के लोग हमारी निष्ठा संविधान के प्रति हैं। आज हमसे ही पूछा जा रहा है। देश की आज़ादी के सात दशक के बाद आज हमारी देश भक्ति, नागरिकता पर सवाल उठाये जा रहे हैं। अपने सात पुश्तों का इतिहास तो हमारी ज़ुबान पर है; लेकिन कुर्सी पर बैठे लोग अपनी तीन पुश्त भी नहीं गिना सकते।
वे हमसे कागज़ सबूत माँगते हैं। वे डिटेंशन सेंटर्स में डालने की बात करते हैं। लेकिन यह भी नहीं बता सकते कि आज़ादी की लड़ाई में इनके कौन-कौन अंग्रेजों से लड़े थे?’ अपने सिर पर रखी टोपी और सिर कान ढके मफलर से अपने गले को लपेटते हुए 90 की उम्र पार करती एक बुजुर्ग महिला ने लम्बी साँस ली। उन्होंने कहा कि सवा महीने से हम बैठे हैं; कोई नहीं आया। अलबत्ता कारिंदे धमकाने ज़रूर आते रहे…, लौटते गये। वे बताएँ कि भारत क्या उनका ही है?
21वीं सदी के दूसरे दशक की जनवरी में भारत के हर छोटे-बड़े शहर, राजधानी या जनपद में आज महिलाएँ, बच्चे और युवा सीएए, एनआरसी, एनपीआर के िखलाफ एक माह से ज्यादा समय से अपना व्यापक प्रतिवाद जता रहे हैं। वे घरों से बाहर, पार्क में, सडक़ों पर खेल के मैदानों में है। आज़ादी की लम्बी लड़ाई के दौर में भी शायद ऐसा न तो हुआ, और न कभी सुना गया। दिल्ली के शाहीन बाग में, मुम्बई में आज़ाद पार्क, गेटवे ऑफ इंडिया, वानखेड़ा स्टेडियम में, चेन्नई में कई जगह विशाल प्रदर्शन, बंगलूरु के टाउनहाल में, हैदराबाद की सेंट्रल यूनिवॢसटी में, उस्मानिया वगैरह में, कोलकाता के धर्मतला में, जादवपुर विश्वविद्यालय में, बोलपुर के शान्तिनिकेतन में, अमदाबाद में, वाराणसी में, इलाहाबाद में, पटना में, भोपाल में, जयपुर में, रांची में, और कहाँ-कहाँ नहीं- स्कूलों, कॉलेजों, घरों-बस्तियों से युवक-युवतियाँ, महिलाएँ-पुरुष, बुजुर्ग और बच्चे बाहर आये। उन्होंने अपना विरोध जताया। यह विरोध सिर्फ धरना-प्रदर्शन ही नहीं था। लोगों ने शान्तिपूर्ण तरीके से जुलूस निकाले। कविताएँ पढ़ीं, कविताओं को स्तर दिया, नाचे, गाना-बजाना किया, सडक़ों पर ग्रैफिटी में अपनी नाराज़गी जताते हुए कैरीकेचर उकेरे। रंगों में बताया कि हम हिन्दुस्तानी हैं। भारतीय हैं। हम एक हैं। समुदाय, जाति, भाषा, धर्म निहायत हमारे अपने हैं। राजनीति करके हमें बाँटों नहीं। यह प्रक्रिया जबरदस्त दिखी।
हालाँकि इस एकता को तोडऩे के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय और शान्ति निकेतन में लाठियाँ बरसा कर, तोडफ़ोड़ करके, मार-पीटकर शासन प्रशासन व्यवस्था सँभालने वाले लोगों के संगठनों, दलों, एजंसियों से जुड़े लोगों ने खूब चोट पहुँचायी। फिर उसके बाद तो पूरे देश के युवा एकजुट हुए। अपने-अपने इलाकों से वे अपने घरों से बाहर आये। घरों से पहली बार महिलाएँ अपने बच्चों के साथ निकलीं। हर शहर के टाउनहाल, पार्क, सब्ज़ीमंडी, सडक़ पर इकट्ठे होकर उन्होंने अपना विरोध जताया।
यह सही है कि देश में बहुसंख्यक हिन्दू हैं। लेकिन इसमें खासी विविधता है। अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग रीति-रिवाज़ और खान-पान हैं। इस देश में अल्पसंख्यकों मे मुसलमानों की लगभग 20 फीसदी आबादी है। इन सारी विविधताओं, रंगों के साथ बना और विकसित हुआ है अपना भारत। यहाँ पर मुस्लिम आबादी अल्पसंख्यक भले हो; लेकिन दुनिया के कई मुस्लिम देशों की आबादी की तुलना में सबसे ज्यादा है।
