किसी भी काल को समझने और जानने के लिए इतिहास सदैव एक प्रामाणिक आधार होता है तथा किसी भी साहित्य की समझ दो कालों की समानांतर दृष्टियों के माध्यम से ही विकसित की जा सकती है. एक उस काल विशेष के इतिहास और समाज के आधार पर और दूसरी- आज की दृष्टि की व्यापकता के आधार पर उस साहित्य का विश्लेषण।
इस सन्दर्भ में यह जानना आवश्यक है कि किसी भी काल की अपनी नैतिकताएं और अपनी सीमाएँ होती हैं। समय के बदलाव के साथ नई मान्यताएँ और बदलते दृष्टिकोण के अनुसार पुरातन काल की परख अवश्य की जानी चाहिए परन्तु उसे केवल इस आधार पर त्याज्य मान लेना कि नए युग की प्रतिध्वनियाँ उस काल के भीतर दिखाई नहीं देती, उस युग के साथ न केवल अन्याय है बल्कि एकांगी दृष्टिकोण का भी सूचक है।
युगविशेष की पहचान उस काल खंड के इतिहास के सन्दर्भ में ही हो सकती है। रीतिकाल को एक स्त्री की नज़र से देखना स्वयं में जितना रोचक दिखता है उतना ही चुनौतीपूर्ण भी है। एक ऐसा काल जिसमें हर ओर स्त्री की ही चर्चा है पर स्त्री स्वयं सिरे से लापता है! स्त्री अपनी इच्छा और अपने मर्म की गाथा स्वयं कहीं नहीं कहती अथवा अब तक की गई खोज में किसी ऐसी स्त्री का जि़क्र नहीं मिलता जिसने अपनी कथा, पीड़ा अथवा इच्छाओं की अभिव्यक्ति स्वयं की हो! भक्तिकाल में स्त्री रचनाकारों का प्रतिनिधित्व है तो रीतिकाल में क्यों नही?
स्त्री अभिव्यक्ति की चर्चा के सन्दर्भ में सर्वप्रथम थेरी-गाथाओं की चर्चा मिलती है जिनकी रचना छठी सदी ईसा पूर्व उन स्त्रियों द्वारा की गई जिन्हें बुद्ध की अनिच्छा स्वरूप भी आनन्द के हस्तक्षेप से किसी प्रकार संघ में प्रवेश प्राप्त हुआ। इन थेरी गाथाओं में उनके हृदय की अभिव्यक्ति हुई पर इसे लेकर भी इतिहासकारों में मतभेद है कि इसकी रचना स्त्रियों ने की अथवा पुरुषों द्वारा ही उनकी भावाभिव्यिक्ति की गई। न्यूमेन ने तो कहा कि इन थेरी गाथाओं के लेखक पुरुष ही थे.बाद में कैथरीन ब्लैकस्टोन ने सिद्ध किया कि इन गाथाओं की रचना स्त्रियों ने ही की थी। इसके पश्चात एक महत्वपूर्ण सन्दर्भ अक्का महादेवी का 12 वीं शती में कन्नड़ साहित्य में मिलता है.पर उनका पूरा सन्दर्भ भक्ति से जुड़ा है. 13 वीं शती में मराठी साहित्य में जनाबाई लिखती है कि मुझे दु:ख नहीं होना चाहिए क्योंकि मैंने स्त्री रूप में जन्म लिया है, सो यातनाएं तो मुझे भोगनी ही होंगी। संतो को तो वैसे भी यातनाओं को सहना ही पड़ता है. क्षमा शर्मा उनके एक पद का हिंदी अनुवाद लिखती है-
