पैसा पूरा, खर्च अधूरा

विकास के रास्ते पर बढ़ते बिहार का शीर्ष नेतृत्व अकसर पैसों का रोना रोता है. लेकिन दूसरी तरफ वह अभी तक अपने कुल बजट का सिर्फ एक तिहाई खर्च कर सका है. मार्च में वित्त वर्ष खत्म होना है, मगर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम क्षेत्रों में सरकार मात्र आधे धन का उपयोग कर पाई है. उद्योग और कुछ दूसरे विभागों में तो एक पैसे का भी इस्तेमाल नहीं किया गया है. इर्शादुल हक की रिपोर्ट

हाल ही में योजना आयोग के सलाहकार एनसी सक्सेना बिहार दौरे पर आए थे. बिहार विधानसभा के सभागार में संसदीय बजट प्रणाली पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने जो बातें कही थीं वे पैसों की कमी का रोना रोने वाले बिहार के कुछ नेताओं को भौचक करने वाली थीं. सक्सेना ने कहा था कि अगर राज्य सरकार केंद्रीय राशि का निर्धारित समय पर सही उपयोग कर पाती तो उसे केंद्र से 10 से 12 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त मिल चुके होते. पर बिहार सरकार ऐसा करने में नाकाम रही. सक्सेना ने लगे हाथों यह भी जोड़ा कि बिहार सरकार को केंद्र की वित्तीय सहायता का उपयोग व प्रबंधन और सक्षम बनाने की जरूरत है.

यह वाकया इसी वित्त वर्ष का है. अब इस वित्त वर्ष को समाप्त होने में सिर्फ दो महीने बाकी हैं. यानी 31 मार्च, 2012 को राज्य सरकार को अपने बजटीय प्रावधान के सारे पैसों का सदुपयोग करके केंद्र सरकार को हिसाब देना है. सवाल यह है कि जो बातें सक्सेना ने कुछ महीने पहले कही थीं उनका असर राज्य सरकार पर क्या हुआ.

दरअसल इस बार भी अपने स्वभाव के अनुरूप राज्य सरकार चुप ही रही जैसा कि ऐसे फंसने वाले मुद्दों पर वह अकसर करती है. लेकिन मुद्दों की तलाश में आम तौर पर गच्चा खाते रहने का आदी हो चुका विपक्ष इस बार चुप नहीं बैठा.  विपक्ष के नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी ने चार जनवरी को एक प्रेस कांफ्रेंस बुलवाई और आंकड़ों के आधार पर गिनवाना शुरू किया कि कैसे बिहार सरकार 30 नवंबर तक अपने कुल बजट का मात्र 30 प्रतिशत उपयोग कर सकी है. सरकार पर हमलावर होते हुए उन्होंने इसे वित्तीय कुप्रबंधन का सबूत बताया. उन्होंने यह भी जोड़ा कि नीतीश सरकार के सुशासन का फीका रंग साफ दिखने लगा है.

ध्यान देने की बात है कि इस वित्त वर्ष के लिए राज्य का बजट आकार 27,365 करोड़ रुपये का है. पर सरकार एक दिसंबर, 2011 तक मात्र 10 हजार करोड़ रुपये का उपयोग कर सकी है. मतलब साफ है, उसके सामने 31 मार्च, 2012 तक 17 हजार करोड़ रुपये से अधिक का उपयोग करने की चुनौती है. अब सवाल यह है कि क्या सरकार ऐसा कर सकेगी. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जितनी रकम वह पिछले 9-10 महीने में उपयोग कर सकी है क्या उससे लगभग तीन गुना राशि वह तीन महीने में इस्तेमाल कर सकेगी? सवाल यह भी है कि क्या सचमुच सरकार की मशीनरी इतनी नाकारा और वित्तीय प्रबंधन इतना लचर है, जैसा कि विपक्ष के नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी आरोप लगाते हैं. ये सारे सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि राज्य के वित्तमंत्री सुशील कुमार मोदी 18 जनवरी को दिल्ली गए थे जहां बजट पूर्व बैठक में वे वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी से वर्ष 2012-13 में सूबे के लिए अतिरिक्त चार हजार करोड़ रुपये की मांग रख आए, जबकि राज्य सरकार मौजूदा वित्त वर्ष के पैसे का ही उपयोग नहीं कर पाई है.
सिद्दीकी सरकार पर वित्तीय कुप्रबंधन का आरोप लगाकर ही नहीं रुकते. वे कहते हैं, ‘सरकार 31 मार्च तक अफरातफरी में बाकी बचे 70 प्रतिशत धन का उपयोग भी कर देगी, क्योंकि वह ऐसा पिछले साल भी कर चुकी है.’ वे आगे कहते हैं, ‘अफरातफरी में धन खर्च करने के तीन ही हश्र हो सकते हैं- पहला इस धन की मार्च लूट होगी, दूसरा इस धन का बड़ा हिस्सा निगमों या प्राधिकारों में पार्क कर दिया जाएगा. और तीसरी संभावना यह हो सकती है कि उपयोग न करने की स्थिति में ये राशि लैप्स हो जाएगी.’