देश में भारतीय जनता पार्टी और इसके घटकों की नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस मई, 2019 मे दोबारा सत्ता में आयी। आते ही इसने तीन तलाक पर अमल किया। मुस्लिम बहुल राज्य कश्मीर का राज्य का दर्जा घटाया। उसे केंद्र शासित राज्य का दर्जा प्रदान किया। 4 अगस्त, 2019 से राज्य में इंटरनेट, मोबाइल आदि पर भी रोक लग गयी। अब तकरीबन 168 दिनों के बाद वहाँ बैंङ्क्षकग, व्यापार, अस्पताल आदि को टेलिफोन, इंटरनेट सेवा मिली है। गृहमंत्री ने वह भी प्रायोगिक तौर पर कुछ क्षेत्रों को ही। सारी दुनिया कश्मीर पर चिन्ता जता रही थी।
भारत में पूरे देश में नागरिकता रजिस्टार बनाने के अपने इरादे के तहत सीएए, एनपीआर और एनसीआर की पेशकश हो गयी। देश की केंद्र सरकार ने यह बताया कि पड़ोसी देशों अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में जिन अल्पसंख्यकों को प्रताडऩा झेलनी पड़ी है, वे आवेदन करें तो उन्हें भारतीय नागरिकता मिल जाएगी। हालाँकि, नागरिकता जिन्हें देने की बात की गयी उनमें मुसलमान शामिल नहीं किये गये। इस कानून से पूरे देश में नागरिकता मुद्दे पर धरने-प्रदर्शन शुरू हुए।
एक महिला ने कहा कि आज जो ज़रूरी चीज़ें हैं, उन पर तो बात ही नहीं की जाती। इतनी बेरोज़गारी है, महँगाई है; लेकिन कभी उस पर बात नहीं होती। बात धर्म की होती है। लोगों को बाँटने की होती है। देश भूमि की होती है। हर मुद्दे की जड़ पड़ोसी देश को बता देते हैं। आज तो ज़रूरी है कि भारत को मज़बूत बनाया जाए। धर्म के आधार पर किसी को डिटेंशन कैम्प में न डाला जाए। आज हम सब इसीलिए सबके साथ एक हैं, जिससे हमें तोड़ा न जा सकें। हमारी ज़रूरत भूख से लडऩे की है। हम भारतीय हैं। संविधान हमारा मार्ग दर्शक हैं। पटना के सब्ज़ीबाग इलाके में सैकड़ों महिलाएँ धरने पर हैं। वे एनआरसी, सीएए को तबाही का पैगाम बताती हैं। उनका कहना है कि यह मोहब्बत का पैगाम तो कतई नहीं है। हमें आपस में लड़ाने। हमें इकट्ठा करके क्या अरब सागर या हिन्द महासागर में हमें डुबोने का इरादा है। हम सब मिलकर रह रहे हैं, तो रहने तो दो। यह अलगाव क्यों फैलाया जा रहा है? एक कॉलेज में पढ़ रही किशोरी ने कहा कि सबके अपने-अपने अधिकार हैं। हमारे साथ भेदभाव क्यों? क्यों हम साबित करे कि हम यहाँ के नागरिक हैं?
राजनीतिक टिप्पणीकार और प्राध्यापक अजय कुमार सिंह ने कहा कि संविधान में दिये अधिकारों के चलते आज देश के युवाओं और महिलाओं में एक ताकत का भाव है। जिनकी आवाज़ मेें गूँज नहीं थी, आज वह है। शहर-शहर में यह जागरूकता आन्दोलन के तौर पर उभर रही है। वे आज हिन्दू और मुसलमान के घेरों में नहीं है। यह वह लोकतंत्र है, जिसमें महात्मा गाँधी, क्रान्तिकारी आज़ादी की बात करने वाले भगत सिंह और आज़ादी और न्याय की वकालत करने वाले डॉ. आंबेडकर एक साथ हैं। वे संवैधानिक आदर्श की बात करते हैं।