हाथ में मंजीरे/कंधे पर वीणा/कौन मुझे रोकने की हिम्मत कर सकता है/साड़ी का पल्लू गिर जाता है/ हजार बातें बनाते हैं लोग/किन्तु मैं जाऊँगी भरे बाज़ार में/ निडर, निस्संकोच (औरतें और आवाजें, पेज 8)
15वीं शती में रामी (बँगला), 12-14 वी शती में गंगासती (गुजराती), रत्नाबाई (गुजराती), 15-16 वीं शती में मीरा बाई काव्य रचना कर रही थी और भक्ति के माध्यम से किसी प्रकार मुक्ति की इच्छा कर रही थी। इसी काल में समानांतर रूप से कन्नड़ काव्य में अतुकरी मौल्ला का क्रांतिकारी चित्र मिलता है जहाँ भद्र समाज की चुनौती को स्वीकार करके वह पाँच दिन में रामायण का नया प्रारूप तैयार करती हैं. इसी काल में समानांतर रूप से उर्दू, तमिल और तेलुगु में स्त्री रचनाकार स्वतंत्रता की माँग का काव्य रच रहीं थीं। इन पर विचार किया जाना चाहिए. यहाँ मैं दो स्त्रियों का जिक्र करना ज़रूरी समझती हूँ जो रीतिकाल के समानांतर अपनी देह की अभिव्यक्ति काव्य रचना के माध्यम से कर रही है-एक भक्ति के लिए और एक देह की मांग के लिए. मराठी में बहिणाबाई लिखती है
वहीं दूसरी ओर मुदुछुपलानी तेलगु में राधा-सम्वत्सम लिखती हैं जिसे अनैतिक कहकर उसकी भत्र्सना की गई। अपनी तुलना वे चन्द्रमा से करती हैं. प्रताप सिन्हा के राज्य की नर्तकी मृदुछुपलानी स्त्री की देह की इच्छाओं की पूर्ति की माँग करती है-
इस काव्य राधिका संत्वनम में स्त्री द्वारा 1780 में पुरुष को इस प्रकार प्रबोध देने की जो चेष्टा की गयी है, वह आज भी आश्चर्य का विषय हो सकता है। देह की मांग और स्त्री द्वारा स्त्री देह की सुकुमारता की प्रतिष्ठा करते हुए पुरुष से देह को सावधानी से छूने की मांग स्त्री पाठ के नए आयाम को स्थापित करती है. ऐसे में यह मान लेना कठिन है कि रीतिकाल में स्त्रियों ने रचना नहीं की। शायद इस दिशा में और कार्य किया जाना चाहिए। एक स्त्री जिसका जिक्र रीतिकाल में मिलता भी है। शेख जो मुसलमान स्त्री है और जिसका संबंध आलम से जोड़ा जाता है. शेख ने आलम के साथ मिलकर काव्य रचना की, इसे प्राय: विद्वानों ने स्वीकार करते हुए भी आलम को ही काव्य का मूल रचयिता माना है. आलम ग्रंथावली से एक उदाहरण दृष्टव्य है
आलम सो नवल निकाई इन नैनन की, पांखुरी पदुम पे भंवर थिरकत है. (आलम कृत)
चाहत है उडिवे को देखत मयंक मुख, जानत है रैनि तांते ताहि में रहति है (शेख कृत)
कनक छरी सी कामिनी काहे को कटि छीन की दूसरी प्रसिद्ध पंक्ति कटि को कंचन काट के कुचन मध्य धरी दीन जैसी प्रसिद्ध पंक्ति शेख द्वारा ही लिखी गई. परन्तु विद्वानों के वर्ग ने यह सिद्ध कर दिया कि शेख और आलम दो नहीं एक ही हैं! खैर!
