नीतीश के पाँव क्या अब लालू के जूते में?

सबका साथ, सबका विकास का नारा देने वाले दूरदर्शी राजनीतिक नीतीश कुमार कई सवालों से घिरते नजर आ रहे हैं। पिछले कुछ दिनों वे जाति के नाम पर बने संघठनों के कार्यक्रमों को तरजीह देने लगे हैं। सामने लोकसभा चुनाव है। उसमें अपनी ताकत का प्रदर्शन करने में कामयाब नहीं हुए तो लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव में उनका संकट कम नहीं होगा। ताकतवर होने के लिए क्या वे विकास की बजाय जाति आधारित रणनीति अख्तियार कर रहे हैं? क्या वे लालू प्रसाद की राह पर चल कर अपना मकसद पूरा करना चाहते हैं? इन्हीं सवालों के चलते उनकी पार्टी के युवकों की सभा में एक युवक ने उनकी ओर चप्पल भी उछाला और जातिवादी होने का आरोप लगाते हुए दावा किया कि  वे किसके बल पर सत्ता में बने हुए हैं?

नीतीश कुमार ने जब कुशवाहा जाति के संगठनों के कार्यक्रमों के प्रति रुचि दिखाना शुरू किया तभी से उन पर जाति की राजनीति का सहारा लेने का अंदेशा होने लगा है। उसके पहले से महादलित के कार्यक्रम को लेकर उन पर जाति की राजनीति करने का आरोप लग ही रहा है। लेकिन कुशवाहा जाति के संगठनों की उनकी करीबी से उनके विरोधी मुखर हो गए हैं। पिछड़े वर्ग में यादव की सबसे ज्यादा आबादी है उसके बाद कुशवाहा की आबादी है। कुर्मी पिछड़े वर्ग में ताकतवर माने जाते हेैं लेकिन आबादी मामूली हेै। यादव 15-16 फीसद है, तो कुशवाहा 9-10 फीसदी हैं। कुर्मी दो-तीन फीसदी से ज्यादा नहीं है। महादलित की संख्या कुशवाहा के कुछ ज्यादा है। नीतीश कुमार 1980 के बाद कुशवाहा जाति की वजह से राजनीति में ताकतवर हुए थे। उस समय कुशवाहा समुदाय के जिन नेताओं ने उन्हें ताकतवर बनाने में साथ दिया था, वे आज उनसे अलग है और उनके लिए चुनौती भी हैं।

पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद एक साथ थे। चुनाव में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए नीतीश कुमार ने सूबे में विकास का नारा दिया था लेकिन उनके इस नारे से अलग लालू प्रसाद ने जाति की राजनीति के आधार पर यादवों को एकजुट किया ही, अपने पुराने रणनीति मुस्लिम-यादव समीकरण को दोहराया। लालू प्रसाद की रणनीति का अच्छा नतीजा निकला और नीतीश कुमार को भी उसका फायदा हुआ। उसी समय यह भी साफ हो गया कि जाति की राजनीति विकास की राजनीति की चुलना में उन्नीस नहीं है।

नीतीश कुमार 2005 में लालू प्रसाद को पछाड़ कर सत्ता में आए थे। उस समय सूबे मे लालू प्रसाद की पार्टी की सरकार थी। उनकी पार्टी केंद्र में भी कांग्रेस के साथ सत्ता में थी। नीतीश कुमार न्याय और विकास के नारे पर भाजपा के साथ सूबे में सत्ता में आए थे। लालू प्रसाद के साथ के समय को छोड़ दें तो वे लगातार भाजपा के साथ ही ज्यादा समय तक सत्ता में रहे और उन्होंने लालू प्रसाद से अलग अपनी छवि पिछड़े नेता की नहीं बल्कि अगड़ों के नेता के रूप में बनाई। उन्होंने लगातार सामाजिक समरसता और सबका साथ, सबका विकास की बात की। उन्होंने जाति की राजनीति नहीं की, ऐसी बात भी नहीं है। उन्होंने चुपचाप और सरलता-सहजता से जाति की ऐसी राजनीति की जिससे उनकी अगड़ों के नेता वाली छवि पर आंच न आ सके।

राजद को 2005 में सत्ता से बाहर करने के बाद उन्होंने पिछड़े वर्ग में अति पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में गोलबंद किया। राजद के खिलाफ रामविलास पासवान ने अति पिछड़ो को गोलबंद करना शुरू किया था। और उनको इसका फायदा भी हुआ था। लेकिन बाद में नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों की राजनीति में पासवान को पीछे छोड़ दिया। उन्होंने कुशवाहा-कुर्मी के नेताओं को आगे बढ़ावा देने के साथ अति पिछड़ो को हिस्सेदारी देने पर जोर दिया। सामाजिक न्याय धारा की पार्टी होते हुए भी राजद नीतीश कुमार की शिकार हो गई। नीतीश कुमार की पार्टी जद (एकी) भी सामाजिक न्याया धारी की पार्टी है। नीतीश कुमार ने सामाजिक न्याय धारी की रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी को भी महादलित की राजनीति से अपना शिकार बनाया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि दलितो में कुछ जातियों को छोड़ कर बाकी जातियां सबसे ज्यादा उपेक्षित हैं। दलितों के दिए जाने वाले फायदे उन्हें ज्यादा से ज्यादा मिले। रामविलास पासवान को काफी राजनीतिक नुकसान हुआ क्योकि उनकी जाति पर ज्यादा ज्यादा फायदा पाने का आरोप मढ़ा गया।

जानकारों का कहना है कि जाति वोट की राजनीति के मद्देनजर नीतीश कुमार पिछडे वर्ग में कुशवाहा को ज्यादा आगे बढ़ा कर यादव के मुकाबले ला खड़ा करना चाहते हैं। यादव की काट कुशवाहा के साथ कुर्मी ही है। अति पिछड़ी जातियों और दलितों का साथ उन्हें ज्यादा से ज्यादा ताककवर बना सकता है। पिछड़े वर्ग की तुलना में अति पिछड़ों का वोट ज्यादा है। अति पिछड़े और दलित के वोट अगड़ों के वोट की तुलना में बहुत ज्यादा हैं।

जानकार बताते हैें कि नीतीश कुमार की दूर की सोचते हैें। लोकसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा और रामविलास पासवान की दोस्ती नीतीश कुमार के लिए केवल फायदेमंद ही नहीं होगा, जाति समीकरण का नक्शा भी बदल सकता है। नीतीश कुमार चाहते भी हैं कि उन्हें किसी पर निभज़्र न रहना पड़े। लालू प्रसाद 1990 में जब सूबे में सत्ता में आए थे, तब उन्होने पिछड़े वर्ग को सिरे से सवर्णों के खिलाफ संगठित किया। बाद में उन्होंने उसमें मुस्लिम समुदाय को जोड़ लिया। इसमें उन्हें कामयाबी मिली और इसी के बल पर 15 साल सत्ता में बने रहे। लेकिन जब अति पिछड़े उनसे छिटक गए और दलितों की नाराजगी बढ़ी तब उन्हें काफी नुकसान हुआ। जानकार बताते हैं कि नीतीश कुमार अति पिछड़ों और दलितों को दूर नहीं होने देंगे। उन्हें कुर्मी और कुशवाहा से जोड़ कर लालू यादव की बनी जाति समीकरण के सामानांतर अपनी अलग जाति समीकरण बना लालू प्रसाद को जबाव देंगे ही, भाजपा को भी शरणापन्न बनाए रखेंगे। विकास का नारा से फायदा होता है, तो हो लेकिन जाति समीकरण से फायदा की गारंटी है।