यह कहानी मध्य प्रदेश के कुछ ऐसे गांवों की है जिनके रहवासी युद्ध के शरणार्थियों से भी बदतर जीवन जीने को अभिशप्त हैं. हम बात कर रहे हैं प्रदेश के आदिवासी बहुल जिले अलीराजपुर की. देश के विकास के लिए इन गांवों के लोगों की जिंदगी कुछ टापुओं तक सीमित कर दी गई. ऐसे टापू जो सिर्फ पानी से नहीं बल्कि भूख, कुपोषण और बुनियादी सुविधाओं के अभाव जैसी समस्याओं से भी घिरे हैं.
अलीराजपुर जिले से जो सड़क सोंडवा होते हुए ककराना जाती है उसके दोनों तरफ ऊंचे पहाड़ और उन पर बिखरी हरियाली अपने सौंदर्य से आपकी आंखों और मन को कुछ ऐसे तरबतर कर देती हैं कि आप यहां पहुंचने तक की सारी पीड़ा भूलने की कोशिश करने लगते हैं. जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे पक्की सड़क और मोबाइल सिग्नल का साथ आपसे छूटता जाता है. सड़क पर आपको इक्का दुक्का गाड़िया ही रेंगती हुई दिखाई देती हैं जो यह बताती हैं कि न यहां कोई जल्दी आता है और न ही यहां से बाहर जाता है. गाड़ी आपको ककराना के अंतिम छोर पर नर्मदा के मुहाने पर लाकर छोड़ देती है. यहां पहाड़ों के बीच नर्मदा इतने विस्तारित रूप में है कि आंखें इस तथ्य को आसानी से स्वीकार नहीं कर पातीं कि पहाड़ों की इन गुफाओं के पीछे भी कुछ लोग रहते हैं. वे जिनके लिए पहाड़ ही उनकी धरती है. वे लोग जो इसी देश के नागरिक हैं लेकिन विकास की आंधी ने जिन्हें एक कल्याणकारी राज्य में अनाथों की तरह छोड़ दिया है. जहां उनके लिए जीवनयापन ही युद्ध लड़ने से दुरूह काम जान पड़ता है. ये ऐसे इलाके हैं जिन्हें सिर्फ सरकारी कागजात के आधार पर भारतीय गणराज्य और मध्य प्रदेश का हिस्सा माना जा सकता है.
अलीराजपुर के ये इलाके उन लोगों के घर हैं जिन्हें सरदार सरोवर बांध के कारण विस्थापित होना पड़ा था. विभिन्न कारणों से विवादों की परियोजना बन चुके इस बांध से मध्य प्रदेश के 193 गांव प्रभावित हुए. इनमें से 26 गांव अलीराजपुर जिले के हैं. इन्हीं 26 गांवों में से 15 ऐसे हैं जो चारों तरफ से पानी और पहाड़ों से घिरे हैं. आज जहां आज पानी ही पानी दिखाई देता है वहां कभी इनके लहलहाते खेत हुआ करते थे.ककराना के नर्मदा किनारे से इन गांवों तक जाने का एकमात्र साधन प्राइवेट नावें ही हैं. वे भी जल्दी उपलब्ध नहीं हो पातीं. हम तीन घंटे इंतजार करते हैं तब जाकर एक नाव का इंतजाम हो पाता है.
