धृतराष्ट्र, विभीषण और तीसरा मोर्चा
राजनीति में परिवारवाद और चुनावों के समय करीबियों का बागी होना नई बात नहीं है. लेकिन दोनों ही मुख्य दलों के शीर्ष नेताओं के परिवारों में फूट पड़ना जरूर हैरानी की बात होती है. पंजाब चुनावों में इस बार ऐसा ही हुआ.
शिरोमणी अकाली दल (बादल) के पितामह और प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के 84 वर्षीय छोटे भाई गुरुदास सिंह उनके खिलाफ ही लांबी सीट से पीपीपी (पंजाब पीपल्स पार्टी) के टिकट पर चुनाव मैदान में थे. गुरुदास सिंह ने अब तक बड़े भाई की राजनीति को ही अपनी राजनीति माना था. लांबी सीट से चुनाव भले प्रकाश सिंह बादल लड़ते थे, लेकिन चुनावी अभियान की पूरी कमान गुरुदास के हाथों में होती थी. गुरुदास सिंह बादल सक्रिय राजनीति में नहीं थे लेकिन उनके पुत्र मनप्रीत बादल पार्टी में सक्रिय थे. 2007 की बादल सरकार में वे वित्त मंत्री थे. मनप्रीत के बारे में खुद प्रकाश सिंह बादल पूर्व में कई मौकों पर अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने की बात कह चुके थे.
पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर आशुतोष कुमार बताते हैं कि खुद प्रकाश सिंह ने 1985 में सार्वजनिक तौर पर यह घोषणा की थी कि मनप्रीत ही उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं. लेकिन असली दिक्कत पिछले कुछ सालों के दौरान तब आई जब प्रकाश सिंह की बढ़ती उम्र के साथ ही उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी का सवाल तेजी से वास्तविक रूप लेने लगा. उनके बेटे और वर्तमान में पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने खुद को अपने पिता के राजनीतिक वारिस बनवाने की जब कोशिश की तो आखिरकार वही हुआ जो महाभारत में हुआ था. कभी मनप्रीत के नाम की रट लगाने वाले प्रकाश सिंह बादल ने तुरंत ही अपने पिछले सारे कसमें-वादे भुलाकर बेटे सुखबीर की बात मान ली. इसका नतीजा यह हुआ कि मनप्रीत ने अकाली दल से नाता तोड़कर नई पार्टी (पीपीपी) बना ली और अपने 84 वर्षीय उस पिता को उनके 86 वर्षीय उस भाई के सामने रणभूमि में उतारा जिनके लिए वह हमेशा युद्ध में सारथी रहा था. इस चुनाव में पीपीपी ने वाममोर्चे के साथ मिलकर अपने उम्मीदवार उतारे थे और उन्हें फिलहाल किंगमेकर समझा जा रहा है.
ऐसा नहीं है कि इस चुनावी महाभारत में बादल ही छाए रहे. विरोधी दल कांग्रेस ने भी इसमें भरपूर योगदान दिया. लंबे समय तक प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह तथा उनके भाई मलविंदर के बीच चले शीत युद्ध का नतीजा यह हुआ कि मलविंदर ऐन चुनावी मौके पर अपने भाई का साथ छोड़ कर विपक्षी खेमे (शिरोमणि अकाली दल) में शामिल हो गए. मलविंदर समाना विधानसभा सीट से टिकट चाहते थे. इसके लिए उन्होंने कई बार अमरिंदर सिंह से कहा भी. लेकिन पार्टी ने इस सीट से अमरिंदर के बेटे रणिंदर सिंह को टिकट दे दिया. इसके बाद मलविंदर बागी हो गए. उनके मुताबिक उनकी जगह रणिंदर को टिकट देने का निर्णय उनके भाई अमरिंदर का नहीं है बल्कि उनकी भाभी परनीत कौर का है. मलविंदर ने न सिर्फ पार्टी और परिवार से बगावत की बल्कि समाना सीट पर रणिंदर के खिलाफ चुनाव प्रचार भी किया.
पंथ हुआ पीछे
इस चुनाव में सबसे बड़ा बदलाव सत्तारूढ़ शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन और विशेष रूप से शिरोमणि अकाली दल (बादल) की तरफ से देखा गया. अकाली दल ने इस बार के चुनाव प्रचार में किसी भी प्रकार के पंथिक मामले को उठाने से परहेज किया. हर बार विधानसभा चुनाव में 1984 के दंगों का मामला उठाकर कांग्रेस को दबाव में लाने की रणनीति अपनाने वाले अकाली दल ने इस बार हर जनसभा में विकास और सुशासन की ही बात की. इस बदलाव का असर कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा के चुनाव प्रचार में भी दिखाई दिया. पिछले चुनावों की तरह इस बार कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को आगे करके जहां खुद के सिख प्रेमी होने की बात प्रचारित नहीं की. वहीं भाजपा ने भी नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं को बुलाने से परहेज किया.
इसके अलावा इस बार शिरोमणि अकाली दल ने सबसे ज्यादा 11 हिंदू उम्मीदवारों को विधानसभा चुनाव लड़वाया. अकाली दल अपने प्रमुख वोट बैंक जाट सिखों के अलावा दूसरे वर्गों को भी खुद से जोड़ने का जी-तोड़ प्रयास कर रहा है. इसी के तहत राज्य में अल्पसंख्यक हिंदुओं को बड़ी संख्या में पार्टी टिकट दिया गया.