रीतिकालीन साहित्य के मूल्यांकन के संदर्भ में प्राय: आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के कथनों का उल्लेख करते हुए यह मान लिया जाता है कि रीतिकालीन काव्य नाली की दुर्गंध के समान है और पूरी तरह से त्याग योग्य है। परंतु यहाँ इस आलेख के माध्यम से रीतिकालीन काव्य के पुनर्मूल्यांकन पर बल देते हुए मैं नैतिकता के बने बनाए प्रतिमानों से इतर अथवा प्रतिमानों के विस्तार का प्रस्ताव रखना चाहती हूँ जहां रीतिकाल को मात्र तिरस्कृत मानकर छोड़ देना रास्ता नहीं हो सकता, वास्तव में प्रतिमानों का भी पुनर्निर्धारण हो सकता है और होना भी चाहिए।
अक्सर आधुनिक काल के संदर्भ में यूरोपीय पुनर्जागरण के अनुसार अंधकार काल की संकल्पना प्रस्तुत की जाती है और रीतिकाल को अंधकार काल मानकर उसे अस्वीकृत कर दिया जाता है। परन्तु दो भिन्न देशकाल की तुलना के मानदंड समान नहीं हो सकते। इस काल के भीतर अनेक रचनाएँ लिखी जाती रहीं तथा काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों का प्रवर्तन भी हुआ। आंदोलनों की भी इस दौर में महत्वपूर्ण भूमिका रही तथा भक्ति-नीति के काव्य का भी सृजन हुआ, जिसकी चर्चा अब की जा रही है- रीतिकालीन युग में। एक ओर पंडित राज जगन्नाथ रस सिद्धांत की स्थापना करते हुए रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्द: काव्यं कहकर शब्द और अर्थ की रस निष्पत्ति में भूमिका पर विचार कर रहे थे। वहीं नजीर अकबराबादी इसी काल में कविता का सृजन कर रहे थे. नजीर की कविताओं के दो उदाहरण प्रस्तुत है-
जाता है हरम में कोई कुरआन बगल मार
कहता है कोई दैर में पोथी के समाचार
पहुंचा है कोई पार भटकता है कोई ख्वार
बैठा है कोई ऐश में फिरता है कोई जार
हर आन में, हर बात में, हर ढंग में पहचान
आशिक है तो दिलबर को हर इक रंग में पहचान
खुदा और भगवान को एक रंग में देखने वाले नजीर इसी काल में कृष्ण पर भी भक्ति काव्य का सृजन कर रहे है-
तारीफ़ करूँ अब मैं क्या उस मुरली बजैय्या की
नित सेवा कुंज फिरैया की और बन बन गऊ-चरैया की
गोपाल, बिहारी, बनवारी, दुखहरना, मेल करैया की
गिरधारी, सुंदर, श्याम बरन और हलधर जू के भैया की
यह लीला है उस नंद-ललन, मनमोहन, जसुमति-छैया की
रख ध्यान सुनो दंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥
इसी काल में हिंदी का पहला कहा जाने वाला नाटक रीवां के नरेश विश्वनाथ सिंह द्वारा आनंद रघुनन्दन लिखा गया. सबल सिंह चौहान द्वारा महाभारत और रामायण का पद्यानुवाद भी इसी काल में किया गया.
रीतिकाल की ओर ध्यान से देखने पर ज्ञात होता है कि वारिस शाह के हीर-रांझा की रचना इसी काल में हुई जिसका 24 वां बंद दृष्टव्य है
नड्ढी सिआलां दी वियाह के लीयावसां मैं करो बोलीया अते ठठोलीआं नी
बहै घत्त पीड़्हा वांग मुहरिया दे होवन तुसां जिहीआं अग्गे गोलीआं नी
मझो वाह विच बोड़ीए भाबीआं नूं होवन तुसां जिहीआं बड़बोलीआं नी
बस करो भाबी असीं रज रहे भर दित्तीआं जे सानूं झोलीआं नी
जहाँ हीर-रांझे का प्रेम और उसे परिणति की ओर ले जाने और संघर्ष करके भी प्रेम को प्राप्त करने के स्पष्ट कई उदाहरण मिलते हैं.
इसी काल में गुरु गोविन्द सिंह द्वारा चंडी चरित की रचना की गई जिसका आरम्भ ही ब्रज भाषा के इस छंद से होता है.
बर देहीं सिवा नित मोहिं इतै, सुभ कर्मन तों कबहूँ न टरों न डरों आरी सों जब जाई लरों निसचै .कर आपनी जीत करों। भक्ति के समानांतर रीतिकाल में इस रचना को किन प्रतिमानों के सहारे पढ़ा जाए, इस पर भी विचार होना चाहिए।
यही काल सतनामी सम्प्रदाय के विद्रोह का काल बनता है (1672) और सतनामी औरंगजेब के विरोध में हथियार उठाते है. फतेह शाही का ब्रिटिशों के प्रति विद्रोह (1767-1792), देवी सिन्हा का विद्रोह (1782)पायचे राजे (1796-1905) तथा फकीरों-संन्यासियों का विद्रोह (1763-1800) इसी काल की घटनाएँ है.
इस पृष्ठभूमि के साथ रीतिकालीन काव्य पर चर्चा करते हुए पहली महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे अन्धकार काल कहकर खारिज कतई नहीं किया जा सकता. हाँ इसकी सीमाओं और संभावनाओं पर बहस अवश्य की जानी चाहिए.