सिद्दीकी के मुताबिक सरकार की यह आदत हो गई है कि वह हर वित्त वर्ष के पहले नौ महीने में मात्र 30 प्रतिशत राशि खर्च करती है और बाकी के तीन महीने में 70 प्रतिशत रकम की बंदरबांट हो जाती है. वे कहते हैं, ‘केंद्र प्रायोजित योजनाओं जैसे मनरेगा, सर्वशिक्षा अभियान और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसे कार्यक्रमों में सुनियोजित लूट मचाने के लिए ऐसा किया जाता है जिसका फायदा सरकार में शामिल कुछ रसूखदार मंत्री और अधिकारी उठाते हैं.’

उधर, अर्थशास्त्री शैवाल गुप्ता धन के खर्च किए जाने के कुछ तकनीकी मुद्दों का जिक्र करते हुए सरकार का बचाव करते हैं. शैवाल कहते हैं, ‘यह कहना कि सरकार पैसों का उपयोग नहीं कर पाई है, उचित नहीं है. अकसर होता यह है कि विभिन्न मदों में काम करा लिया जाता है पर उस काम के बदले किया जाने वाला भुगतान सरकार मौजूदा वित्त वर्ष के अंत तक यानी 31 मार्च तक कर देती है.’ शैवाल आगे कहते हैं कि कई बार बजट प्रावधान में केंद्र अपने हिस्से की राशि समय पर नहीं भेजता जिसके कारण भी पैसों का उपयोग कभी-कभी समय पर नहीं हो पाता.

सिद्दीकी के आरोप लगाने के बाद दूसरे दिन ही उपमुख्यमंत्री और वित्त मामलों के मंत्री सुशील कुमार मोदी ने अखबारों में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए केंद्र सरकार पर आरोप लगाया था कि उसने सर्वशिक्षा अभियान के लिए तयशुदा राशि में से छह हजार करोड़ रुपये अभी तक नहीं दिए हैं. मोदी का यह बयान सिद्दीकी द्वारा पैसे नहीं खर्च कर पाने के राज्य सरकार पर लगाए आरोप के जवाब के रूप में देखा गया. हालांकि मोदी ने अपने बयान में कहीं भी सिद्दीकी या विपक्ष का जिक्र नहीं किया. मोदी के इस बयान की तरफ सिद्दीकी का ध्यान दिलाने पर उनका जवाब आता है, ‘यह सच हो सकता है कि केंद्र ने सर्वशिक्षा अभियान के पैसे रोक लिए हों पर एक आम आदमी भी यह जानता है कि पहले से खर्च किए गए पैसे का उपयोगिता प्रमाण पत्र देने के बाद ही केंद्र सरकार बाकी राशि की अगली किस्त जारी करती है.’ सिद्दीकी आगे कहते हैं, ‘यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि वह उपयोगिता प्रमाण पत्र केंद्र को भेजती. राज्य सरकार ने उपयोगिता प्रमाण केंद्र को क्यों नहीं दिया और अगर दिया तो मोदी जी को इस बात का उल्लेख करना चाहिए कि केंद्र ने उपयोगिता प्रमाण पत्र देने के बावजूद बाकी पैसे नहीं दिए.’

