ओसामा बिन लादेन को पकड़ने में अमेरिका की मदद करने वाले डॉक्टर के खिलाफ पाकिस्तान सरकार का रवैया कई कड़वे तथ्यों को सामने ला रहा है
2002 में पाकिस्तानी अखबारों के पहले पन्ने पर एक विज्ञापन छपा था. इसमें कहा गया था कि ओसामा बिन लादेन की जानकारी देने वाले को लाखों डॉलर बतौर इनाम दिए जाएंगे. जिन तक अखबार नहीं पहुंचता था उन तक इस विज्ञापन को माचिस और सिगरेट के डिब्बे पर छापकर पहुंचाया गया. पश्चिमोत्तर पाकिस्तान के कबाइली इलाके में छोटी-मोटी दुकानों को भी इस विज्ञापन के प्रसार का जरिया बनाया गया. फिलहाल हालत यह है कि जिस व्यक्ति ने ओसामा को खोजने में मदद की उस पर अब विदेशी शक्ति के साथ मिलकर देश की संप्रभुता के साथ समझौता करने के चलते राजद्रोह का मुकदमा चल रहा है और आरोप सिद्ध होने पर उसे मौत की सजा दी जा सकती है. पाकिस्तानी स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी डॉ शकील अफरीदी ने एबटाबाद में ओसामा का सुराग लेने के लिए फर्जी टीकाकरण कैंप लगा रखा था.
दशक भर बाद हालात बिल्कुल बदल गए हैं. सदी की शुरुआत में जो पाकिस्तान और अमेरिका कंधे से कंधा मिलाकर अल कायदा के खिलाफ अभियान चला रहे थे, आज दोनों एक-दूसरे पर विश्वासघात और दोहरा रवैया अपनाने का आरोप लगा रहे हैं. पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्तों में आई तल्खी का अंदाजा इसी एक बात से लगाया जा सकता है कि जिस ओसामा की मौत पर भारी इनाम मिलने थे अब उस पर मौत के बादल मंडरा रहे हैं. मोटे तौर पर देखें तो डॉ अफरीदी के साथ पैदा हुए हालात पाकिस्तान की उस दुर्दशा का इशारा करते हैं जिसमें एक तरफ उसे देश के भीतर फैल रहे धार्मिक अतिवाद से जूझना पड़ रहा है और दूसरी तरफ उसके ऊपर अमेरिका के साथ बराबरी और सम्मान का रिश्ता बनाए रखने का भी दबाव है. पाकिस्तान में बहुमत का मानना है कि हथियारबंद और हिंसक धार्मिक समूह देश की सुरक्षा और स्थिरता के लिए खतरा हैं. लेकिन ऐसे समूहों से निपटने के तौर-तरीकों को लेकर इनमें सहमति नहीं है. आम पाकिस्तानी का मत है कि पाकिस्तान को अमेरिका के साथ सशर्त दोस्ती नहीं करनी चाहिए. यहां अमेरिका को भी धार्मिक उग्रवादियों की तरह ही पाकिस्तान की मुसीबतों में इजाफा करने वाले के तौर पर देखा जा रहा है न कि आर्थिक, ऊर्जा, शिक्षा, पर्यावरण और रोजगार जैसी समस्याओं को दूर करने वाले की. धार्मिक हिंसा के शिकार पाकिस्तान दक्षिण एशिया और अफगानिस्तान के प्रति अमेरिका की स्वार्थी नीतियों में फंसकर विरोधाभासी प्रतिक्रियाएं दे रहा है. पाकिस्तान में हर स्तर पर डॉ अफरीदी के साथ बरती जा रही कठोरता को हमें इन्हीं हालात के मद्देनजर देखना चाहिए.