सुप्रीमकोर्ट के आयुक्तों की रिपोर्ट बताती है कि अंजनवाड़ा में 63 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं
रास्ते में नाव के चालक पुटिया कुछ हैरानी भरी नजरों से देखते हुए हमसे पूछते हैं, ‘ कहां से आए हैं? ‘ जवाब देने पर कहते है, ‘ यहां बाहर से जल्दी कोई नहीं आता. गांवों से भी इलाज आदि इमरजेंसी के लिए ही लोग बाहर जाते हैं.’ रास्ते में नदी के दोनों तरफ पहाड़ों पर झोपड़ियां दिखती हंै. पहाड़ों की ऊंचाई पर इक्के-दुक्के लोग भी. घुमावदार रास्ते और दो घंटे के सफर के बाद हम डूबखेड़ा गांव पहुंचते हैं. यहां पहुंचकर ऐसा लगता है मानों आप किसी दूसरी दुनिया में आ गए हों. जमीन से 100 मीटर की ऊंचाई पर बसे इस गांव में कुल 22 घर हैं. एक घर से दूसरे घर के बीच की दूरी कम से कम एक किमी है. एक घर यहां है तो दूसरा पहाड़ के दूसरे छोर पर. यह दूरी भी ऐसी कि जिसे तय करने में आपको दस किमी पैदल चलने वाली थकान होने लगे. गांव में प्रवेश करते ही लोगों की नजरें कुछ इस कदर आपको आशा भरी नज़रों से देखती हैं कि शायद सरकारी मुलाजिम होंगे, कोई राहत लेकर आए होंगे. आसपास खेलते बच्चे भी अपनी इस दुनिया में कुछ नये लोगों को देखकर चौंकते हैं. लेकिन यह पता चलते ही कि हम कोई सरकारी कर्मचारी नहीं हैं और कोई राहत लेकर नहीं आए हैं, लोगों के चेहरे पर पूर्व जैसी भावशून्यता पसर जाती है. लोगों से बातचीत करने के बाद हम दूसरे गांव के लिए निकल जाते हैं.
हर गांव में लोगों का एक जैसा ही हाल है. इन गांवों के लोगों के जीवन को करीब से देखने के बाद उनके वर्तमान और भविष्य की एक बेहद अमानवीय और त्रासद तस्वीर हमारे सामने उभरती है.
डूबती जिंदगी की सहारा बस एक नाव
डूबखेड़ा सहित इन 15 गांवों को जो समस्या प्रदेश के डूब प्रभावित बाकी अन्य गांवों से अलग करती है वह है इनका चारों तरफ पानी से घिरा होना. यानी इन गांवों में आने और जाने का एकमात्र साधन नाव है. जब आपको यह पता चल गया कि नाव ही यहां परिवहन का एकमात्र जरिया हो सकता है तो मन में स्वाभाविक सवाल उठता है कि प्रशासन ने इसके लिए क्या व्यवस्था की है. पानी से घिरे इन गांवों में परिवहन की जमीनी हकीकत काफी चौंकाने वाली है.
प्रशासन की तरफ से इन लोगों के लिए सार्वजनिक परिवहन की कोई व्यवस्था नहीं की गई है. हां, सिर्फ मानसून के दौरान नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण बाढ़ राहत के नाम पर कुछ नावें किराए पर लेता है. इस संबंध में स्थानीय लोग बताते हैं कि डूब प्रभावित जिलों में बाढ़ राहत के नाम पर सालाना लाखों रुपये खर्च किए जाते हैं. जिला प्रशासन भी नावें किराए पर लेता है लेकिन इनसे राहत का कोई काम नहीं किया जाता. इन नावों का दुरुपयोग शराब और राशन के अनाज की तस्करी तथा जंगल से लकड़ियों की अवैध कटाई और ढुलाई में किया जाता है. या फिर ये प्राधिकरण के अधिकारियों को ही ढोने का काम करती हैं.
नर्मदा विकास प्राधिकरण की नावें यहां सिर्फ प्राधिकरण के अधिकारियों को लाने ले जाने का काम करती हैं
साल के बाकी दिनों में यहां आम नागरिकों के लिए कोई नाव नहीं है. जो इक्का-दुक्का नावें चलती हैं वे प्राइवेट हैं. जिनका किराया इतना ज्यादा होता है कि इन गांववालों के लिए उसे वहन कर पाना असंभव जैसा है. अंजनवाडा के बुधिया बताते हैं, ‘ एक बार ककराना जाने आने में ही 100 से 150 रुपये खर्च हो जाते हैं. यहां गांव में लोगों के पास रोजगार नहीं है. हम दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. कैसे इतना किराया चुकाएं?’ गांव के लोग बहुत मजबूरी में ही प्राइवेट नाव से आना-जाना करते हैं. मुलिया कहते हैं, ‘अगर हम सोचें कि शहर जाकर दिहाड़ी मजदूरी कर आएं तो वह भी नहीं कर सकते क्योंकि जितनी मजदूरी मिलेगी उससे ज्यादा पैसा तो नाव वाला ले लेगा.’
डूबखेड़ा के भनिया बताते हैं, ‘ इन सभी गांवों के लोग केवल शनिवार को बाहर जाते हैं. शनिवार को बाजार लगता है. उसी दिन हर घर से एक-एक आदमी घर की जरूरत का सामान लेने बाजार जाता है क्योंकि फिर हम एक हफ्ते तक बाजार नहीं जा पाते.’