प्रमुख मुद्दा है- नैतिकता का प्रश्न और इसी नैतिकता के दायरे में रीतिकाल को अस्वीकृत किया गया। रीतिकाल का कवि एक ऐसी स्त्री की छवि का निर्माण करता है जिसे पढकर पुरुषों की मानसिकता के विकृत होने और स्त्रियों के कुलीनता के आवरण के छिन्न-भिन्न हो जाने की संभावना से द्विवेदी युग के साहित्यकार ही नहीं बल्कि आज तक के आलोचक भी डरे हुए है।
मैनेजर पाण्डेय अश्लीलता और स्त्री नामक लेख में 18वी सदी की तेलुगु कवियत्री मुदुछुपलानी की रचना ‘राधिका सान्त्वन्म’ का जिक्र करते हुए नैतिकता के प्रश्न की लंबी चर्चा करते है- ‘उपनिवेशवाद से पैदा हुआ मध्यवर्ग अपनी मानसिक बुनावट में विक्टोरियन कालीन नैतिकता से ग्रस्त था और अपनी इस आकांक्षा के अनुरूप आदर्श स्त्री की छवि का निर्माण करना चाहता था। इस मध्यवर्ग में अपनी पुरानी रूढियों और विक्टोरियन कालीन वर्जनाओं के विचित्र घालमेल से एक पाखंडी चरित्र विकसित हुआ……….भारत में जिस प्रकार का राष्ट्रवाद विकसित हुआ है उसकी कई विशेषताएँ तो
सीधे-सीधे उपनिवेशवाद से सीखी और स्वीकार की गई है। स्त्री-पुरुष के लिए इस दोहरे मानदंड की गैर आलोचनात्मक स्वीकृति इसी प्रवृत्ति का एक जीवंत उदाहरण है. इसीलिए वीरेशलिंगम ने मृदुछुपलानी की काव्य रचना का विरोध करते हुए यह तर्क दिया है कि एक स्त्री को उद्दाम काम का खुला चित्रण करने वाला काव्य नहीं लिखना चाहिए क्योंकि इससे समाज के नैतिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है’
इस पृष्ठभूमि में रीतिकालीन काव्य को नैतिकता के कटघरे में खड़ा करने वाली मानसिकता को समझा जा सकता है. मैनेजर पाण्डेय के ही शब्दों में ‘अश्लीलता एक अर्थ में पुरुषवादी वर्चस्व को कायम रखने का माध्यम है’। रीतिकालीन शृंृंगार के दायरों में ऐसी कविता भी है जो नकारात्मक भी है पर स्वस्थ प्रेम, शृंृंगार, मन को रिझाते रूप सौंदर्य, स्वकीया प्रेम, प्रेम की पराकाष्ठा के चित्र भी बहुतायत में मौजूद है जिनकी चर्चा यहाँ की जाएगी. साथ ही भक्ति, रीति, विषय वासना के तिरस्कार, कृष्ण की रूप माधुरी, कुल कामिनी के प्रति सद्-इच्छा तथा विषयों के विस्तार को भी देखा जा सकता है।
इस काल के इतिहास पर विचार करने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि यह काल मुगल सत्ता के शिल्प के विकास और आगे जाकर औरंगजेब के शासन काल में संगीत और कला के निषेध का काल बनता है। दरबारी कला के प्रोत्साहन का कारण कहीं यह भी था कि केन्द्रीय स्तर पर चित्रकला, स्थापत्य कला, वास्तु और संगीत को प्रोत्साहन दरबारों में दिया जा रहा था। इन कलाओं के उत्कृष्ट नमूनों में जहांगीर द्वारा बनवाए गए निशात बाग़ तथा शालीमार बाग़ का नाम अत्यंत प्रसिद्ध है जिसे देखने के लिए विश्व भर से लोग आते है पर साहित्य के जिस सौंदर्य को कालिदास के काव्य में सराहना मिलती है उसे रीतिकाल में अस्वीकृत कर दिया जाता है, यह भी अत्यंत अंतर्विरोधी मानसिकता की स्थिति है! दृष्टव्य कुमारसम्भव, अष्टम सर्ग (छंद-4-91) अंत में कालिदास लिखते हैं- ‘इति महाकविकालिदास कृतौ कुमारसंभवे महाकाव्ये उमासुरत वर्णनं नामाष्टम: सर्ग’
