परदे के पीछे वाले प्रणब बाबू

प्रणब मुखर्जी के साथ 35 साल तक संवाददाता के तौर पर काम करने का अवसर मिला। पहली बार मैं सन् 1985 में एक प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में उनसे तब मिला, जब वह वर्तमान के तत्कालीन सम्पादक बरुण सेनगुप्ता के बेहद करीबी हुआ करते थे। मेरा सौभाग्य रहा कि मैं उनसे आसानी से मिलता रहा और उन्होंने हमेशा मुझे बेहद धैर्य के साथ समझाया कि राज्य और देश में क्या हो रहा है और क्यों?

एक बार मैंने उनसे पूछा था कि क्या वह कभी पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनने के इच्छुक थे? उस समय वह पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के अध्यक्ष और पार्टी के लिए फंड जुटाने वाले नेता थे। लेकिन इसका उन्होंने फौरन जवाब दिया था कि उन्हें पता है कि वह बड़े जननेता नहीं हैं, इसलिए कोई बड़ा नेता ही मुख्यमंत्री बन सकता था। मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है कि कितने नेताओं को इस तरह का अहसास है।

प्रणब दा से बात करने का सबसे अच्छा समय आधी रात के आसपास का रहता था। मैं अक्सर रात 11:30 बजे उनके घर पहुँचता था और उन्हें अपने बुलाने का इंतज़ार करता था। कई बंगाली लोगों की तरह उन्हें दोपहर में हल्की नींद लेना, यानी आराम करना पसंद था। उन्होंने एक बार मुझे बताया था कि पश्चिम बंगाल के पहले मुख्यमंत्री डॉ. बी.सी. रॉय के समय से ही यह प्रैक्टिस शुरू हो गयी थी। उन्होंने मज़ाक में कहा था कि पूरी राइटर्स बिल्डिंग (राज्य सचिवालय) दोपहर में सो जाती होगी। लेकिन तब वह एक रात्रिचर की तरह थे और देर रात तक काम करते थे। भारत के राष्ट्रपति बनने तक वह सुबह 4 बजे तक जगा करते थे।

इन 35 वर्षों में मुझे एक भी वाकया याद नहीं आ रहा है, जब उन्होंने कभी भी हल्की-फुल्की बातें की हों। मैंने कभी उनको किसी से अभद्र भाषा में बात करते नहीं सुना। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मैंने उनकी राय से उन लोगों को अलग होते देखा, जिन्हें वह पसंद करते थे। जो लोग उन्हें पसंद नहीं करते थे, ऐसे लोगों को भी वह बर्दाश्त करते थे। यह वैसा ही हो सकता है, जैसे पी.वी. नरसिम्हा राव या आर. वेंकटरमन के बारे में कहें। तो पी.वी. के बारे में आप क्या सोचते हैं? या आर. वेंकटरमन के बारे में आपकी क्या राय है? इस पर तुरन्त एन.डी. तिवारी को फोन किया। तिवारी जी! आपका क्या आकलन है? मुझे अंदाज़ा रहता था कि वह किस मसले में किसकी राय लेते थे। अगर वह कभी किसी से बहुत नाराज़ भी हुआ करते थे, तो बंगाली में कहते कि फलाँ शख्स एक मुस्क्रट (चुंचो) था।

बंगाली कथा और अंग्रेजी में नॉन-फिक्शन के पढऩे के शौकीन थे और वह अक्सर ताराशंकर बंदोपाध्याय और समरेश मजूमदार की प्रशंसा करते थे। लेकिन मुझे यकीन नहीं है कि कभी उन्होंने झुम्पा लाहिड़ी को पढ़ा। वह अपने दिल के करीब के विषयों पर खासकर इतिहास की किताबें अंग्रेजी में पढ़ा करते थे। राष्ट्रपति भवन में उन्होंने एक बार नीली किताब की ओर उँगली से इशारा करते हुए कहा था कि चाहे वह या कोई भी अन्य व्यक्ति अपने पद के बारे में सोचे, तो यह भारत को नियंत्रित करने वाली पुस्तक है। यह पुस्तक देश का संविधान था और राष्ट्रपति ने दावा किया था कि इसे हर जगह ले जाना उनकी आदत में शुमार है। इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दुनिया के सबसे बड़े संविधान के ज्ञान से वह अच्छी तरह से वािकफ थे।