स्थानीय लोगों का कहना है कि वे प्रशासन से कई बार प्रशासन से कम से कम एक नाव की व्यवस्था करवाने के लिए अर्जी दे चुके हैं. लेकिन आज तक उनकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. यहां एनवीडीए (नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण) की कुछ नावें हैं भी लेकिन लोग बताते हैं कि वे सिर्फ प्राधिकरण के अधिकारियों को लाने ले जाने का काम करती हैं.
जीवनयापन भी एक चुनौती है
डूब से पहले इन 15 गांवों के लोगों के पास अपने खेत थे, जहां खूब फसलें होती थीं. जीवन इतना आत्मनिर्भर था कि इन्हें नमक और चीनी के अलावा बाजार से कोई और चीज खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती थी. डूबखेड़ा के भनिया कहते हैं, ‘ हमने पहले कभी अपनी किसी जरूरत के लिए सरकार का मुंह नहीं देखा. लेकिन बांध बनने के बाद तो हर चीज के लिए तरस गए हैं.’
ग्रामीणों को उनके घर के नजदीक ही रोजगार देने वाली मनरेगा का अस्तित्व भी यहां है. लेकिन इससे ग्रामीणों को अभी तक कोई फायदा नहीं मिला. भनिया कहते हैं, ‘ किसी ने बताया था कि अब सरकार सबको काम दे रही है (मनरेगा). हमने सोचा चलो अब तो हमें भी कोई काम मिल जाएगा. गांव के लोगों ने जाकर सचिव से काम की मांग की तो सचिव ने कहा कि अंजनवाडा आ जाओ. यहां से अंजनवाडा 12 किलोमीटर दूर है जहां नाव से ही जाया जा सकता है. वहां जाने में तो रोज के ही हमारे 100 रुपये खर्च हो जाते इसलिए हम वहां नहीं गए. सचिव से हमने यहीं नजदीक काम का इंतजाम करने को कहा तो उन्होंने मना कर दिया.’
जहां तक अंजनवाडा की बात है तो यहां 27 परिवारों के पास पिछली पंचवर्षीय योजना में जॉब कार्ड नहीं था. लोगों ने जॉब कार्ड बनवाने के लिए कई बार आवेदन किया पर उनके आवेदन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. इसके चलते ये परिवार भी अपने काम के अधिकार से वंचित रह गए. गांव में किसी के भी जॉब कार्ड पर एंट्री नहीं की गई है. इस दौरान हमें कई ऐसे उदाहरण भी मिले जहां लोगों को काम तो दिया गया लेकिन उन्हें उनकी मजदूरी नहीं मिली या कम मिली. अंजनवाडा में ही लोगों ने तालाब खुदाई का काम छह हफ्तों तक किया लेकिन आज तक किसी परिवार को मजदूरी नहीं मिली है. जबकि मनरेगा कानून के मुताबिक अगर उनकी मजदूरी 7 से 15 दिन के अंदर नहीं दी जाती है तो उन्हें मजदूरी के साथ मुआवजा भी दिया जाना चाहिए. कुछ ऐसी ही कहानी दूसरे गांवों की है. डूबखेड़ा गांव के लोगों ने 2010 में तालाब निर्माण में 26 दिन का काम किया था लेकिन उसकी मजदूरी उन्हें आज तक नहीं मिली. इन इलाकों में ऐसे एक नहीं बल्कि दसियों उदाहरण हैं जहां मनरेगा में मिला रोजगार इन लोगों के लिए एक बड़ा सहारा हो सकता था लेकिन प्रशासनिक उदासीनता ने यहां के लोगों को उनके इस संवैधानिक अधिकार से भी वंचित कर दिया.