रीतिकाल में कवि देव ने शृंृंगार, रीति और वैराग्य भाव तीनों की रचना की है-वे लिखते हैं-नव रस को पति सरस, इति रस सिंगार पहिचान्यो और साथ ही वह सिंगार और कामुकता में भी अंतर करते है-यह विचार प्रेमीन को, विषयी जन को नाहि’ अथवा तबहीं लौं सिंगार रस जब लग दम्पत्ति प्रेम. रीतिकाल के ये कवि दरबारों में रहते हुए भी परकीया प्रेम के साथ स्वकीया प्रेम को भी नहीं भूले है और अनेक स्थानों पर उसकी स्थापना भी करते है. स्त्री की पीड़ा और दैन्य का यह चित्र देव ही प्रस्तुत कर रहे है- साथ में राखिए नाथ उन्हें, हम हाथ में चाहत चारी चुरी यह’ पद्मावत में नागमती की पीड़ा यही है कि कुलशील का सम्मान रखने के कारण वह पति का अपमान नहीं कर सकती इसलिए यदि रत्नसेन नहीं आए तो भी आँखें उसकी प्रतीक्षा करती रहेंगी. रीतिकाल की स्त्री और भी दीन हीन है जो रो भी नहीं सकती। नायक के परस्त्री गमन की जानकारी होते हुए भी मरण के बाद भी पति से ही प्रेम के नियम से वह बंधी हुई है, पर आँखें धोखा दे देती है, बहने लगती है. पति के पूछने पर उत्तर है किकृ
नीके में फीके ह्वै आँसू भरौ कत,
ऊंचै उसास गरो क्यों भरयो परे,
रावरो रूप पियो अँखियान भरयो,
सु भरयो उबरयो सो ढरयो परे।(ग्रंथावली)
इस पीड़ा के चित्र देव के काव्य और रीतिकाल में अनेकों हैं जिन पर भी चर्चा होनी चाहिए.
‘ऐसो जो हो जानतो कि जैहे तू विषै के संग, एरे मन मेरो हाथ-पाँव तेरे तोरतो ‘अथवा ढारत समीर चैंर, कामना न मेरे और, आठौ जाम राम तुम्हैं पूजत रहत हौं’ जैसे पदों की व्याख्या हेतु भी नवीन दृष्टि से इन पाठों के प्रति मान्यताओं के परिवर्तन की आवश्यकता है।
आचार्य शुक्ल ने घोर एकांतिक रूप से रीतिकाल का विरोध किया हो, यह पूरी तरह सत्य नहीं. शुक्ल ही लिखते है, ‘इन रीतिग्रंथो के कर्ता भावुक, सह्रदय और निपुण कवि थे. उनका उद्देश्य कविता करना था न कि काव्यांगों का शास्त्रीय पद्धति पर निरूपण करना. अत: उनके द्वारा बड़ा कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषत: श्रृंगार रस) और अलंकारों के बहुत ही सरस और ह्रदयग्राही उदाहरण अत्यंत प्रचुर परिमाण में प्राप्त हुए. ऐसे सरस और मनोहर उदाहरण संस्कृत के सारे लक्षणों से चुनकर इक_ा करें तो भी उनकी इतनी अधिक संख्या न होगी.’
बिहारी के काव्य के आधार पर मुक्तक को चुना हुआ गुलदस्ता तथा कवि के गुण के आधार पर काव्य की प्रशंसा का सूत्र शुक्ल ही प्रस्तुत करते है. आवश्यकता है अपनी कसौटियों के विस्तार की और बने बनाए चश्मे से बाहर निकलकर देखने की.