सर्वविदित है कि प्रणब मुखर्जी पिछले करीब 50 वर्षों से रोज़ाना अपने जीवन के पहलुओं को डायरी में नोट करते थे। वह फाउंटेन पेन और नीली स्याही का प्रयोग किया करते थे। मैंने एक बार उनकी डायरी देखने की गुज़ारिश की थी। इस पर उन्होंने कहा था- ‘मैंने अपनी डायरी मुन्नी (उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी) को सौंप दी है, जो मेरी मृत्यु के बाद इसे प्रकाशित करवा सकती हैं या जो उनको अच्छा लगे, वैसे इसका इस्तेमाल कर सकती हैं।

वह ऐसी शिख्सयत थे, जो किसी को उद्धृत तभी करते थे, जब उसको लम्बे समय से जानते हों या उनकी मेजबानी कर चुके हों। वह शायद ही कभी लोगों को अपने घर बुलाते। मुझे लगता है कि वह जन्मदिन की पार्टियों और अपनी शादी की सालगिरह पर सबको साथ देखना पसंद करते रहे। लेकिन उन्होंने मुझे कभी आमंत्रित नहीं किया। निमंत्रण अक्सर उनकी पत्नी की ओर से आता था, जिन्हें मैं बोदी (भाभी) कहकर बुलाता था। यहाँ तक कि ऐसे मौकों पर जब वह ऑफिस से बहुत देरी से घर पहुँचते और लोगों से मुस्कुराते हुए मिलते या सिर हिलाकर अभिवादन करते, यहाँ तक कि मुझसे कहते अरे, आप भी यहाँ हैं। मुझे एक खास शाम की आज भी याद है। संभवत: उनकी शादी की सालगिरह थी। जब मेहमान उनका इंतज़ार कर रहे थे, फिर भी वह एक गणमान्य व्यक्ति के साथ अपने कार्यालय में बैैठक में मशगूल रहे।

खास मौके पर तैयार बोदी को भी साथ में तस्वीर खिंचाने के लिए इंतज़ार करना पड़ा। काफी समय बीत गया और मेहमानों का सब्र टूट रहा था। लेकिन कोई भी उनके कार्यालय में जाने और उनके बाहर आने के लिए कहने को तैयार नहीं था। लम्बे इंतज़ार के बाद मुझसे ही कहा गया कि आप जाएँ; क्योंकि अगर वह खफा होंगे भी, तो आपसे अपेक्षाकृत अच्छे से पेश आएँगे।

एक अन्य अवसर पर बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना जब नई दिल्ली की यात्रा पर थीं, तो उन्होंने प्रणब बाबू के घर जाने की इच्छा व्यक्त की। तब प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री थे और उस दौरान कोई और नहीं होता। इस पर उन्होंने शेख हसीना को तकरीबन चेताते हुए फोन किया। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के लिए भारत के वित्त मंत्री के घर का दौरा करना उचित नहीं होगा। उन्होंने तर्क दिया कि प्रोटोकॉल इसकी अनुमति नहीं देता। शेख हसीना ने आिखर में कहा था- ‘मैं आपकी पत्नी से बोलूँगी। यदि आप प्रोटोकॉल पर अड़े हुए हैं, तो मुझसे न मिलें।’ यह कहकर वह वापस चली गयीं। अगर मेरी याददाश्त सही है, तो प्रणब बाबू उस दिन देर शाम तक अपने ऑफिस में ही रहे थे। पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता अब्दुल मन्नान को योजना भवन में दोपहर के भोजन का वह दिन ज़रूर याद होगा, जब प्रणब बाबू ने राज्य के विधायकों के एक समूह को आमंत्रित किया था, उस समय वह योजना आयोग के उपाध्यक्ष थे। सोमेन मित्रा के नेतृत्व में प्रतिनिधिमण्डल समय पर दोपहर 1:00 बजे पहुँचा और एक शानदार दोपहर के भोजन की उम्मीद में थे। बाद में विधायकों में से एक ने बताया कि उस समय हमारे लिए योजना भवन हैदराबाद हाउस की तरह था, जहाँ शाही मेजबानी की अपेक्षा थी।