लोगों के पास जब रोजगार नहीं है, आमदनी का दूसरा जरिया नहीं है तो ऐसे में सरकारी राशन की भूमिका अहम हो जाती है. लेकिन इस मोर्चे पर भी प्रशासन की असंवेदनशीलता सामने आती है. इन गांवों में घूमते हुए आप लोगों को देखकर उनके पोषण और स्वास्थ्य का अंदाजा बहुत अच्छी तरह लगा सकते हैं. सामने खेलते बच्चों के सीने की हड्डियां गिनने में आपको अपनी आंखों को बहुत तकलीफ देनी नहीं पड़ेगी. क्या बच्चे, बूढ़े और क्या महिलाएं सभी हड्डियों के ढांचे से ज्यादा कुछ नहीं दिखाई देंगे. और यह हालत तब है जब आपको इन गांवों में घूमते हुए कई जगह सरकारी राशन की दुकान के बोर्ड दिखाई देंगे. लेकिन जैसे पूरे देश में सफलता का ढिंढोरा पीटने वाली मनरेगा की हकीकत यहां दूसरी तरह से उजागर होती है वैसा ही हाल इन राशन की दुकानों का भी है. डूबखेड़ा के निवासी वकलिया बताते हैं, ‘ गांव में सिर्फ बोर्ड टंगा है लेकिन यहां से राशन नहीं मिलता. असल में राशन आएगा तब तो मिलेगा. यहां पिछले दो सालों से अनाज आया ही नहीं. सरकारी अधिकारी जब कभी भूले भटके अनाज लेकर आते हैं तो उसे नाव से उतारकर ऊपर नहीं लाते हैं. उसे बोट से ही बांटते हैं. नाव वहां केवल दो घंटे के लिए ही रुकती है. इन दो घंटों में जिसने राशन ले लिया उसने ले लिया बाकी लोग ऐसे ही बिना राशन के अगली बार बोट आने के इंतजार में रह जाते हैं.’ भनिया बताते हैं कि वे पिछली बार राशन नहीं ले पाए थे क्योंकि जिस समय बोट आई उनके पास पैसा ही नहीं था. इन गांवों में भनिया जैसे कई लोग हैं जो सिर्फ इस वजह से सरकारी अनाज नहीं ले पाते क्योंकि जब बोट आती है तब उनके पास पैसे नहीं होते. जलसिंधी गांव के महरिया कहते हैं, ‘ अगर सरकारी अनाज का रास्ता देखेंगे तो भूखों मर जाएंगे. इसीलिए मजबूरन इस पथरीली जमीन पर हाड़ तोड़कर कुछ मोटा अनाज उगाने की कोशिश करते हैं. इससे बस यह होता है कि भूखे मरने की नौबत नहीं आती.’
अंजनवाड़ा गांव के लोग कहते हैं पिछली बार उन्हें तीन महीने का एकमुश्त राशन दिया गया था. सरकारी हिसाब से हमें पूरे गांव के लिए तीन महीने का राशन बनता है 5615 किलो लेकिन उन्हें मिला 1700 किलो. गांव के प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 35 किलो महीने के हिसाब से राशन मिलना चाहिए लेकिन मिला केवल सात किलो राशन. गांव के दाजिया कहते हैं, ‘ न तो हमें उतना अनाज मिलता जितना सरकार ने खुद देने का वादा किया है और न ही यह तय होता है कि हमें राशन में क्या मिलेगा. आप इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि हमें चावल पिछली होली में देखने को मिला था.’
अंजनवाड़ा गांव के तकरीबन सारे लोगों को सरकार ने गरीब न मानते हुए एपीएल कार्ड दिया है
भोजन के अधिकार मामले में सुप्रीम कोर्ट आयुक्तों के राज्य सलाहकार सचिन जैन ने भी कोर्ट के आयुक्तों को सौंपी अपनी रिपोर्ट में इन गांवों में पोषण, स्वास्थ्य समेत अन्य बुनियादी मानवीय सुविधाओं तथा अधिकारों की भयावह तसवीर उजागर की है. रिपोर्ट के मुताबिक अंजनवाडा में जहां 63 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं. वहीं बाकी गांवों के लोगों के पास केवल आठ महीने के अनाज की ही उपलब्धता है शेष चार महीने इन्हें भूख के साथ जीना पड़ता है. इससे निपटने के लिए वे राबड़ी जैसे भोजन (आटे को ज्यादा पानी में घोलकर नमक मिलाकर बनाई गई सामग्री ) से पेट भरने की कोशिश करते हैं. ताकि शेष नौ माह के भोजन की व्यवस्था की जा सके.