मतिराम स्वकीया नायिका के चित्र प्रस्तुत करते हुए अत्यंत स्वाभाविक चित्र प्रस्तुत करते हैं जहाँ स्त्री के मन में विवाह के कुछ समय पश्चात पति के साथ रहने की इच्छा है पर पति को बाहर जाना है और पत्नी यह बात खुल कर नहीं कह सकती, उसकी भी मान और प्रतिष्ठा का प्रश्न है, ऐसे में भी आँसू नहीं रोक पाती पर पूछने पर बहाना यही है कि…
सोवत न रैन दिन रोवत रहति बाल, बूझे तै कहति मायके की सुधि आई है. (मतिराम ग्रंथावली) स्वाभाविक जीवन के स्वाभाविक इन चित्रों को भी खारिज करना चाहे तो कर दीजिए पर फेसबुक के उस चरित्र का क्या करेंगे जहाँ ऐसे चित्र अधिकाँश पढ़ी-लिखी लड़कियाँ प्रस्तुत कर रही हैं और मित्र मंडली उसे लाइक कर रही है? हर युग में यह अन्तद्र्वन्द्व भी है और उसके प्रति सामाजिक स्वीकार और विरोध भी! ऐसे में रीतिकाल के प्रति ही यह अनुदारता क्यों?
दरबारी काव्य होने के कारण इस काव्य की कुछ सीमाएं अवश्य हैं और रीतिकालीन काव्य पर विचार करने वाले विद्वानों को उसे स्वीकार करने में गुरेज नहीं होना चाहिए पर वहीं आधुनिक विचारकों को भी अपनी नैतिक मान्यताओं के विस्तार की भी आवश्यकता है। समय के बदलाव के साथ हमारी नैतिक मान्यताओं में भी बदलाव आया है। वस्त्रों से लेकर दृष्टि ने भी नैतिक प्रतिमानों को विस्तृत किया है।
एक समय में फिल्मों में आने मात्र के नाम से जिस स्त्री समाज को अनेक लांछनों का सामना करना पड़ा था आज उस फि़ल्मी संसार में अपने बच्चों को भेजने की दौड़ यह साबित करती है कि हमने अपने दायरों का विस्तार किया है ऐसे में किसी भी काल को बनी बनाई दृष्टि से कैसे परखा जा सकता है?
घनानंद के काव्य को अक्सर सुजान प्रेम के आधार पर याद किया जाया है पर उनके काव्य में एक चित्र आज के समय के अनुरूप अथवा उससे भी आगे हैं जिनकी चर्चा यहाँ की जा रही है, जगत में जोति एक कीरति की होति है पै, राधिका तो कीरति के कुल को प्रकास है. यह पंक्ति तो आधुनिक काल में भी कहीं नहीं दिखाई देती कि बेटी को कुल का प्रकाश माना गया हो! यहाँ मैं घनानन्द के विरह काव्य अथवा सुजान के प्रति उनकी स्वच्छंद प्रेम काव्य प्रस्तावना का उल्लेख नहीं करूँगी क्योंकि उन पर अनेक स्थानों पर चर्चा हो चुकी है. प्रेम को लेकर सूधो सनेह को मार्ग पर भी विद्वान एकमत है और स्वच्छंद काव्य धारा को पर्याप्त स्थान दे चुके है। भूषण के काव्य की वीर भावना को भी पर्याप्त स्वीकार कर लिया गया है पर यहाँ रीतिकालीन उन कवियों की ही चर्चा प्रमुख है जिन्हें श्लील-अश्लील के भीतर रखकर प्राय: अस्वीकृत किया जाता है.
इस दृष्टि से मतिराम के काव्य में सामान्य नायिका का लक्षण देखा जा सकता है-धन दे जाके संग में रमें पुरुष सब कोई, ग्रंथन को मत देखि के गणिका जानहुं सोई (रसराज, छंद-94) यह लक्षण तो सामान्य ही है परन्तु महत्वपूर्ण यह है कि इस काल में गणिका को भी नायिका के रूप में देखने का प्रयास किया गया है. मतिराम के इस छंद में ‘बारबिलासिनी कौ बिसरें न बिदेस गयो पिय प्रान पियारों (रसराज 120)
महादेवी वर्मा लिखती हैं, ‘इन स्त्रियों ने जिन्हें समाज पतित के नाम से संबोधित करता आ रहा है, पुरुष की वासना की वेदी पर कैसा घोरतम बलिदान दिया है, इस पर किसी ने कभी विचार नहीं किया…..पुरुष की कभी न बुझने वाली वासनाग्नि में हँसते-हँसते अपने जीवन को तिल-तिल जलाने वाली इन रमणियों को मनुष्य जाति ने कभी दो बूँद आँसू पाने का भी अधिकारी नहीं समझा….चाहे कभी किसी स्वर्ण युग में बुद्ध से अम्बपाली को करुणा की भीख मिल गई हो ..पर साधारणत: ऐसी स्त्रियों को समाज से असीम घृणा और तिरस्कार ही प्राप्त हुआ.’’ रीतिकाल का कवि इन स्त्रियों की पीड़ा के कुछ चित्र भी प्रस्तुत कर सका, इस पर नाक-भौं सिकोडऩे से बेहतर होगा कि उस समय के इस अनुभव का विस्तार किया जाए.
