मई, 2008 में हुए जयपुर बम ब्लास्ट के बाद राजस्थान के एक विशेष जांच दल ने 14 लोगों को सिमी का सदस्य बताते हुए गिरफ्तार किया था. लेकिन बीते दिसंबर इनमें से 11 आरोपितों के अदालत में निर्दोष साबित होने के बाद जहां पुलिस तंत्र के पूर्वाग्रह फिर से उजागर हुए हैं वहीं यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर असली गुनहगार कौन थे. शिरीष खरे की रिपोर्ट
चेहरे पर पसरा सन्नाटा अच्छा नहीं लगता. मगर अमानुल्लाह के चेहरे से सन्नाटा है कि छंटने का नाम ही नहीं लेता. साढ़े तीन साल का वक्त कम तो नहीं होता; वह भी तब जब यह वक्त जेल की चारदीवारी के बीच काटा गया हो. और 28 साल के अमानुल्लाह ने तो अपनी जवानी का यह बेशकीमती वक्त बिना किसी गुनाह के काटा. हालांकि बीते साल के आखिरी दिनों में अदालत ने अमानुल्लाह के साथ इंसाफ किया, लेकिन जेल की बेरहम प्रताड़ना ने उसके दिलोदिमाग में कुछ ऐसा खौफ भर दिया है कि उसमें मनुष्योचित प्रतिक्रिया नहीं होती. इस तरह, लंबे इंतजार के बाद कोटा शहर के हिरण बाजार की तंग गलियों वाले अमानुल्लाह के जर्जर घर में अच्छे दिन लौटे भी हैं तो सन्नाटे के तौर पर. यह सन्नाटा राजस्थान पुलिस की देन है जिसने अमानुल्लाह पर अपराध का मामला बनाया. और मामला भी कोई मामूली नहीं. आतंकवाद का संगीन मामला.
अमानुल्लाह की जिंदगी का यह सन्नाटा 13 मई, 2008 को हुए जयपुर बम धमाके से जुड़ा है. धमाके की जांच के लिए तत्कालीन भाजपा सरकार ने एक विशेष जांच दल यानी एसओजी गठित किया था. एसओजी ने राज्य भर से सैकड़ों लोगों को पकड़ा और उनमें से अमानुल्लाह सहित 14 लोगों के खिलाफ सिमी के सदस्य होने के आरोप में चार्जशीट दाखिल की. इस दौरान साढ़े तीन साल का लंबा अंतराल गुजर गया, लेकिन जांच एजेंसी ने अदालत के सामने किसी भी आरोपित के खिलाफ सिमी की सदस्यता या उसकी गतिविधियों में शामिल होने से जुड़ा कोई भी पुख्ता साक्ष्य पेश नहीं किया. आखिर, बीते नौ दिसंबर को जयपुर की फास्ट ट्रैक अदालत के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश नेपाल सिंह ने जांच एजेंसी की चार्जशीट को बेहद लचर बताया और 11 आरोपितों को बाइज्जत बरी कर दिया. इसी के साथ अन्य तीन आरोपितों को भी जल्द ही बरी किया जा सकता है.
आतंकवाद के आरोप से रिहा लोगों ने तहलका के साथ बातचीत में देश की न्यायिक व्यवस्था पर भरोसा जताया है. मगर उनमें से कुछ को खास तौर पर मीडिया से शिकायत भी है. नजाकत हुसैन का कहना है कि उन्हें जयपुर ब्लास्ट के मामले में नहीं बल्कि सिमी के सदस्य होने के आरोप में पकड़ा गया था. जबकि मीडिया ने उन्हें जयपुर ब्लास्ट के गुनहगारों के तौर पर प्रचारित किया.
साक्ष्य के तौर पर पेश की गई उर्दू पत्रिकाओं में क्या लिखा है यह भी जांच अधिकारी को पता नहीं था
साल के सबसे ठंडे दिनों में आए इस अदालती फैसले ने राजस्थान की राजनीति में तपिश पैदा की है. सत्तारुढ़ कांग्रेस ने इसे वसुंधरा राजे के राज में मची अंधेरगर्दी बताया तो भाजपा ने भी पलटवार करते हुए गहलोत सरकार को बेवजह मामला बहुत लंबा खींचने के लिए कठघरे में खड़ा किया. इस खींचतान के बीच सभी दलों के दिग्गज नेता जो पहले इस ‘मुसीबत’ में पड़ना नहीं चाहते थे, अब बेगुनाहों की रिहाई के जश्न पर जयपुर सेंट्रल जेल सहित जगह-जगह आयोजित जुलूसों में शामिल हुए.