गांवों में भयानक खद्यान्न संकट है. एक अन्य गांव भिताड़ा की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है. यहां गांव के सरपंच ने जाति प्रमाण पत्र बनवाने के नाम पर गांव के सभी परिवारों के राशन कार्ड पिछले दो माह से अपने पास रखे हैं. इस गांव में भी सरकारी राशन व्यवस्था का वही हाल है जो बाकी दूसरे गांवों में है. भले ही शासन से एपीएल और बीपीएल को राशन देने की राशि अलग अलग रखी हो लेकिन यहां सभी को एक दर पर राशन दिया जा रहा है. इसकी वजह पूछने पर सरपंच बताते हैं कि सरकारी अनाज को यहां तक लाने के लिए अलग से कोई रकम नहीं मिलती इसलिए इसकी ढुलाई के खर्च की भरपाई गांव के विकास के लिए मिली दूसरी रकम से की जाती है. सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक इस गांव में हमेशा समय से और पूरी मात्रा में अनाज दिया गया. गांव में 271 राशन कार्ड वाले लोग हैं. नियम के अनुसार इन्हें हर माह 94 क्विंटल अनाज मिलना चाहिए लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि इन्हें केवल सात क्विंटल अनाज मिल रहा है.
कुछ वक्त पहले तेंदुलकर कमिटी ने जब बताया कि देश में केवल 37 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं तो उसकी बात पर लोगों को विश्वास नहीं हुआ. लेकिन वह कमिटी बिलकुल सच कह रही थी. 37 फीसदी का आंकड़ा कैसे निकला होगा इसका जीता जागता उदाहरण आप अलीराजपुर में देख सकते हैं. जिस अंजनवाडा गांव के बार में हम बात कर रहे हैं उसके बारे में यह जानकर आप हैरान हुए बिना नहीं रहेंगे कि गांव में कोई गरीब नहीं है. प्रशासन ने गांव के सभी लोगों को एपीएल (यानी गरीबी रेखा से ऊपर) वाला कार्ड दिया गया है. इस वजह से लोगों को न सिर्फ सरकारी अनाज की कीमतें ज्यादा चुकानी पड़ती हैं साथ ही वे उन तमाम सरकारी कल्याणकारी योजनाओं जैसे वृद्धावस्था पेंशन, अंत्योदय योजना, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन, दीनदयाल स्वास्थ्य योजना आदि से बाहर हो गए हैं जो बीपीएल लोगों के लिए हैं.
प्रशासन के पास इस बात का अपना तर्क है. इसके मुताबिक 2006 के बीपीएल सर्वे में पात्र परिवारों की सूची प्रकाशित की गई थी लेकिन इसमें नाम जोड़ने के लिए इस गांव से किसी ने भी 10 दिन के भीतर आवेदन नहीं किया. प्रशासन का यह जवाब सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का सीधा उल्लंघन है जिसमें कोर्ट ने कहा है कि बीपीएल सूची में नाम जुड़वाने और काटने की प्रक्रिया सालभर सतत जारी रहनी चाहिए. सूची में नाम जोड़ने का दावा कोई भी व्यक्ति कभी भी कर सकता है और दावा आने के 10 दिन के भीतर तहसीलदार को जांच और सर्वे के बाद मामले का निराकरण करना होगा. हालांकि जहां संविधान के मौलिक अधिकारों की धज्जियां उड़ाने में कोई कोरकसर न छोड़ी गई हो वहां इस बात को कौन तवज्जो देगा.
2004 और 2005 में सुप्रीम कोर्ट के आयुक्त एनसी सक्सेना और एसआर शंकरन ने डूब प्रभावित गांवों में भुखमरी और खाद्य असुरक्षा की स्थिति को देखते हुए तत्कालीन मुख्य सचिव विजय सिंह को कुछ निर्देश दिए थे. इनमें कहा गया था कि डूब प्रभावित सभी अनुसूचित जाति और जनजाति के परिवारों को मुफ्त में राशन दिया जाए या फिर अंत्योदय की दर पर. इसके अलावा प्रत्येक डूब प्रभावित गांव में राशन दुकान खोलकर हफ्ते में कम से कम एक बार अनाज वितरण किया जाए. जमीनी स्तर पर जो व्यवस्था लागू है वह इस निर्देश के ठीक विपरीत है. अंत्योदय योजना में शामिल करना तो दूर शासन ने इन गांवों के लोगों को गरीबी रेखा के ऊपर घोषित कर दिया. गांव के लोग कई सालों से अंत्योदय योजना में शामिल करने की बात कर रहे हैं. लेकिन शासन का कहना है कि ये लोग चूंकि गरीबी रेखा से ऊपर हैं इसलिए इन्हें अंत्योदय अन्न योजना का लाभ नहीं दिया जा सकता. जबकि इस बारे में उच्चतम न्यायालय का साफ आदेश है कि अंत्योदय अन्न योजना में शामिल होने के लिए बीपीएल में शामिल होना जरुरी नहीं है.