आज के विमर्शवादी युग में पति की रक्षा हेतु अनेक बार समाज के समक्ष किसी भी दोष के लिए स्त्री द्वारा स्वयं को दोषी दिखाने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है. ऐसे में उस युग में भी इस पातिव्रत्य को निभाने के लिए स्त्री यदि बांझपन का दोष स्वयं पर ले रही है, तो आश्चर्य क्या? इसकी मार्मिकता की पहचान के लिए इन कवियों की प्रशंसा की जानी चाहिए.
गुरुजन दूजे ब्याह को प्रतिदिन कहत रिसाई,
पति की पत राखै बहू आपनु बाँझ कहाई.
(सतसई, छंद 9)
कितना सत्य और मार्मिक चित्र है एक स्त्री की दशा का.
जहाँ तक यौवन के चित्र प्रस्तुत करने की बात है, कालिदास के ग्रंथों में पार्वती के सौंदर्य को यौवन से ही जोड़कर देखा गया है..’आरोöार्थ नवयौवनेन कामस्य सोपानमित्र प्रयुक्तं’ (कुमारसंभवम, छंद 39) अब जिस प्रवृत्ति को संस्कृत के कवि भी अपरिहार्य मान कर नायिका के लिए युवा स्त्री का चयन कर रहे थे, ऐसे में इन दरबार के कवियों का यह कहकर तिरस्कार करना कि इन्होंने युवा स्त्री को काव्य का आलंबन बनाया, इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है.
रीतिकालीन काव्य को किसी भी एक रेखीय प्रणाली के आधार पर मूल्यांकित करके सरल निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं पर मेरी प्रस्तावना यही है कि किसी भी काल की मूल्यांकन पद्धति चक्रीय होती है एक रेखीय नहीं. इस काल हेतु भी मूल्यांकन के लिए समग्रता से इस काव्य के पठन और आलोचना की आवश्यकता है. पूर्वग्रह से ग्रसित होकर इसे विशिष्टतम अथवा निकृष्टतम कहना सही नहीं बल्कि धैर्य और परिश्रम की जरूरत है। याद रखना होगा कि ठाकुर इसी काल में काव्य में अलंकारों की भरमार की भत्र्सना का साहस करते है, ‘सीख लीनो मीन मृग, खंजन कमल नैन….डेल सो बनाए आए मेलत सभा के बीच, लोगन कबित्त कीबो खेल करि जानो है. और देव के काव्य में वर्ण-जातिभेद पर तिरस्कार और भत्र्सना के उदाहरण मिलते हैं’।
वहीं भक्तिकाल में कबीर और तुलसी दोनों के महान काव्यों में भी स्त्री की भत्र्सना मिलती है…मूल्यांकन की पद्धति सरल नहीं ऐसे में शायद मैनेजर पाण्डेय का ही एक सूत्र इसे समझने की युक्ति प्रदान करता है- ‘समाज में मौजूद संरचना के ग्राम्शी ने दो आधार गिनाए हैं-लोकमत (कॉमन सेन्स) और साधुमत (गुड सेन्स).तुलसी ने एक और मत की चर्चा की है, ”वेदमत (शास्त्र मत)किसी समाज की संरचना को समझने के लिए इन मतों के अंत:संबंध पर विचार करना आवश्यक है.’ आवश्यक है कि इस काल को भी इतिहास, समाज और बुद्धिजनों के मतानुमत के साथ रखकर भी अपनी दृष्टि से समझा जाए और नई मान्यताएँ भी प्रस्तावित की जाएँ. इस काल की समझ को एक स्त्री के दृष्टिकोण से समझा जाना और देखा जाना चाहिए ताकि इस काल के प्रति भी नई दृष्टि विकसित की जा सके।