प्रताडऩा के शिकार आदिवासी-वनवासी

आदिवासी एवं अन्य पारंपरिक वन आश्रित समुदायों का सदियों से जंगलों से रिश्ता है। वे सदियों से वनों एवं वनों में निवास करने वाले सभी जीव-जंतुओं से सामंजस्य के साथ जी रहे हैं और अपने अधिकतर ज़रूरतों की पूर्ति भी जंगलों से ही करते रहे हैं। लेकिन जबसे वन क्षेत्र वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आया है, तबसे अनेक प्रकार के औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक क़ानूनों के ज़रिये वन विभाग आदिवासियों और वन आश्रित समुदायों का, उनके सामाजिक-आर्थिक प्रथाओं, परंपराओं, रीति-रिवाज़ों का अपराधीकरण करता रहा है। सामान्य गतिविधियों के लिए भी वन विभाग आदिवासियों को दंडित किया, मामले दर्ज कर जेलों में ठूँस दिया, जहाँ वे वर्षों से विचाराधीन क़ैदी हैं। आज वन विभाग जिन वनों पर दावा कर रहा है और वन्य जीवों का संरक्षक होने का दंभ भरता है, वह प्रकृति के प्रति, जंगलों एवं वन्य जीवों के प्रति आदिवासियों एवं वन आश्रित समुदायों की आस्था का ही परिणाम है। फिर भी वन विभाग आदिवासियों और वन आश्रित समुदायों को अपराधी घोषित कर दंडित करने से पीछे नहीं हटता। मध्य प्रदेश में वन विभाग द्वारा आदिवासियों एवं वन आश्रित समुदायों पर अत्याचार की हदें पार करते हुए सामान्य गतिविधियों के लिए भी गंभीर रूप से दण्डित किया है।

पिछले दिनों भोपाल स्थित क्रिमिनल जस्टिस एवं पुलिस एकाउंटेबिलिटी (सीपीए) प्रोजेक्ट द्वारा वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत मध्य प्रदेश में दर्ज मुक़दमों से जुड़े पुलिस और वन विभाग द्वारा सार्वजनिक किये गये आँकड़ों का विश्लेषण किया गया और मंडला तथा बालाघाट ज़िले में कान्हा राष्ट्रीय उद्यान और उसके आसपास के क्षेत्र में अभियुक्त और उनके परिवार, वकील (अभियोजन और बचाव पक्ष), वन विभाग और पुलिस अधिकारियों, जन संगठनों के प्रतिनिधियों और संरक्षणवादियों से संवाद के आधार पर अध्ययन कर ‘वाइल्ड इन पुलिसिंग : मध्य प्रदेश के जंगलो में अपराधिकरण का राज’ नामक रिपोर्ट प्रकाशित की गयी, जो आदिवासियों और वन आश्रित समुदायों के नज़रिये से काफ़ी चिन्ताजनक है। इस रिपोर्ट को देख मध्य प्रदेश के कई आदिवासी संगठनों एवं जनप्रतिनिधियों ने मध्य प्रदेश के राज्यपाल और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष को विगत माह पत्र भी लिखा। रिपोर्ट में कहा गया है कि वन विभाग ने वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का दुरुपयोग कर राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में मछली पकडऩे, सूखी लकड़ी, मशरूम, शहद और अन्य वन उपज एकत्रित करने के मामले आदिवासियों और वन आश्रित समुदायों पर दर्ज किये गये हैं, जबकि वन अधिकार अधिनियम-2006 की धारा-3(1) (ब), (स) और (ड) के तहत इन लोगों को स्थानीय जल स्रोतों से मछली पकडऩे और अन्य उत्पादों को एकत्र करने का अधिकार दिया गया है।

रिपोर्ट के अनुसार, मंडला और बालाघाट ज़िले में मछली पकडऩे के 2010-20 के बीच 134 मामले, 2016-2020 के बीच जंगली सूअर के 1,414 मामले दर्ज किये गये। रिपोर्ट में जंगली सूअर को भी एक समस्या के रूप में रेखांकित करते हुए कहा गया है कि जंगली सूअर की वजह से फ़सल का नुक़सान और आजीविका का संकट आदिवासी और वन आश्रित किसानों के साथ संघर्ष का कारण बनता है। किसानों के आत्मरक्षा अधिनियम को दरकिनार कर वन विभाग उन पर आपराधिक कार्रवाई करता है। जबकि तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, गोवा, आंध्र प्रदेश एवं उत्तराखण्ड जैसे राज्यों ने अनेक बार यह माँग उठायी है कि जंगली सूअर को वर्मिन प्रजाती (पीडक़ जन्तु) घोषित किया जाए, ताकि फ़सल एवं जान माल की सुरक्षा की जा सके और वन आश्रित समुदायों का अपराधीकरण न हो। उक्त रिपोर्ट में बताया गया है कि ‘वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम के तहत मध्य प्रदेश के जंगलों में बड़े पैमाने पर अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन आश्रित समुदायों का अपराधीकरण हो रहा है। साथ ही अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006 के तहत जिन अधिकारों को मान्यता प्राप्त हुई है, उनका भी वन विभाग द्वारा अपराधीकरण हो रहा है।’

वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का भाग-4 आदिवासियों और वनाश्रित समुदायों को जंगल में निवास के आधार पर ही अपराधी बना देता है, जो संज्ञेय और ग़ैर-जमानती हैं। अधिनियम का अध्याय-4 (अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान) जंगल को संरक्षित क्षेत्रों की एक श्रेणी बनाता है और इन क्षेत्रों में सामान्य गतिविधियों, जैसे- किसी भी व्यक्ति को किसी सीमा चिह्न को बदलने, नष्ट करने या विरूपित करने की अनुमति नहीं है। आग लगाना और किसी भी विस्फोटक पदार्थ का उपयोग करना; किसी भी जंगली जानवर को चिढ़ाना, छेडऩा या संरक्षित क्षेत्रों के मैदान में गंदगी फैलाना, अनुमति के बिना इन क्षेत्रों में प्रवेश करना; वन उपज सहित किसी भी वन्य जीवन को नष्ट करना, उसका दोहन करना या हटाना; किसी वन्य प्राणी के आवास को नष्ट करना, क्षति पहुँचाना या मोडऩा या क्षेत्र में पानी के प्रवाह को मोडऩा, रोकना या बढ़ाना है; किसी हथियार के साथ संरक्षित क्षेत्र में प्रवेश करना, ये सभी अपराध हैं। इन मामलों पर कार्रवाई करते समय, क्षेत्रों में पहले से मौज़ूद किसी भी आजीविका के मामले, फ़सल इत्यादि को ध्यान रखना ज़रूरी नहीं माना गया है और यह पूरी तरह से सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है। इसलिए यदि आप ऐसे जंगल के अंदर रहने वाले एक ऐसे समुदाय से संबंधित हैं, जो अब अधिनियम के तहत संरक्षित क्षेत्र के रूप में घोषित है, तो आप केवल निवास के आधार पर अपराधी होंगे। इन अपराधों की रोकथाम सुनिश्चित करने के लिए वन्यजीव संरक्षण अधिनियम धारा-50 अन्य सभी प्रावधानों को ओवरराइड करती है। यह वनाधिकारियों को अधिकार देता है कि वे किसी भी समय लोगों को कहीं भी रोक सकते हैं। किसी भी सामान को ज़ब्त कर सकते हैं। निरीक्षण की आवश्यकता समझकर कोई भी जाँच या पूछताछ कर सकते हैं। धारा-50(8) अधिभावी प्रभाव के साथ फिर से वारंट जारी करने और गवाहों की उपस्थिति की माँग करने के लिए अधिकारियों को सशक्त बनाती है।

हालाँकि ये दोनों प्रावधान आपराधिक न्यायशास्त्र में असामान्य नहीं हैं: लेकिन उनके कार्यवाही और संचालन की प्रक्रिया गंभीर हैं। वे प्रक्रिया का एक ऐसा ढाँचा तैयार करते हैं, जो एक आदिवासी के सामान्य गतिविधियों को भी सख़्त ढंग से दंडित करने का अधिकार दे देता है। किसी क्षेत्र में प्रवेश करने या यहाँ तक कि कूड़ा डालने जैसी मामूली चीज़ का संदेह भी अधिकारियों को कार्यवाही करने की सभी शक्तियाँ प्रदान करता है।

विदित हो कि आदिवासियों एवं पारंपरिक वनाश्रित समुदायों पर देश की संसद ने 150 वर्षों से ऐतिहासिक अन्याय होना स्वीकार करते हुए उन अन्यायों को दूर करने के लिए वन अधिकार अधिनियम-2006 पारित किया, जो जनवरी, 2008 से लागू है। वन अधिकार अधिनियम-2006 आदिवासियों एवं अन्य पारंपरिक वनाश्रित समुदायों के वन संसाधन सम्बन्धी उन अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है, जिन पर ये समुदाय विभिन्न प्रकार की ज़रूरतों के लिए निर्भर थे, जिनमें आजीविका, निवास और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताएँ शामिल हैं। वन अधिकार अधिनियम-2006 के लागू होने के पश्चात् केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय एवं राज्य सरकारों द्वारा आदिवासियों एवं अन्य पारंपरिक वन आश्रित समुदायों पर दर्ज ऐसे आपराधिक मामलों की समीक्षा कर उन्हें $खारिज किया जाना था, जिसका वन अधिकार अधिनियम-2006 के तहत अधिकार प्रदान किया गया है। लेकिन केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय एवं राज्य सरकारों की उदासीनता के चलते लगभग 170 वर्षों से अन्याय झेल रहे आदिवासियों / परंपरागत वनाश्रित समुदायों को आज भी वन विभाग अपराधी मानकर उनके साथ अन्याय और अत्याचार कर रहा है।