दूसरी ओर किसी भी आरोपित के खिलाफ पुख्ता साक्ष्य न जुटा पाने के बाद जांच एजेंसी ‘मनगढ़ंत कहानी’ के आधार पर मामला तैयार करने का आरोप झेल रही है. 12 सितंबर, 2008 को एसओजी के जांच अधिकारी तथा अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक महेंद्र सिंह चौधरी द्वारा सीआईडी, जयपुर के समक्ष दाखिल चार्जशीट (सं 15/8) में ‘कहानी’ का संक्षिप्त ब्योरा इस प्रकार है- सिमी प्रतिबंधित संगठन है जिसका सदस्य साजिद 2002 में सूरत से कोटा आया. यहां उसने अपना नाम सलीम रखा. कोटा में साजिद उर्फ सलीम ने सिमी की गतिविधियां चलाने के लिए एक कोर ग्रुप तैयार किया. इस दौरान कई लोग सिमी को प्रतिबंधित संगठन जानते हुए भी उसकी गतिविधियों में शामिल हुए. साजिद उर्फ सलीम ने कोटा और आसपास के कई शहरों (बूंदी, बारां, सवाई माधोपुर, जयपुर, अजमेर, जोधपुर आदि) में लोगों को सिमी से जोड़ने का अभियान चलाया. 2006 में साजिद उर्फ सलीम कोटा से गुजरात चला गया और उसकी गैरमौजूदगी में कोटा में सिमी की कमान मुनव्वर ने संभाली. उसके बाद कोर ग्रुप के सदस्यों ने दूसरे समुदाय के प्रति कई जगहों पर घृणा फैलाने और आपस में संघर्ष की स्थिति पैदा करने जैसी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में भाग लिया.
इस चार्जशीट में एसओजी ने आरोपितों पर दो तरह के आरोप लगाए. एक तो दो समुदायों के बीच घृणा फैलाने के आरोप में भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए, 295ए तथा 120बी. दूसरा, सिमी एक प्रतिबंधित संगठन है, यह जानते हुए भी उसके साथ संबंध रखने और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में भाग लेने के आरोप में विधि विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम की धारा 10, 13, 17, 18 और 19. पहले आरोप यानी भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए, 295ए, 120बी के तहत किसी भी आरोपित के खिलाफ मुकदमा चलाने से पहले हर जांच एजेंसी को राज्य सरकार की स्वीकृति लेना पड़ती है. मगर इस प्रकरण में एसओजी द्वारा अदालत के सामने राज्य सरकार की स्वीकृति को प्रमाणित नहीं किया गया. इसी प्रकार, दूसरे आरोप यानी विधि विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम की धारा 10, 13, 17 18 और 19 के तहत किसी भी आरोपित के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए केंद्र सरकार की स्वीकृति जरूरी होती है. मगर यहां भी एसओजी ने केंद्र सरकार की स्वीकृति नहीं ली.
जांच एजेंसी ने आरोपितों के खिलाफ 43 गवाह और कुछ दस्तावेज तैयार किए. उसे गवाहों के बयानों और साक्ष्यों के आधार पर कड़ी से कड़ी जोड़ते हुए चार्जशीट में लिखी घटनाओं को सिद्ध करना था. मगर अदालत के सामने 38 गवाहों ने पुलिस की ‘कहानी’ को झूठा बताया. इन गवाहों ने अपनी गवाही में साफ कहा कि उन्होंने आरोपितों को सिमी के साथ संबंध रखने या किसी भी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में भाग लेते हुए कभी नहीं देखा और सुना. इस प्रकरण के एक खास गवाह गिरिराज ने तहलका को बताया कि पुलिस ने उसे झूठी गवाही देने के लिए धमकाया था. गिरिराज के शब्दों में, ‘पुलिस चाहती थी कि मैं अदालत में यह झूठ बोलूं कि मैंने नान्ता रोड़ मस्जिद (कोटा) में पुताई करते समय वहां 20-25 लोगों की बैठक देखी और सिमी की बातें सुनीं.’
