गौर से देखा जाए तो नीतीश कुमार खेल नरेंद्र मोदी वाला ही खेल रहे हैं, लेकिन कुछ ज्यादा सयानेपन से.
नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार में क्या अंतर है? यह सवाल किसी भी नीतीश प्रेमी को आहत कर सकता है. आखिर नरेंद्र मोदी पर जिस तरह गुजरात दंगों के दाग हैं, उस तरह का कोई दाग नीतीश कुमार पर नहीं लगा है. नरेंद्र मोदी के विरुद्ध सामाजिक संगठनों, संवैधानिक संस्थाओं और अदालतों तक की जैसी और जितनी टिप्पणियां हैं, नीतीश कुमार को अभी तक वैसी टिप्पणियों का सामना नहीं करना पड़ा है. नरेंद्र मोदी के गुजरात में अल्पसंख्यक मारे गए हैं, नीतीश कुमार के बिहार में अल्पसंख्यक विकास के नए एजेंडे का हिस्सा हैं. नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक हैं तो नीतीश कुमार समाजवादी.
इस सवाल को चाहें तो पलट कर भी पूछ सकते हैं- नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी में क्या समानताएं हैं? दोनों पिछले कई वर्षों से- कम से कम 15 वर्षों से- एक ही राजनीतिक गठबंधन एनडीए को मजबूत करते रहे हैं और उसके महत्वपूर्ण स्तंभ रहे हैं. नरेंद्र मोदी अपने लिए गुजरात के विकास पुरुष की छवि चाहते हैं तो नीतीश कुमार बिहार के विकास पुरुष की. अब तो नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार, दोनों एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी हैं. ना ना करते नीतीश कुमार ने अपने पत्ते खोल भी दिए हैं- एनडीए से मांग की है कि वह जल्दी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा करे और ऐसे किसी व्यक्ति को उम्मीदवार बनाए जो धर्मनिरपेक्ष हो और सभी समूहों को स्वीकार्य हो.
ऐसा व्यक्ति एनडीए कहां से लाएगा? बीजेपी के भीतर उसकी यह तलाश पूरी नहीं होनी है. इस कसौटी पर शिवसेना और अकाली दल जैसे सहयोगी भी नहीं उतरते. ले-देकर एक नीतीश कुमार का नाम बचता है- यानी एनडीए या तो उनका नाम प्रस्तावित करे या फिर वे अलग से अपनी राजनीतिक बिसात बिछाएंगे.फिलहाल नीतीश कुमार सिर्फ यह इशारा कर रहे हैं कि 2014 के चुनावों की कमान नरेंद्र मोदी को दी गई तो वे एनडीए से अलग हो जाएंगे. जेडीयू के भीतर उनका समर्थक खेमा यहां तक कह रहा है कि अगर 2002 में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को बाहर कर दिया होता तो 2004 में एनडीए की यह हालत नहीं होती.
बेशक, नरेंद्र मोदी को 2002 में बाहर कर दिया जाना चाहिए था- इसलिए नहीं कि उनके चलते चुनावों के नतीजों में फर्क पड़ा, बल्कि इसलिए कि वे भारतीय लोकतंत्र के एक बड़े अपराधी हैं. उन्होंने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा मुहैया न कराके, मुख्यमंत्री के पद को कलुषित किया है. लेकिन जेडीयू का तर्क यह है कि उनकी वजह से एनडीए 2004 का चुनाव हारा. यानी क्या अगर 2004 में एनडीए जीत जाता- जैसे गुजरात में मोदी जीतते गए- तो क्या जेडीयू इस फैसले का समर्थन करती?
नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी में अगर कोई अंतर है तो नीतीश ही इस अंतर को सबसे पहले मिटाते नजर आ रहे हैं
दरअसल जेडीयू ने अभी तक इस फैसले का समर्थन ही किया था. वरना अगर बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को बाहर नहीं किया तो नीतीश कुमार एनडीए में क्यों बने रहे? दस साल पुराना अपराध उन्हें अचानक अब क्यों सालने लगा है? क्या सिर्फ इसलिए कि अब जेडीयू को भान हुआ है कि नरेंद्र मोदी को साथ रखने का सौदा नुकसानदेह साबित हुआ? या उसे यह लग रहा है कि नरेंद्र मोदी के साथ रहने के नहीं, उनके साथ दिखने के नुकसान कहीं ज़्यादा हैं? आखिर नीतीश कुमार कुछ साल पहले मोदी के साथ अपनी एक तस्वीर के इस्तेमाल पर जिस तरह बौखलाए थे, उसका तो संदेश बस यही था कि मोदी साथ भले रहें, लेकिन नजर न आएं.
दरअसल नीतीश कुमार खेल नरेंद्र मोदी वाला ही खेल रहे हैं, लेकिन कुछ ज़्यादा सयानेपन से. जिस तरह नरेंद्र मोदी गुजरात के सामाजिक अन्याय के सवाल को गुजरात के विकास के नारे से कुचल डालते हैं, कुछ उसी तरह नीतीश कुमार भी बिहार के विकास की बात करते हुए बिहार के सामाजिक टकरावों से जुड़े सवालों की अनदेखी करते हैं. यही नहीं, 2002 में मारे गए अल्पसंख्यकों के इंसाफ के साथ जो रवैया नरेंद्र मोदी का रहा है, वही 1996 में बथानी टोला में मारे गए दलितों के इंसाफ के साथ नीतीश कुमार का रहा है. बथानी टोला के इंसाफ के सवाल से बिहार सरकार कई स्तरों पर आंख चुराती रही. पटना उच्च न्यायालय से आए फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने में भी सरकार को तीन महीने लग गए. बीच में इस हत्याकांड के मुख्य आरोपित ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या हो गई तो पटना में मुखिया समर्थकों को उपद्रव मचाने की ठीक वैसी ही खुली छूट दी गई जैसी 2002 में नरेंद्र मोदी ने अपने यहां के दंगाइयों को दी थी. जाहिर है, अपने राज्य में न्याय को लेकर जो संवेदनशीलता किसी मुख्यमंत्री में होनी चाहिए, वह कम से कम इस मामले में नीतीश कुमार नहीं दिखा रहे.
दरअसल नीतीश कुमार कहने को अतिपिछड़ों, अल्पसंख्यकों और महादलितों को लेकर एक समावेशी राजनीति साध रहे हैं, लेकिन उनकी अपनी सरकार के ढेर सारे मंत्री उसी सामंती पृष्ठभूमि और मानसिकता के हैं जिनसे रणवीर सेनाएं बनती हैं और सामाजिक न्याय की बुनियाद पर प्रहार करती हैं. अगर नीतीश ऐसे तत्वों को बढ़ावा देते हैं तो वाकई इस लेख के शुरू में उठाया गया यह सवाल जायज हो जाता है- कि नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी में आखिर क्या अंतर है? अगर कोई अंतर है- जो इन पंक्तियों के लेखक को भी लगता है कि है- तो नीतीश कुमार ही इस अंतर को सबसे पहले मिटाते दिख रहे हैं. बिहार के विकास का सवाल वैध है, लेकिन नीतीश जैसे समाजवादी को याद रखना चाहिए कि वह सड़कें बना देने और शहरों में रात के पहरे बिठा देने भर से पूरा नहीं होगा, उसके लिए भूमि सुधार से लेकर खेती-बाड़ी और उद्योग-धंधे तक दुरुस्त करने होंगे.
नीतीश ठीक कहते हैं कि बिहार के विकास की चुनौती गुजरात के विकास से कहीं ज्यादा बड़ी है. लेकिन बिहार की उद्यमिता और प्रतिभा को देखते हुए यह नामुमकिन नहीं है, बशर्ते विकास के सवाल को महज राजनीति के सवाल में न बदल दिया जाए.