पिछले 50 वर्षों से मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जंगल-ज़मीन के मामलों पर कार्य करने वाले वरिष्ठ सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता अनिल गर्ग कहते हैं कि व्यापक पैमाने पर जंगलों, जैव विविधता, वन्य प्राणियों का विनाश स्वयं वन विभाग एवं वानिकी प्रबंधकों ने ही किया है और दुष्प्रचार कर इसके लिए आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वन आश्रित समुदायों को ज़िम्मेदार ठहराने की साज़िश करते हैं। अनिल गर्ग कहते हैं कि ‘वन विभाग एवं वानिकी प्रबंधकों ने म.प्र. आखेट अधिनियम-1935 के तहत अक्टूबर, 1971 तक शेर, चीता, बाघ, तेंदुआ, हिरण, चीतल, सांभर एवं अन्य वन्य प्राणियों के शिकार का लाइसेंस बाँटता रहा जो धनाढ्य वर्ग, पूँजीपति वर्ग, राजा महाराजा के मनोरंजन के साधन थे और 11 नवंबर, 1971 को वन्य प्राणियों के शिकार पर प्रतिबंध की अधिसूचना प्रकाशित कर ख़ुद को वन्य प्राणियों का सबसे बड़ा संरक्षणकर्ता बताने लगा तथा जंगलों पर आश्रित समुदायों के विरुद्ध नये-नये दुष्प्रचार, साज़िश एवं षड्यंत्र प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार वन विभाग एवं वानिकी प्रबंधक सदियों से अन्याय सह रहे जंगलों पर आश्रित समुदायों के साथ बार-बार ऐतिहासिक अन्याय को दोहराये जा रहा है।’

जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) संगठन मध्य प्रदेश के अध्यक्ष डॉ. इंद्रपाल मरकाम ने पिछले महिने राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष को पत्र लिखकर अवगत कराया कि ‘वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम-1972 में हाल ही में हुए 2022 के संशोधन के माध्यम से वन्य जीव के संरक्षित प्रजातियों की सूची को और बढ़ा दिया गया है और इस क़ानून के प्रावधनों का उल्लंघन करने पर दंड की राशि भी बढ़ा दी गयी है। यह बहुत चिन्ता का विषय है कि कुछ अपवादों को छोडक़र, संसद में भी अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन आश्रित समुदायों पर इस अधिनियम के वास्तविक प्रभाव पर गंभीर चर्चा नहीं हुई और न ही 2022 संशोधन ने इस चिन्ताजनक विषय पर $गौर किया है। इस सन्दर्भ में वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम के तहत दर्ज आपराधिक मामले और वन आश्रित समुदायों और हमारे वन अधिकारों पर प्रभाव की चर्चा संरक्षण की बहस से बाहर रह जाती है, क्योंकि इस विषय पर अधिनियम-1972 के 50 वर्ष के बाद भी कोई पुख़्ता शोध नहीं की है। मध्य प्रदेश में हमारा अनुभव यह दर्शाता है कि इस संशोधन और साथ ही वन संरक्षण नियमों (जिस पर राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने भी अपनी आपत्ति दर्ज की) में आये 2022 के संशोधन से आदिवासी एवं वनाश्रित समुदायों के वन अधिकारों को क्षति पहुँचेगी और उनका अपराधीकरण और बढ़ेगा।’

तमाम क़ानूनों को आधार बनाकर आदिवासियों एवं परंपरागत वनाश्रित समुदायों को अलग-थलग कर दिया जाता है, उन्हें उनके जंगलों से भगा दिया जाता है और क़ानूनी प्रणाली के तहत न्याय-अन्याय की एक ऐसी खायी बनायी जाती है, जिससे सदियों से अन्याय सहने वाले वनाश्रित लोगों को ही अपराधी मान लिया जाता है। वनों में रह रहे आदिवासी और वनाश्रित समुदाय सदियों से वनों और वन्य जीवों के साथ सामंजस्य बिठाकर उनका संरक्षण कर रहे हैं। जंगलों को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर वहाँ निवास कर रहे लोगों को नियमों के तहत अपराधी मान लेना उचित नहीं है।

आमतौर पर आदिवासियों एवं वनाश्रित समुदायों को प्रकृति का सबसे अच्छा संरक्षणवादी माना जाता है, क्योंकि वे आध्यात्मिक रूप से प्रकृति से सबसे अधिक क़रीब रहते हैं। आदिवासियों और वनाश्रित समुदायों पर सदियों से चले आ रहे ऐतिहासिक अन्यायों का $खत्मा हो तथा उन्हें उनके असल हक मिले उनके तमाम परंपरागत अधिकारों को क़ानूनी मान्यता मिले, वन अधिकार अधिनियम-2006 का सही ढंग से कार्यान्वयन हो यह केंद्र सरकार, वन विभाग और राज्य सरकारों की मंशा होनी चाहिए, तभी वनों और वन्य जीवों को संरक्षण होगा और आदिवासियों तथा अन्य परंपरागत वनाश्रित समुदायों को न्याय मिल सकेगा।