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एनएफएचएस-5 के आँकड़ों से नाख़ुश केंद्र सरकार ने आईआईपीएस निदेशक को निलंबित किया, क्या अगला नंबर कैग प्रमुख का है?

सुशील मानव

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आँकड़ों से नाख़ुश केंद्र सरकार ने अंतराराष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (आईआईपीएस) के निदेशक के.एस. जेम्स को पद से निलंबित कर दिया है। 28 जुलाई की शाम उन्हें निलंबन पत्र भेजकर इस आशय की जानकारी दी गयी। ग़ौरतलब है कि अंतराराष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (आईआईपीएस) केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीनस्थ काम करती है। यह संस्थान राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का आकलन और वैश्विक वयस्क तंबाकू सर्वेक्षण जैसे महत्त्वपूर्ण अध्ययन आयोजित करती है।

हार्वर्ड सेंटर फॉर पॉपुलेशन एंड डेवलपमेंट से पोस्ट डॉक्टोरल डिग्री धारी के.एस. जेम्स भारत के सबसे प्रतिष्ठित जनसांख्यिकीविदों में से एक हैं। वह जेएनयू में जनसंख्या अध्ययन के प्रोफेसर रहे हैं। उन्हें सन् 2018 में आईआईपीएस का निदेशक नियुक्त किया गया। उन्होंने साल 2019-21 के दौरान सम्पन्न हुए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पाँचवें दौर का नेतृत्व किया। सूत्रों के मुताबिक, केंद्र सरकार आगामी चुनाव के मद्देनज़र आईआईपीएस के हालिया डेटा से ख़ुश नहीं थी और सरकार द्वारा निदेशक डॉ. जेम्स को इस्तीफ़ा देने के लिए कहा गया था; लेकिन इस्तीफ़ा देने से मना करने के बाद सरकार ने भर्ती में अनियमितता का हवाला देकर उन्हें बलपूर्वक निलंबित कर दिया है।

ग़ौरतलब है कि एनएफएचएस-5 का डेटा केंद्र सरकार के राजनीतिक एजेंडे के विपरीत हैं। इस अप्रिय डेटा के लिए वो सरकार के आँख की किरकिरी बने हुए थे। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 में कई ऐसे आँकड़े हैं, जो सरकार को आगामी लोकसभा चुनाव में असहज कर सकते हैं। जैसे कि भारत सरकार तमाम विज्ञापनों में दावा करती है कि देश खुले में शौच से मुक्त हो चुका है। जबकि एनएफएचएस-5 के आँकड़े बताते हैं कि सच्चाई इसके उलट है और देश में अभी भी 19 फ़ीसदी परिवार किसी भी शौचालय सुविधा का इस्तेमाल नहीं करते हैं। यानी देश की 19 फ़ीसदी आबादी अभी भी खुले में शौच करती है। डेटा के मुताबिक, एक लक्षद्वीप को छोडक़र देश का कोई भी राज्य खुले में शौच से मुक्त नहीं हुआ है। इसी तरह सरकार उज्ज्वला गैस योजना को लेकर तमाम विज्ञापनों में अपनी उपलब्धि का राग अलापती रहती है, जबकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आँकड़े बताते हैं कि देश में 40 फ़ीसदी से अधिक घरों में खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन की पहुँच नहीं है। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में 57 फ़ीसदी लोगों के पास एलपीजी या प्राकृतिक गैस तक पहुँच नहीं है। इसी तरह एनएफएचएस-5 की रिपोर्ट कहती है कि देश में एनीमिया बढ़ रही है। ज़ाहिर है चुनाव पूर्व ऐसे आँकड़े किसी भी सरकार को परेशान और नाख़ुश कर सकते हैं।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 29 जुलाई को आईआईपीएस निदेशक के.एस. जेम्स के निलंबन पर एक पेज का नोट जारी करके कहा कि भर्ती और नियुक्तियों में अनियमितताओं और आरक्षण रोस्टर के अनुपालन के सम्बन्ध में विभिन्न शिकायतें प्राप्त हुई थीं। उनकी जाँच के लिए मंत्रालय द्वारा 6 मई को एक तथ्य-खोज समिति (एफएफसी) का गठन किया गया था। समिति ने दोनों शिकायतकर्ताओं के आईआईपीएस बयानों से जानकारी एकत्र की। प्रतिवादी ने विशेष लेखा परीक्षा दल, आईआईपीएस के आरक्षण और रोस्टर रजिस्टरों की जाँच करने वाली टीम और हिन्दी अधिकारी के ग़ैर-चयन की जाँच करने वाली उप-समिति की रिपोर्ट दी। इसके बाद उसने अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसे मंत्रालय ने स्वीकार कर लिया। एफएफसी को प्राप्त 35 शिकायतों में से 11 में प्रथम दृष्टया अनियमितताएँ मिलीं। मंत्रालय ने कहा कि ये अनियमितताएँ मुख्य रूप से कुछ नियुक्तियों, संकाय की भर्ती, आरक्षण रोस्टर और डेड स्टॉक रजिस्टर में देखी गयी ख़ामियों के सम्बन्ध में थीं।