लेकिन प्रणब बाबू ने उन्हें जीडीपी, बचत और निवेश पर व्याख्यान देना शुरू किया। विधायकों को प्रणब बाबू ने करीब एक घंटे तक व्याख्यान दिया और उनमें से एक ने याद दिलाया कि उनको भूख लगी है। इसके बाद उन्हें पता चला कि उप सभापति ने अपने परिचारक हीरा लाल को बुलाया और मेहमानों को कुछ खाने का इंतज़ाम करने को कहा। कैंटीन में खीरा, सैंडविच और गुलाब जामुन की कुछ प्लेटें तैयार की गयीं। यह देखकर विधायक खफा हो गये और चैंबर के बाहर हंगामे वाली स्थिति हो गयी। बाद में लंच करने के लिए गोल मार्केट चले गये। प्रणब बाबू ने दावा किया कि उन्हें बिल्कुल भी याद नहीं था कि उन्होंने इस तरह का कोई आमंत्रण दिया था। हालाँकि इनमें से ज़्यादातर विधायक घर में बना बंगाली खाना पसंद करते थे। वह भारत या विदेश, जहाँ भी जाते वहाँ हमेशा एक या दो बंगाली साथ में रहते थे या परिवारों के सम्पर्क में रहते थे; जो उनके भोजन की व्यवस्था करते थे। मुझे याद है कि अमेरिका में उनका भोजन रोनेन सेन के घर से आया था, जो उस समय अमेरिका में भारत के राजदूत थे। विदेशी दौरों पर उनको ज़्यादातर फल और दूध का ही सेवन करते देखा। हम न्यूयॉर्क पैलेस होटल में उनके सुइट में बैठे थे। तब वह भारत के विदेश मंत्री थे और उनका पूरे दिन व्यस्त कार्यक्रम था। मैं यह जानने का इच्छुक था कि तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस के साथ उनकी बैठक में क्या चर्चा हुई? लेकिन वह चिन्तन के मूड में थे और उन्होंने न्यूयॉर्क की गगनचुंबी इमारतों बीच बन रहे क्षितिज की ओर मेरा ध्यान आकर्षित करते हुए कहा- ‘इस देश की शक्ति को देखें, जो दुनिया भर को चला रहा है।’ उन्होंने बताया कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश मंत्री के रूप में जाना जाता है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि यह भौतिकवादी सभ्यता लम्बे समय तक किसी भी तरह चलने वाली नहीं है। यह कभी भी बिखर सकता है।

मेरी बर्दाश्त से बाहर था और मैं बोर होने लगा था; लेकिन उनकी हाँ-में-हाँ मिलाता रहा। मैंने उनसे पूछा कि विदेश मंत्री राइस के साथ बैठक में क्या हुआ? इसे पर वह मन को खुश करने वाले भाव में दिखे और मुझे झिडक़ दिया। कहा- ‘उसने मुझे प्रभावित किया कि अच्छे सैन्य शासक और बुरे सैन्य शासक हैं और भारत को अच्छे शासकों के सम्पर्क में रहना चाहिए।’ इससे ज़्यादा उन्होंने कुछ नहीं कहा और मेरा समय भी खत्म हो गया था। उन्होंने अपने सचिव अनिल को बुलाया और जानना चाहा कि अभी नई दिल्ली में क्या समय होगा? दिल्ली में सुबह के 8:00 बजे थे; उन्हें बताया गया। उन्होंने कहा कि मुझे सलाहकार से बात करवाएँ और अपने विश्वसनीय सहयोगी ओमिता पॉल से चर्चा की। झिझकते हुए मैंने वहाँ से हटने से मना कर दिया, जब तक कि यहाँ से जाने को नहीं कहा जाए। लेकिन अगले 15 मिनट में उन्होंने ज़ाहिर तौर पर नई दिल्ली के अखबारों में छपी उन तमाम खबरों, जानकारियों, बयानों और टिप्पणियों के बारे में जानकारी दी। यह स्पष्ट रूप से एक साफ सारांश था। क्योंकि प्रणब बाबू ने एक या दो सवाल बेहद ध्यान से सुने। मेरे लिए यह दोनों के बीच कामकाजी सम्बन्धों में एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि थी, जो तब शुरू हुई थी, जब ओमिता पॉल वित्त मंत्रालय से जुड़ी एक सूचना अधिकारी थीं। हर कोई जानता है कि वह इंदिरा गाँधी के मुरीद थे और उनको गुरु के रूप में देखते थे। मैंने एक बार पूछा था कि क्या वह सरकारी क्षेत्र के दिमाग वाले हैं? क्योंकि मेरे सम्पादक ऐसा एक तरह से साबित कर चुके थे।

स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने बैंकों और कोयला खनन का राष्ट्रीयकरण किया था और रियासतों के अधिकारों को समाप्त कर दिया था। इस पर उन्होंने अलग तरह का मुँह बनाया और चिढ़ाते हुए कहा- ‘मैं एक वामपंथी हूँ? लेकिन क्या आप पत्रकार लोग यह नहीं कहते कि मैं धीरूभाई अंबानी के उदय के लिए ज़िम्मेदार था?’