अमेरिका को लेकर पाकिस्तान के भरोसे में आई कमी ही डॉ. अफरीदी पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने के सरकारी फैसले की मूल वजह है
पिछले कुछेक दशकों के दौरान सेना के तमाम अधिकारियों ने अपने ही संस्थान और नेताओं के खिलाफ अनेक हिंसक अिभयान चलाए. दिसंबर 2003, 2006 और 2007 में परवेज मुशर्रफ पर हुए आतंकवादी हमले में सेना और वायुसेना के कई अधिकारी हिरासत में हैं. वायु सेना के कई अधिकारी सैन्य ठिकाने से जुड़ी संवेदनशील जानकारियां आतंकवादियों तक पहुंचाने के आरोप में 2009 से ही हिरासत में हैं. 2009 और 2011 के बीच दो अति महत्वपूर्ण सैन्य ठिकानों पर हुए आतंकी हमलों में सेना के ही लोग जानकारियां मुहैया करवा रहे थे.
सेना के प्रवक्ता ने इस बात की पुष्टि की है कि 2009 में रावलपिंडी स्थित सैन्य मुख्यालय और 2011 में कराची स्थित वायु सेना बेस पर हुए हमले के मामले में सेना के पूर्व और मौजूदा अधिकारियों पर मुकदमा चल रहा है. सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी मेजर जनरल अली खान प्रतिबंधित धार्मिक संगठन हिज्ब-उत-तहरीर से संबंध रखने के आरोप में कोर्ट मार्शल झेल रहे हैं. यह संगठन बार-बार लोकतांत्रिक सरकार का तख्तापलट करने के लिए सेना को प्रोत्साहित करता रहा है ताकि पाकिस्तान में खलीफा आधारित इस्लामी राज स्थापित हो सके. अफगानिस्तान में संयुक्त सेनाओं के जितने सैनिक मारे गए हैं उनसे कई गुना ज्यादा पाकिस्तानी सैनिक धार्मिक उग्रवाद से संघर्ष में शहीद हो चुके हैं. पाकिस्तानी सेना विचारधारात्मक खतरे और नीतिगत गड़बड़ियों के बीच धार्मिक चरमपंथ और अमेरिका की स्वार्थी अपेक्षाओं का सामना कर रही है.
दोहरे दबाव के बीच पिस रही सेना की हालत का एक और नमूना है पश्चिमोत्तर के सीमावर्ती इलाकों में जारी अमेरिका के ड्रोन हमले, धार्मिक उग्रवाद से निपटने के तौर-तरीके और अमेरिका के साथ कूटनीतिक व सामरिक संबंधों पर देश के सियासी दलों का रवैया.
पाकिस्तान के सभी सियासी दलों ने ड्रोन हमलों की निंदा की है और इसे पाकिस्तान की संप्रभुता का उल्लंघन माना है. अब जाकर एक महीना पहले सर्वदलीय बैठक में ड्रोन हमलों की निंदा का फैसला एकमत से लिया गया. इस बैठक में इस बात पर भी एकराय बनी कि सभी राजनीतिक पार्टियां अपनी सेना के साथ हैं. अमेरिका के हमले असल में पाकिस्तान और कुछ खास अफगानी आतंकी समूहों को आमने-सामने ला खड़ा करने की रणनीति का हिस्सा हैं. बैठक में इस बात पर भी सहमति बनी कि सरकार को देश के धार्मिक अतिवादी समूहों के साथ बातचीत के रास्ते खोलने की जरूरत है.
इसी तरह का प्रस्ताव पाकिस्तान की संसद ने भी तब पारित किया था जब अमेरिका ने ऑपरेशन एबटाबाद को अंजाम दिया था. संसद ने एक सुर में कहा था कि पाकिस्तान की सुरक्षा और संप्रभुता का उल्लंघन करने वाली इस तरह की घटना को रोकने के लिए जो भी संभव हो वह किया जाएगा. इस प्रस्ताव में उस व्यक्ति का नाम तक नहीं था जिसके लिए अमेरिकी सेना ने पाकिस्तानी सीमा का उल्लंघन किया था.