जांच एजेंसी ने आरोपितों के खिलाफ चार सीडी पेश की थीं. मगर उनमें सिमी के कार्यों को प्रचारित करने या संगठन की सदस्यता से संबंधित कोई भी तथ्य उजागर नहीं हुआ. जांच अधिकारी नवलकिशोर पुरोहित ने बहस के दौरान माना कि उन्होंने किसी भी सीडी को चलाकर नहीं देखा. इसलिए उनमें क्या चीजें रिकाॅर्ड हैं उसे नहीं पता. इसी तरह, पुरोहित ने कुछ पत्रिकाएं भी बरामद की थीं. ये सभी उर्दू में थीं. अदालत में पुरोहित ने माना कि उसे उर्दू नहीं आती और इन पत्रिकाओं में क्या छपा है यह जानने के लिए उसने हिंदी या अंग्रेजी में अनुवाद भी नहीं करवाया. बाद में अदालत ने पाया कि इन पत्रिकाओं में आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है. इस प्रकरण में चार्जशीटकर्ता महेंद्र सिंह चौधरी ने अदालत को बताया कि उसने जांच के दौरान आरोपितों से की गई पूछताछ मिले तथ्यों के आधार पर चार्जशीट दाखिल की थी. बहस के दौरान चौधरी ने यह स्वीकार किया कि आरोपितों ने जांच के दौरान जो जानकारी दी थी असल में वह उसे नहीं बल्कि उसके अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों को दी थी. चौधरी की इस स्वीकारोक्ति के बाद अदालत ने माना कि यह चार्जशीट चार्जशीटकर्ता की निजी जानकारी के आधार पर नहीं बल्कि दूसरों की बताई गई जानकारी के आधार पर तैयार की गई है और जिसका साक्ष्य की दृष्टि से कोई महत्व नहीं. अपनी कार्यवाही में अदालत ने यह भी पाया कि सभी आरोपितों की पृष्ठभूमि साफ-सुथरी है और किसी का भी किसी तरह का कोई आपराधिक रिकाॅर्ड नहीं है. लिहाजा अदालत ने आरोपितों पर लगाए गए सभी आरोपों को खारिज करते हुए उनके पक्ष में फैसला सुनाया.
अदालत के इस फैसले से राजस्थान के मुसलिम समुदाय में खुशी तो है लेकिन खुशी के साथ पुलिस की कार्यप्रणाली को लेकर नाराजगी भी है. जमाते इस्लामी के केंद्रीय सचिव सलीम इंजीनियर कहते हैं, ‘आतंकवाद के नाम पर पकड़ने से पहले पुलिस के पास कोई तो पुख्ता सबूत होना चाहिए. पुलिस की एक गलत गिरफ्तारी न केवल एक व्यक्ति बल्कि पूरे समुदाय का मनोबल तोड़ देती है.’ समुदाय का एक तबका इस प्रकरण को पुलिस के पूर्वाग्रहों से जोड़कर देखता है. राजस्थान लोक सेवा प्रशासन के पूर्व प्रोफेसर एम हसन कहते हैं, ‘पुलिस और अल्पसंख्यकों के बीच गलतफहमियों का रिश्ता बन गया है और यही वजह है कि पुलिस अक्सर सही स्थिति का अंदाजा नहीं लगा पाती और गलत लोगों को पकड़ लेती है.’ वहीं समुदाय के कुछ प्रतिनिधियों का यह आरोप है कि इस तरह की घटनाओं में जब पुलिस को असली गुनहगार नहीं मिलते तो वह अपना गला बचाने के लिए समाज के सबसे कमजोर तबके को निशाना बनाती है. इस घटना में भी मुसलमानों के भीतर सबसे कमजोर लोगों को ही निशाना बनाया गया. इनके पास अपने बचाव के लिए न तो कानून की ठीक-ठाक समझ थी और न ही किसी तरह की कोई राजनीतिक या आर्थिक हैसियत.’ जांच एजेंसी पर उठ रहे कई अहम सवालों को लेकर जब तहलका ने राज्य के गृह सचिव पीके देव से बात की तो उन्होंने ‘नो कमेंट’ कहकर पल्ला झाड़ लिया. अब सवाल यह है कि अगर राज्य के गृह विभाग का सबसे आला अधिकारी इन बड़े मुद्दों पर ‘नो कमेंट’ करेगा तो पूरी व्यवस्था के भीतर ‘कमेंट’ कौन करेगा. इसके अलावा यह सवाल भी अपनी जगह कायम है कि जब ये लोग बेगुनाह हैं तो असली गुनहगार कहां हैं. और जांच एजेंसी क्यों अभी तक असली आतंकवादियों तक पहुंचने में नाकाम रही है.
