न्यूज चैनल ही निर्मल बाबा के फर्जी कारोबार को बढ़ाने में लगे हुए हैं
कहते हैं कि भक्ति में बहुत शक्ति है. लेकिन भक्ति से ज्यादा शक्ति बाबाओं, बापूओं, स्वामियों में है. विश्वास न हो तो चैनलों को देखिये, जहां भक्ति से ज्यादा बाबा, बापू, स्वामी छाए हुए हैं. आधा दर्जन से अधिक धार्मिक चैनलों पर चौबीसों घंटे इनका अहर्निश प्रवचन और उससे अधिक उनकी लीलाएं चलती रहती हैं. लेकिन इन बाबाओं का साम्राज्य सिर्फ धार्मिक चैनलों तक सीमित नहीं है. मनोरंजन चैनलों से लेकर न्यूज चैनलों तक पर भी सुबह की कल्पना उनके बिना संभव नहीं है.
नए दौर के इन साधुओं की सबसे बड़ी खासियत यह है कि धर्म और ईश्वर भक्ति से उनका बहुत कम लेना-देना है. वे भक्तों को ईश्वर भक्ति की सही राह दिखाने से ज्यादा उनकी समस्याओं का हल बताने में दिलचस्पी लेते हैं. वे लाइलाज बीमारियों की दवाइयां बेचते हैं. यही नहीं, उनमें से कई शनिवार को काली बिल्ली को पीला दूध और काले तिल के सफेद लड्डू जैसे टोटकों से विघ्नों को साधने के रास्ते सुझाते हैं. ये नए जमाने के बाबा हैं जिन्हें चैनलों ने बनाया और चढ़ाया है, और अब वे चैनलों को बना-चढ़ा रहे हैं.
इन्हीं में से एक निर्मल बाबा आजकल सुर्खियों में हैं. कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदी के अधिकांश न्यूज चैनलों पर वे छाए हुए हैं. हिंदी न्यूज चैनलों पर उनका प्रायोजित कार्यक्रम थर्ड आई ऑफ निर्मल बाबा इन दिनों सबसे हिट कार्यक्रमों में से है. रिपोर्टों के मुताबिक, यह कार्यक्रम हिंदी न्यूज चैनलों के टॉप 50 कार्यक्रमों की सूची में ऊपर से लेकर नीचे तक छाया हुआ है. कहने की जरूरत नहीं है कि उनके कार्यक्रम की ऊंची टीआरपी और बदले में बाबा से मिलने वाले मोटे पैसों के कारण इन दिनों चैनलों में निर्मल बाबा की तीसरी आंख दिखाने की होड़-सी लगी हुई है.
बाबा का कारोबार न्यूज चैनलों पर फैल चुका है. ऐसा लगता है कि चैनलों ने बाबा की तीसरी आंख के चक्कर में अपनी आंखें बंद कर ली हैं
लेकिन एक सच यह भी है कि देश को निर्मल बाबा और उनकी तीसरी आंख देने का बड़ा श्रेय चैनलों को जाता है. हालांकि चैनलों ने देश को पहले भी कई बापू-स्वामी दिए हैं लेकिन निर्मल बाबा शायद पहले ऐसे बाबा हैं जिनका पूरा कारोबार चैनलों के आशीर्वाद से फला-फूला है. उनसे पहले इंडिया टीवी और कुछ और चैनलों के सहयोग से दाती महाराज उर्फ शनिचर बाबा ने खासी लोकप्रियता और दान-दक्षिणा बटोरा था. वैसे चैनलों की मदद से कारोबार चमकाने वाले बाबाओं, स्वामियों में स्वामी रामदेव का कोई जवाब नहीं है.
इसके बावजूद मानना होगा कि रामदेव कम से कम योग पर मेहनत करते हैं. लेकिन निर्मल बाबा को अपना शरीर भी बहुत हिलाना-डुलाना नहीं पड़ता है. वे हर मायने में ‘अद्भुत’ और अनोखे हैं. वे मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के नए ‘एगोनी आंट’ या ‘संकटमोचक’ हैं जिसके पास शादी न होने से लेकर नौकरी न मिलने और कारोबार न चलने से लेकर पति के दूसरी महिला के चक्कर में फंसने जैसे आम मध्यमवर्गीय समस्याओं का बहुत आसान और शर्तिया इलाज है. यह इलाज बटन धीरे-धीरे खोलने से लेकर दायें के बजाय बाएं हाथ से पानी पीने और दस की बजाय बीस रुपये का भोग चढाने तक कुछ भी हो सकता है.
असल में, निर्मल बाबा के इलाज बहुत आसान, सस्ते और दिलचस्प हैं. इन टोटकों पर अमल करने में किसी ऐब या आदत को छोड़ना नहीं पड़ता और समस्या के हल होने की ‘उम्मीद’ बनी रहती है. ये नए किस्म के अंधविश्वास हैं. बाबा चैनलों की ‘साख’ का सहारा लेकर उन्हें आसानी से भक्तों के गले में उतार देते हैं. नतीजा, बाबा के निर्मल दरबार में भक्तों की भीड़ लगी हुई है.
बाबा के इन शंका समाधान शिविरों में प्रवेश के लिए दो हजार रुपये देने पड़ते हैं. कहा जा रहा है कि इसी के दम से बाबा करोड़पति हो गए हैं. हालांकि पैसा देकर आने वाले इन दुखियारों में से बहुत कम को ही सवाल पूछने का मौका मिल पाता है क्योंकि आरोप हैं कि ज्यादातर सवाल पूछने वाले बाबा के ही चेले और यहां तक कि मासिक तनख्वाह पर काम करने वाले टीवी के जूनियर आर्टिस्ट होते हैं. बाबा की दुकान सजाने में इनकी बहुत बड़ी भूमिका है.
बाबा का कारोबार एक चैनल से शुरू होकर अनेक चैनलों पर पहुंच चुका है. लेकिन ऐसा लगता है कि चैनलों ने बाबा की तीसरी आंख के चक्कर में अपनी आंखें बंद कर ली हैं. उन्हें बाबा की दिन-दहाड़े की ठगी नहीं दिख रही है. चैनल अंधविश्वासों को मजबूत कर रहे हैं. यह ठीक है कि निर्मल बाबा का यह कार्यक्रम प्रायोजित या एक तरह का विज्ञापन कार्यक्रम है. लेकिन क्या प्रायोजित कार्यक्रमों की कोई आचार संहिता नहीं होती है?
क्या यह ड्रग ऐंड मैजिकल रिमेडीज (ऑब्जेक्शनल ऐडवर्टीजमेंट) कानून के उल्लंघन का मामला नहीं है? आखिर बाबा मैजिकल रिमेडीज नहीं तो और क्या बेचते हैं? आखिर चैनलों की आंख सरकार के डंडे के बिना क्यों नहीं खुलती है? सबसे अफसोस की बात यह है कि यह कार्यक्रम देश के कुछ प्रतिष्ठित न्यूज चैनलों पर चल रहा है जो स्व-नियमन के सबसे अधिक दावे करते हैं. अच्छी बात यह है कि एक बार फिर सोशल और न्यू मीडिया में इस मुद्दे पर चैनलों की खूब थू-थू हो रही है. देखें, चैनलों के ‘ज्ञान चक्षु’ कब खुलते हैं?