सत्ता और ताकत के लिए लालायित कई नेता लगातार अमेरिका विरोधी राग अलापते रहते हैं. इनमें पूर्व क्रिकेटर इमरान खान का नाम सबसे ऊपर है. कई विपक्षी दल इस अमेरिका विरोध को शक्तिशाली सेना के साथ संबंध मजबूत करने का जरिया मान रहे हैं. हालांकि इक्का-दुक्का को छोड़कर ज्यादातर का अमेरिका विरोध तात्कालिक है. कोई भी अमेरिका के साथ सीधा टकराव नहीं चाहता है- इमरान खान भी नहीं. ज्यादातर नेता अमेरिका के साथ सामान्य कूटनीतिक संबंध रखने की जरूरत को समझते हैं, वह भी ऐसी स्थिति में जब कुछ लोग पश्चिम के खिलाफ बने ईरान-चीन-रूस गठजोड़ में पाकिस्तान के शामिल होने की हिमायत कर रहे हैं. सत्ता में बैठे हुए राजनीतिक दल और नेता पश्चिम और खास तौर पर अमेरिका के साथ बातचीत जारी रखने की अहमियत से वाकिफ हैं.
मजे की बात है कि ये लोग अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर छिपे गैरपाकिस्तानी उग्रवादियों से निपटने के लिए अमेरिकी ड्रोन हमले को जरूरी मानते हैं क्योंकि यह इलाका बहुत दुर्गम है और पाकिस्तानी सेना यहां कार्रवाई नहीं करना चाहती. मौजूदा स्थिति में सार्वजनिक बयानबाजी और निजी बातचीत के बीच जो कॉमन रुझान सामने आता है वह कुछ यूं है- अमेरिका हमेशा पाकिस्तान का इस्तेमाल टिश्यू पेपर की तरह करता है, संकट की घड़ी में उसने कभी पाकिस्तान का साथ नहीं दिया, वह ऐसा दक्षिण एशिया बनाना चाहता है जिसमें सिर्फ भारत का प्रभुत्व रहे और इस काम में अफगानिस्तान अमेरिका का पिछलग्गू बना हुआ है. आज पाकिस्तान में इस तरह का अमेरिका विरोध व्यापक हो गया है.
इस हालत ने लोगों को डॉ अफरीदी मामले को उचित ठहराने का बहाना दे दिया है. ऑपरेशन ओसामा पर पाकिस्तानियों को अंधकार में रखकर उसकी सीमा में सैकड़ों किलोमीटर घुस आने को पाकिस्तानी अमेरिका का धोखा मानते हैं क्योंकि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई में सबसे बड़ा सहयोगी था. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब अमेरिका ने अपने निजी हितों को पाकिस्तान के साथ बेहतर संबंधों पर तरजीह दी है. अमेरिका को लेकर पाकिस्तान के भरोसे में आई कमी ही डॉ अफरीदी पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने के सरकारी फैसले की मूल वजह है.
इसकी तुलना उस दौर से की जा सकती है जब अमेरिका और पाकिस्तान के द्विपक्षीय संबंध इतने कटु नहीं थे. उस वक्त पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसियों ने अमेरिकी एजेंसियों के साथ मिलकर तमाम अल कायदा और तालिबानी नेताओं और लड़ाकों को गिरफ्तार करने में सफलता पाई थी और उन्हें ग्वांतनामोबे भेजा था. लेकिन उस वक्त किसी ने भी खुद गिरफ्तार करके एक विदेशी शक्ति को सौंपने का विरोध नहीं किया था. पाकिस्तान के पूर्व सैन्य शासक मुशर्रफ ने अपनी किताब ‘इन द लाइन ऑफ फायर’ में साफ-साफ लिखा है कि उस समय ऐसा करने वाले तमाम पाकिस्तानी लोगों और संस्थानों को इनाम के तौर पर अमेरिका से लाखों डॉलर मिले थे. लेकिन उस वक्त किसी ने न तो कोई सवाल पूछा था और न ही किसी का नाम सार्वजनिक हुआ था.
– बदर आलम (संपादक, हेराल्ड पत्रिका, पाकिस्तान)