सरकार के आरोप पर ही विचार करें, तो सवाल यह भी उठता है कि आईआईपीएस निदेशक पर लगाये गये आरोप केंद्रीय मंत्री मनसुख मांडविया के ख़िलाफ़ भी तो लगेंगे। संस्थान के उपनियम के मुताबिक, भर्ती आदि पर फ़ैसला 22 सदस्यीय सामान्य परिषद् लेती है, जिसके अध्यक्ष केंद्रीय मंत्री मनसुख मांडविया और उपाध्यक्ष मंत्रालय के सचिव हैं। फिर निदेशक के एस. जेम्स अकेले कैसे भर्ती आदि पर निर्णय ले सकते हैं? कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने दावा किया है कि स्वास्थ्य मंत्रालय की आंतरिक समितियों ने डॉ. जेम्स को किसी भी कदाचार के मामले में क्लीन चिट दे दी थी। उनके ख़िलाफ़ हालिया कार्रवाई ‘राजनीतिक कारणों’ से की गयी है। कांग्रेस नेता के दावों को बल प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद् की सदस्य शमिका रवि के उस लेख से भी मिलता है, जो उन्होंने 7 जुलाई को ‘द सैंपल इज राँग’ शीर्षक से एक अख़बर में लिखा था। कि ‘हमारी राष्ट्रीय सर्वेक्षण दोषपूर्ण नमूने पर आधारित हैं। प्रमुख सर्वेक्षण जिस पर नीति निर्माता भरोसा करते हैं। एनएसएस, एनएफएचएस, पीएलएफएस ख़राब डेटा संग्रह ढाँचे पर आधारित हैं और व्यवस्थित रूप से भारत की प्रगति व विकास को कम आँकते हैं।’

यानी जो आँकड़े सरकार के ख़िलाफ़ होते हैं, सरकार उन्हें नकार देती है और इन्हें बनाने वालों को सबक़ सिखाती है। यह कोई पहला वाक़िया नहीं है। इसी तरह इससे पहले 2019 लोकसभा चुनाव से पहले सरकार के जीडीपी आँकड़ों पर सवाल उठाने और ‘इलेक्टोरल बांड’ का विरोध करने पर भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर को हटा दिया गया था। 10 दिसंबर, 2018 को तत्कालीन आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल ने ‘व्यक्तिगत कारणों’ का हवाला देकर अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। पर सच्चाई यह थी कि आईआईपीएस निदेशक की तरह उन पर भी इस्तीफ़ा देने के लिए दबाव डाला गया। उनका इस्तीफ़ा 14 दिसंबर को आरबीआई की केंद्रीय बोर्ड की बैठक और शीतकालीन सत्र शुरू होने से ठीक एक दिन पहले आया था, जबकि उनके तीन साल के कार्यकाल को पूरा होने में नौ महीने बाक़ी थे। उस वक़्त केंद्रीय बैंकों की स्वायत्तता, आरबीआई के अतिरिक्त भण्डार को सरकार को हस्तांतरित करने और प्रतिबंधात्मक त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई में ढील सहित कई मुद्दों पर सरकार और आरबीआई के बीच जबरदस्त विवाद था। सरकार को जब यह लगा कि आरबीआई गवर्नर उनकी बात नहीं मान रहे हैं, तो सरकार ने एनपीए, नक़दी संकट और बिजली कम्पनियों को छूट के मुद्दों पर आरबीआई अधिनियम की धारा-7 को लागू करके आरबीआई गवर्नर को अपनी बातें मानने के लिए बाध्य कर दिया। आरबीआई एक्ट-1934 में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना के समय ही बना था। और इसकी धारा-7(1) का कभी इस्तेमाल नहीं किया गया था। मौज़ूदा सरकार ने इस धारा का इस्तेमाल करके आरबीआई की स्वायत्तता में दख़ल दिया।