भगवान भरोसे स्वास्थ्य
डूब के इन 15 गांवों में से किसी में भी न तो कोई सरकारी अस्पताल है, न डॉक्टर और न ही कोई दवा दुकान. चारों तरफ पानी और पहाड़ से घिरे इन गांवों में अगर कोई व्यक्ति बीमार पड़ जाए तो उसे ककराना ही जाना पड़ता है. ककराना के सबसे नजदीकी गांव से वहां पहुंचने में दो घंटे का समय लगता है. यहां पहुंचने के लिए लोगों को प्राइवेट नाव का इंतजाम करना पड़ता है. जैसा कि पहले जिक्र हो चुका है कि प्राइवेट नाव भी इक्की दुक्की ही हैं इसलिए वक्त पर नाव का इंतजाम हो पाना भी किस्मत की बात होती हैं. इसके बाद भी किसी तरह जब मरीज ककराना पहुंचता है तो यहां स्थित एकमात्र उप स्वास्थ्य केंद्र जिस पर इन 15 गांवो के स्वास्थ्य-उपचार की जिम्मेदारी है, वह हमेशा की तरह बंद मिलता है. गांव वाले कहते हैं कि स्वास्थ्य केंद्र पिछली बार कब खुला था यह बता पाना भी उनके लिए मुश्किल है. इसके बाद लोगों को इलाज के लिए सोंडवा (अलीराजपुर) या फिर डही (धार) जाना पड़ता है. यहां पहुंचने में दो घंटे और लगते हैं. यह रास्ता कुछ इस कदर खराब है कि गाड़ियां रेंगती हुईं चलती हैं. ककराना से यहां जाने के लिए इक्की दुक्की गाड़ियां ही हैं. इसलिए लोगों को फिर किसी प्राइवेट गाड़ी करके जाना पड़ता है. इसका किराया कम से कम 600 से 800 रुपये होता है. वहीं नाव से ककराना लाने तक का किराया उन्हें 200 रुपये के करीब देना पडता है. इस प्रकार लगभग हजार रुपये खर्च करके तथा चार से पांच घंटे का सफर करने के बाद ये लोग किसी अस्पताल पहुंच पाते हैं. ऐसे में इस बात का बहुत सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है की अगर किसी की अचानक तबीयत खराब हो गई तो उसके बचने की कितनी संभावना है.
जलसिंधी गांव के अंबाराम बताते हैं, ‘ 2006 में जिला स्वास्थ्य अधिकारी ने कहा था कि इन 15 गांवों के लिए जलसिंधी और भिताड़ा में स्वास्थ्य केंद्र स्थापित किया जाएगा. ऐसा हुआ भी लेकिन यह केंद्र सिर्फ एक साल तक चल पाया. शासन का कहना है कि उसने स्वास्थ्य कार्यकर्ता नियुक्त किए हैं जो नियमित रुप से इन गांवों का दौरा करते रहते हैं. लेकिन अंजनवाड़ा गांव के लोग बताते हैं कि पिछली बार स्वास्थ्य कार्यकर्ता बाल सुरक्षा अभियान और पल्स पोलियो अभियान के सिलसिले में गांव आए थे. इस साल तो जनवरी से लेकर अब तक कोई गांव नहीं आया.
मध्य प्रदेश के ठीक विपरीत महाराष्ट्र ने अपने हिस्से के डूब वाले गांवों के लिए मोबाइल हेल्थ बोट की व्यवस्था की है. वहां प्रभावित परिवारों की नियमित स्वास्थ्य जांच और गांव में ही डॉक्टर की सुविधा दी गई है. साथ ही सरकार ने आपात स्थिति में मरीजों को अस्पताल पहुंचाने के लिए भी सुविधा प्रदान की है. गांव वाले कहते हैं, ‘ जब महाराष्ट्र सरकार अपने नागरिकों के लिए ये सुविधाएं कर सकती है तो फिर हमारी सरकार क्यों नहीं.’