प्रणब बाबू ने कभी इस बात से इन्कार नहीं किया कि उनके धीरूभाई और अंबानी परिवार के साथ एक व्यक्तिगत सम्बन्ध थे। एक बार जब मुकेश और अनिल अंबानी की माँ कोकिलाबेन का फोन आया, तो मैं वहाँ पर मौज़ूद था। दोनों उनको अंकल कहकर सम्बोधित कर रहे थे। मैंने दोनों भाइयों को उनसे बात करते हुए हुए देखा है। मुझे यह भी पता है कि यह अनिल अंबानी ही थे, जिन्होंने उन्हें रिलायंस कम्युनिकेशन द्वारा निर्मित फिल्म लिंकन देखने के लिए ज़ोर दिया था। मुझे लगता है कि अनिल अंबानी ही थे, जिन्होंने यूपीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में प्रणब मुखर्जी के पक्ष में लाने के लिए मुलायम सिंह यादव को मनाया था।

उन्होंने मुझसे एक बार कहा था कि जब भाजपा विनिवेश के बारे में गीत और नृत्य पेश करेगी, तो इसकी वजह कांग्रेस ही होगी। क्योंकि कांग्रेस ही है, जिसने खस्ताहाल पीएसयू के विनिवेश की शुरुआत की थी। लेकिन हमने हर बार प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की। उन्होंने कहा कि वित्त मंत्री के रूप में मेरा पहला बजट भाषण पढ़ें और इसे आप देख सकते हैं।

वह सच में एक अलग तरह की शिख्सयत थे। हालाँकि उन्होंने राष्ट्रीय राजधानी में 50 साल बिताये थे; लेकिन उन्हें कभी भी पार्टियों या पाँच सितारा होटलों में नहीं देखा जाता था, जहाँ सभी पार्टियों के शक्तिशाली राजनेता देर शाम को एक ड्रिंक के लिए जमा होते और अपनी अगली रणनीति की चालें चला करते थे। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने से पहले मैंने राष्ट्रपति भवन में उनसे मुलाकात की। हम उसके कमरे में बैठे और बातें करते रहे। बाहर के लोग व्यवस्था बनाने में व्यस्त थे। सार्क देशों के नेताओं के स्वागत के लिए एक शामियाना तैयार किया गया था, जिनको मोदी ने शपथ ग्रहण के लिए आमंत्रित किया था। प्रणब बाबू की आँखें पलक झपकते ही चीज़ों को भाँप लेती थीं। उन्होंने बंगाली में चुटकी लेते हुए कहा- ‘वह इसे ऐसे देखते हैं, जैसे भाजपा को ममता।’ आगे वह अधिक गम्भीरता के साथ कहते हैं कि यह ऐसा नहीं कि विदेश नीति कैसे बनायी जाती है।

उन्होंने मेरे साथ राजनीति या व्यक्तित्व पर शायद ही कभी चर्चा की। लेकिन मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी या जीएसटी लागू करने से पहले प्रणब मुखर्जी से सलाह ली थी। तथ्य यह भी है कि राष्ट्रपति के रूप में उन्हें दूसरा कार्यकाल नहीं मिला, जिसकी अपनी कहानी है। जब उन्होंने राष्ट्रपति भवन छोड़ा, तो इस पर उनका कहना था कि इससे पहले कभी उनको ऐसा नहीं लगा कि वह इतने ज़्यादा अकेले हैं, जबकि भाजपा के मंत्री कभी-कभार टकरा जाते थे। उन्होंने एक बार कहा था कि वह पुराने साथियों और कॉमरेड से मिलने से चूक गये थे। मैंने उनसे एक बार पूछा था कि क्या उन्हें कांग्रेस छोड़ देनी चाहिए थी?

उन्होंने कहा- ‘मैंने इसे एक बार किया था; लेकिन फिर कभी नहीं करूँगा। उन्होंने कहा कि शरद पवार और वी.पी. सिंह ने कांग्रेस छोडऩे पर अफसोस जताया। उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा था कि वी.पी. सिंह ने सोनिया गाँधी से मुलाकात की और बोफोर्स पर लगाये आरोपों के लिए माफी माँगी थी। वह एक महान् राजनीतिक संगठनकर्ता नहीं थे; बंगाल में कांग्रेस को मज़बूत करने में वह विफल रहे। वह जननेता भी नहीं थे। वह उन सभी चुनावों में हार गये, जिनमें उन्होंने आखरी तीन बार लोकसभा के लिए पर्चा भरा साथ ही राष्ट्रपति के लिए एक बार चुनाव लड़ा था। फिर भी मृत्यु के बाद पिछले कुछ दिनों में मैंने लोगों को यह कहते सुना है कि भारत प्रणब बाबू को मिस करेगा; जबकि प्रणब बाबू खुद अपनी पहचान तलाशते रहे।

काश! उनको इसकी जानकारी होती, तो वह बहुत खुश होते।

(लेखक एक अनुभवी राजनीतिक सम्पादक हैं।)