शिरोमणि अकाली दल ने पहली बार सबसे ज्यादा 11 हिंदू उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा था. इसे दल की भाजपा से मुक्ति पाने की छटपटाहट से जोड़ा जा रहा है
जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो मानता है कि पार्टी की इस बदली हुई रणनीति का संबंध उसके बदले मानस से नहीं बल्कि चुनावी मजबूरियों से है. उसे यदि भाजपा की बैसाखी से मुक्ति पानी है तो अपनी खुद की ताकत बढ़ानी होगी. उल्लेखनीय है कि 2007 के चुनाव में भाजपा ने मात्र 23 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 19 सीटों पर जीत दर्ज की थी. अकाली दल इस युक्ति से खुद को मजबूत करने की जुगत भिड़ा रहा है.
मिले-जुले समर्थन का ‘डेरा’
पिछले कुछ समय से जिस तरह डेरा सच्चा सौदा का राजनीतिक प्रभाव पंजाब की राजनीति में बढ़ा है उसने यहां की राजनीति को एक अलग नकारात्मक ऊंचाई दी है. विधानसभा की 65 सीटों वाले मालवा इलाके में डेरे के प्रभाव का आलम यह है कि यहां चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी जनता से वोट मांगने की बजाय डेरे का आशीर्वाद लेना ज्यादा बेहतर समझते हैं. यही कारण है कि वर्तमान चुनाव में 200 से अधिक प्रत्याशी डेरा प्रमुख गुरुमीत राम रहीम का वोट रूपी आशीर्वाद लेने के लिए कतारबद्ध दिखे.
ऐसा नहीं कि सिर्फ सामान्य प्रत्याशी ही डेरा प्रमुख के आगे दंडवत थे वरन प्रदेश कांग्रेस के मुखिया अमरिंदर सिंह तथा पीपीपी प्रमुख मनप्रीत भी उस कतार में शामिल हुए. खैर, प्रकाश सिंह बादल और उनके पुत्र तो वहां नहीं दिखे लेकिन राजनीति के जानकार कहते हैं कि अकाली दल की तरफ से भी उनके चुनाव मैनेजरों ने गुरु के सामने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी.
2007 के विधानसभा चुनावों में डेरा ने खुल कर कांग्रेस का समर्थन किया था. उस चुनाव के परिणाम में मालवा, जो अकाली दल का गढ़ माना जाता है, में कांग्रेस ने 65 में से 37 सीटों पर जीत दर्ज की. लेकिन इसके बाद अकालियों ने अपने शासनकाल में डेरे को यह महसूस कराने में कई कोर-कसर बाकी नहीं रखी कि उनके खिलाफ जाने से उन्हें (डेरे को) कितनी मुश्किल उठानी पड़ सकती है. यही कारण है कि कांग्रेस की तमाम चरण वंदना के बाद भी इस बार डेरा खुलकर कांग्रेस के समर्थन में नहीं आया. उसने प्रेमियों (डेरे के भक्त) को अपनी इच्छानुसार कथित तौर पर स्वच्छ छवि वाले प्रत्याशियों को अपना मत देने की बात की.
दो पाटों के बीच फंसा डेरा न कांग्रेस को नाराज कर सकता था और न अकालियों को क्योंकि एक तरफ डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम के खिलाफ बलात्कार और हत्या के मामले को लेकर सीबीआई जांच चल रही है तो वहीं दूसरी तरफ राज्य पुलिस भी डेरा प्रमुख के खिलाफ केस दर्ज किए हुए है. ऐसे में इस बार डेरा ने सबको खुश करने की रणनीति पर काम किया है.
78.67% की रिकॉर्डतोड़ वोटिंग
मत प्रतिशत का यह आंकड़ा राज्य ने पहली बार छुआ है. वैसे 1992 का चुनाव (जिसका अकालियों ने बहिष्कार किया था) छोड़ दें जिसमें मात्र 26 फीसदी वोटिंग हुई थी तो उसके अलावा बाकी चुनावों में पंजाब में मतदान का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से हमेशा अधिक रहा है. लेकिन इस बार सारे रिकॉर्ड टूट गए. इतनी बड़ी संख्या में हुए मतदान को पारंपरिक तौर पर वर्तमान शासन के खिलाफ एंेटी इनकमबेंसी के तौर पर लिया जाता है. दूसरी बात यह भी है कि 1966 में पंजाब राज्य के पुनर्गठन के बाद से ही यहां कभी सत्ताधारी दल दुबारा सत्ता में नहीं आया. इस हिसाब से देखें तो मत बढ़ोतरी को अकाली-भाजपा गठबंधन के खिलाफ पड़े मतों के रूप में देखा जा सकता है. लेकिन राज्य में ऐंटी इनकमबेंसी जैसी कोई लहर नहीं दिखती.
कुछ जानकारों का यह भी मानना है कि पीपीपी के चुनाव में उतरने से मामला त्रिकोणीय हो गया है. ऐसे में जनता, जिसके पास पहले अकाली-भाजपा गठबंधन और कांग्रेस में से किसी एक को चुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, ने चुनावों में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की.
चुनाव से पहले कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा
अपनी स्थापित परंपरा के विरुद्ध जाकर कांग्रेस ने पंजाब में पहली बार मतदान से पहले ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा कर दी. राहुल गांधी ने एक सभा में इस बात की घोषणा की कि अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री बनेंगे. कांग्रेस के इस यू टर्न को जहां कुछ लोग उसकी चुनाव लड़ने के तरीकों में आ रहे बदलाव के रूप में देखते हैं. वहीं कुछ का मानना है कि पंजाब में कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा करना मजबूरी थी. क्योंकि हर रैली में अकाली-भाजपा जनता से यही कहते थे कि कांग्रेस विभाजित है.