पक्ष और विपक्ष के तर्क-वितर्क को कुछ देर के लिए किनारे भी रख दें तो भी योजना एवं विकास विभाग के आंकड़े सरकार के खिलाफ आरोपों को मजबूती प्रदान करते लगते हैं. आंकड़े बताते हैं कि गरीबों तक रोटी पहुंचाने वाला खाद्य एवं आपूर्ति विभाग अपने कुल हिस्से के 31,983.97 लाख रुपये में से मात्र 344.33 लाख रुपये ही खर्च कर पाया है. यानी मात्र 1.08 प्रतिशत. इतना ही नहीं, इस विभाग के सामने 31 मार्च से पहले किसानों से धान खरीदने की बड़ी चुनौती है, पर किसानों का आरोप है कि धान खरीद में बिचौलियों का बोलबाला है जिसके कारण उन्हें उनके अनाज के पैसों का भुगतान भी नहीं हो पा रहा है. जबकि खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री श्याम रजक बार-बार दावा करते रहे हैं कि सरकार हर हाल में किसानों को वाजिब दाम देने के अपने वादे पर कायम है. इसी प्रकार बजट के उपयोग के मामले में शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग, जो सरकार के एजेंडे पर प्रमुख हैं, क्रमश: 43 और 32 प्रतिशत राशि का ही उपयोग कर सके हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विभागों में अगर सरकार आवंटित धनराशि का अधिकतम उपयोग कर पाती तो जाहिर है कि इससे आम जनता के लिए ज्यादा से ज्यादा कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन हुआ होता.

इसी प्रकार राज्य सरकार सूबे के विकास के लिए उद्योग पर बहुत जोर देती है क्योंकि उसका मानना है कि राज्य का विकास तभी संभव है जब यहां उद्योगों का विकास हो. पर आंकड़े चौंकाते हैं. उद्योग विभाग द्वारा पैसे के उपयोग की स्थिति तो सबसे दयनीय है. उद्योग पर सरकार ने 47,245 लाख रुपये जुटाए थे. पर इसमें से एक नये पैसे का उपयोग भी वह नहीं कर सकी. यही हाल निबंधन, उत्पाद एवं मद्यनिषेध और वाणिज्य कर विभाग का भी है.

पटना विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रोफेसर नवल किशोर चौधरी इन आंकड़ों को देखते हुए अपनी चिंता और नाराजगी जताते हुए कहते हैं, ‘राज्य सरकार अपनी जिम्मेदारियों से यह कह कर नहीं बच सकती कि उसे केंद्र ने अपने हिस्से का पैसा समय पर नहीं दिया. क्योंकि राज्य सरकार अपने बजट का प्रावधान सिर्फ केंद्र के भरोसे नहीं करती. वह ज्यादातर विभागों में कम से कम आधा पैसा अपने स्तर पर जुटाती है. इसलिए अगर वह अभी तक कुल बजट का आधा उपयोग भी कर चुकी होती तो उसका यह बहाना कुछ हद तक स्वीकार्य हो सकता था. पर उसने तो मात्र एक तिहाई राशि का ही उपयोग किया.’ सिद्दीकी की बातों से सहमति जताते हुए चौधरी भी कहते हैं कि सरकारी मशीनरी में फैले भ्रष्टाचार के चलते सरकार बजट के पैसों का उपयोग नहीं कर पाती, क्योंकि लालफीताशाही पैसों को खर्च करने से पहले ही अपना कमीशन तय कर लेना चाहती है. नतीजा यह होता है कि पैसों का समय पर उपयोग नहीं हो पाता. और जब वित्त वर्ष समाप्ति पर आता है तो उसका परिणाम मार्च लूट के रूप में देखने
को मिलता है.

बिहार में पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से विकास की गति तेज हुई है उसका असर राज्य में देखने को तो मिल रहा है. पर सरकार अपने बजट प्रावधानों का शत-प्रतिशत उपयोग करने में अगर सफल रहती तो संभव था कि राज्य की जनता को न सिर्फ कल्याणकारी योजनाओं का और अधिक लाभ हुआ होता बल्कि विकास की रफ्तार और भी तेज होती.