भ्रष्टाचार और नियम-क़ायदों को लेकर मौज़ूदा केंद्र सरकार शुरू से ही दोग़ली नीति अपनाती आ रही है। जो अधिकारी सरकार की इच्छा और हितों के मुताबिक काम करता है, वो कितना भी भ्रष्ट हो, उसके ख़िलाफ़ कितनी भी शिकायतें क्यों न हो सरकार उसे दरकिनार कर देती है। वहीं, जो अधिकारी थोड़ा-सा भी सरकार को असहज करता है, सरकार उसे या तो इस्तीफ़ा देने पर बाध्य कर देती है या फिर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर उसे निलंबित कर देती है। राकेश अस्थाना एक ऐसा उदाहरण है। बड़ौदा पुलिस कमिश्नर रहते उन पर भ्रष्टाचार के एक नहीं सैकड़ों आरोप लगे। भ्रष्टाचार के मामले में उनके ख़िलाफ़ केस भी चल रहा था। बावजूद इसके राकेश अस्थाना के लिए केंद्र सरकार ने सीबीआई में अलग से ‘विशेष निदेशक’ का पद सृजन किया। सीबीआई में नियुक्ति के  वक़्त उनके ख़िलाफ़ कई जाँच चल रहे थे और उनकी नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती दी गयी थी। ख़ुद तत्कालीन सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा ने तत्कालीन सीबीआई ‘विशेष निदेशक’ राकेश अस्थाना के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में भ्रष्टाचार का केस दर्ज करवाया था। उनका नाम सीबीआई द्वारा 4,000 करोड़ रुपये की घपलेबाज़ी और मनीलॉन्डिरंग जाँच में स्टर्लिंग बायोटेक से सन् 2011 में ज़ब्त की गयी डायरी में भी आया था।

इस डायरी में राकेश अस्थाना की बेटी की शादी में ख़र्च हुए करोड़ों रुपये का हिसाब भी दर्ज था। जबकि अस्थाना का बेटा इस कम्पनी में मैनेजर था। सरकार ने 27 जुलाई, 2021 को सीमा सुरक्षा बल के डीजी पद से सेवानिवृत्त होने के चार दिन पहले राकेश अस्थाना को दिल्ली पुलिस कमिश्नर बना दिया गया। तो राकेश अस्थाना के उदाहरण से साफ़ है कि भ्रष्टाचार या दुराचार, हत्या के आरोप से सरकार को कोई लेना-देना नहीं है। कौन-सा अफ़सर सरकार के लिए फ़ायदेमंद और कौन सा नुकसानदेह फ़र्क़ इससे पड़ता है। फ़र्क़ आँकड़ों से पड़ता है। दरअसल सरकार आँकड़ों से डरती है। राष्ट्रवादी आख्यान का खण्डन करने वाली डेटा को ख़ारिज करने का सरकार का इतिहास है। कुपोषण पर यूनिसेफ के आँकड़ों को सरकार ने नकार दिया; क्योंकि उसमें बिहार की तुलना में गुजरात मॉडल को विसंगत बताया गया था। इसी तरह सरकार ने वैश्विक भुखमरी सूचकांक, कोरोना से मौतों का आँकड़ा, प्रेस की आज़ादी सूचकांक आदि रिपोट्र्स को भी नकार दिया। बेरोज़गारी, महँगाई और महिलाओं पर हिंसा के आँकड़े भी सरकार के ख़िलाफ़ जा रहे हैं। इसी तरह सरकार ने दशकीय जनगणना जो कि 2021 में होने वाली ती उसे भी अभी तक आयोजित नहीं किया है। इसी तरह सन् 2019 में केंद्र सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में सरकार ने अपने ख़ुद के उपभोग और व्यय सर्वेक्षण को बेकार करार दिया था। जबकि सरकार ने उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण (सीईएस) के ताज़ा नतीजे जारी नहीं किये हैं। जनवरी, 2019 में बेरोज़गारी के आँकड़ों को भी सरकार ने रोक लिया था और लोकसभा चुनाव सम्पन्न होने के बाद ही जारी किया था। इसके कारण राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के सदस्यों और कार्यकारी अध्यक्ष पी.सी. मोहन को इस्तीफ़ा देना पड़ा था।

क्या सरकार अब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक गिरीश चंद्र मुर्मू को भी हटाने जा रही है? ज़ाहिर है कि कैग ने अगस्त के पहले सप्ताह में पार्लियामेंट के पटल पर कई परियोजनाओं के ऑडिट रिपोर्ट पेश किये थे, जिनमें केंद्र सरकार पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप लगाये गये हैं। कैग ने अपनी ऑडिट रिपोर्ट में सरकार द्वारा पेंशन योजना के फंड में हेराफेरी करने, आयुष्मान भारत योजना में काग़ज़ी फ़र्ज़ीवाड़ा करके घोटाला करने का आरोप लगाया है। इसके अलावा भारत माला योजना में घोटाला और ग़लत तरी$के से अडानी को फ़ायदा पहुँचाने, द्वारका एक्सप्रेस वे निर्माण में घोटाला, अयोध्या डेवलपमेंट प्रोजेक्ट में घोटाला का पर्दाफाश अपनी तमाम ऑडिट रिपोर्ट में कैग ने किया है। इसके बाद से सरकार विपक्ष और मीडिया के निशाने पर है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आये कैग के ऑडिट रिपोर्ट से सरकार मुश्किल में है। क्या गुजरात से दिल्ली तक के राजनीतिक सफ़र में सबसे वफ़ादार रहे अफ़सर और मौज़ूदा कैग गिरीश चंद्र मुर्मू को भी सरकार काँटे की तरह निकाल फेंकेगी?