इस मामले में आरोपित लोग आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि से आते हैं जो अदालती खर्चा वहन करने में समर्थ नहीं हैं
अदालत के इस फैसले ने भाजपा और कांग्रेस सरकारों की एक मिलीजुली चूक पर से भी पर्दा हटा दिया है. इन सभी आरोपितों की चार्जशीट भाजपा सरकार के जमाने में दाखिल हुई थी. मगर इस संबंध में तहलका ने जब तत्कालीन गृहमंत्री गुलाब सिंह कटारिया से बात की तो उन्होंने मामले से पल्ला झाड़ते हुए कहा, ‘तब तो विधानसभा चुनाव सिर पर था और प्रचार के सिलसिले में हम सभी अपने-अपने क्षेत्रों में व्यस्त थे. कुछ महीनों बाद हमारी सरकार भी चली गई और उसके बाद जो किया कांग्रेस ने किया.’ वहीं कांगेस सरकार द्वारा मामले को लंबा खींचने के सवाल पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बहुत नपा-तुला जवाब दिया, ‘प्रकरण का अध्ययन किया जाएगा. जरूरी लगा तो पुलिस की भूमिका की जांच भी की जाएगी.’
यह सच है कि बेगुनाहों की आजादी उनके परिवारवालों के लिए सबसे बड़ी राहत है. मगर थोड़ी देर के लिए जेल की शारारिक और मानसिक प्रताड़ना को भुला भी दिया जाए तो दोबारा नये सिरे से गृहस्थी और धंधा जमाना कोई आसान काम नहीं होता (देखें बॉक्स). राज्य में कुछ मुसलिम संगठनों ने सरकार से बेगुनाहों के कीमती सालों में हुए नुकसान का मुआवजा मांगा है. राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन माहिर आजाद कहते हैं, ‘राजस्थान सरकार से हर बेगुनाह को तीन से पांच लाख रुपये तक का मुआवजा दिलाने की बात चल रही है.’
उधर, समुदाय के कुछ प्रतिनिधियों का कहना है कि मुआवजे का मामला तो बहुत बाद का है. पहला सवाल झूठा मामला बनाने वाले अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का है. राजस्थान हाई कोर्ट के वकील पेकर फारूख के कहते हैं, ‘यह कोई पहला मामला नहीं है जब आतंकवाद के घिनौने आरोप में बेगुनाहों को जेल जाना पड़ा है. जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ दंड का प्रावधान भी रखा जाना चाहिए.’ कुछ जानकारों की दलील है कि अगर जांच एजेंसी किसी व्यक्ति को आतंकवाद के मामले में फंसाती है तो इस साजिश को अपराध की श्रेणी में इसलिए रखा जाना चाहिए कि आतंकवाद अपने आप में इतना खतरनाक शब्द है कि जो भी इसकी गिरफ्त में आता है उससे बड़े से बड़ा अधिकारी या नेता भी जांच का हवाला देकर बचना चाहता है. आरोपित को आसानी से जमानत नहीं मिलती और समाज के हर वर्ग और क्षेत्र से भी उसे दरकिनार कर दिया जाता है.
इस प्रकरण में भी जब जांच एजेंसी ने आरोपितों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की तो राजस्थान बार कांउसिल ने ही यह एलान कर दिया था कि कोई वकील आरोपितों के पक्ष में वकालत नहीं करेगा. आखिरकार, कोटा के वकील जमील अहमद ने सामूहिक तौर पर सभी आरोपितों के पक्ष में वकालत करने का फैसला लिया. अहमद कहते हैं, ‘किसी भी आरोपित को गुनहगार ठहराना अदालत का काम है.’ और इस प्रकरण में अदालत ने ही जता दिया कि इन आरोपितों को अगर आतंकवादी मानकर कभी अदालत में आने का मौका ही नहीं दिया जाता तो यह न केवल संवैधानिक बल्कि मानवाधिकारों की दृष्टि से भी एक बहुत बड़ा गुनाह होता.