देश की घटनाएँ क्या अचानक ऐसी दिशा में मुड़ रही हैं, जो लगभग मृत-सी कांग्रेस और विपक्ष को भाजपा के सामने एक ताकत के रूप में खत्म कर देंगी। ऐसा अतीत में भी हुआ है, जब सरकार के िखलाफ देशव्यापी आन्दोलन विपक्ष के लिए संजीवनी बन गये। इमरजेंसी में जब कांग्रेस सत्ता में थी, तो एकजुट विपक्ष ने इंदिरा गाँधी जैसी ताकतवर और बेहतरीन रणनीतिकार प्रधानमंत्री के पाँव उखाड़ दिये थे। अभी भले देश में इमरजेंसी नहीं, अलग-थलग पड़ा विपक्ष यह संदेश देने की कोशिश तो कर ही रहा है कि जो कुछ हो रहा है और जिस तरह देश पर संविधान की धज्जियाँ उड़ाकर कानून थोपे जा रहे हैं, यह स्थिति इमरजेंसी से किसी तरह कम नहीं।
भाजपा का एक वर्ग भले यह मानकर चल रहा हो कि नागरिकता संशोधन कानून और सम्भावित एनआरसी के विरोध में घट रही तमाम घटनाएँ, एक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का रूप लेकर राजनीतिक रूप से उसे लाभ देंगी, देश में युवाओं और छात्रों का बड़ा वर्ग मोदी सरकार के प्रति अपनी सोच बदल रहा है। इनमें से एक बड़ा वर्ग वह है, जिसने हाल के साल में पीएम के रूप में नरेंद्र मोदी का समर्थन किया था। उनकी चिन्ता के दायरे में नौकरियाँ और खराब होती अर्थ-व्यवस्था से उभर रही समस्याएँ हैं, जिनसे उनके परिवार दो-चार हैं।
मोदी सरकार ने जिस तरह देश के गम्भीर मुद्दों के प्रति कमोवेश चुप्पी ही साध ली है। वह उन लोगों को बेचैन कर रही है, जिन्हें मोदी सरकार से अपनी नौकरियों, रोज़गार और किसानों-युवाओं के लिए कुछ अलग ही तरह की नीतियों की उम्मीद थी। मोदी ने जब 2014 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के िखलाफ बुलंद रूप से गुजरात मॉडल जैसा विकासशील देश देने वाला स्वप्न जगाया था। तब किसी ने सोचा ही नहीं था कि आने वाले साल में भाजपा का एजेंडा ही बदल जाएगा।
ऐसा नहीं था कि इंदिरा गाँधी लोकप्रिय नहीं थीं। लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले ने जिस तरह उनकी तमाम राजनीति को अपनी सत्ता के इर्द-गिर्द समेट दिया, उसने उन्हें 1977 के चुनाव में सत्ता से बाहर कर दिया। देश में बहुत-से लोग अब सोचने लगे हैं कि सिस्टम और विकास से ज़्यादा भाजपा अब सिर्फ सत्ता की सोच की आसपास सिमटने लगी है।
नागरिकता संशोधन कानून के िखलाफ देश में जो माहौल बना है, उसने पिछले कुछ साल में भाजपा के लाड़ले रहे दलों को भी मुँह मोडऩे के लिए मज़बूर कर दिया है। बिहार में जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) इनमें एक है, जो सीएए का संसद के भीतर समर्थन करने के बावजूद, जनांदोलन के रुख से दबाव महसूस कर एनआरसी के बहाने भाजपा से अब दूरी दिखा रहा है। सुदूर ओडिशा में नवीन पटनायक और बीजू जनता दल सरकार ने एनआरसी राज्य में लागू करने से साफ मना कर दिया है।
हाल के महीनों में शिव सेना जैसा हिन्दूवादी दल भाजपा से छिटककर धुर विरोधी कांग्रेस से हाथ मिला चुका है। हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव नतीजों में भाजपा की सीटें घटी हैं। झारखंड के चुनाव ने भी भाजपा के समक्ष बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं। भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से बड़ी चिन्ता की बात यह है कि यह सभी चुनाव जम्मू-कश्मीर में धारा-370 खत्म करने और अब नागरिकता संशोधन कानून बनाने के दौरान हुए हैं।
तो क्या देश में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और विपक्ष की दूसरी पार्टियाँ देश में अचानक उभरे इस विरोध को अपने लिए भुना पाएँगी। यह तो नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस जैसी राजनीतिक पार्टी नेपथ्य में जा चुकी है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा के करीब 21 करोड़ वोटों के मुकाबले 11 करोड़ वोट हासिल किये थे; जिन्हें काम नहीं कहा। कांग्रेस अभी भी देश की जनता के लिए एक विकल्प के रूप में तो है ही।
यह बहुत दिलचस्प तथ्य है कि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस सबसे पहले राजनीतिक रूप से संवेदनशील नागरिकता मसले पर मुखर हुए, जिनका साथ वामपंथी दलों ने दिया। इसके बाद क्षेत्रीय क्षत्रप और दल विरोध में सामने आये। संसद के भीतर प्रियंका गाँधी जहाँ इंडिया गेट पर दो बार धरने पर बैठ चुकी हैं, वहीं अध्यक्ष सोनिया गाँधी विपक्षी दलों का प्रनिधिमंडल लेकर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिलीं।
लेकिन भाजपा के लिए बड़ी चिन्ता की बात छात्रों का बड़े पैमाने पर इस कानून के िखलाफ सामने आना है। यह सिर्फ मुस्लिम छात्रों तक सीमित नहीं रहा है। दूसरे धर्मों से जुड़े छात्र भी आन्दोलन का बड़े पैमाने पर हिस्सा बने हैं। उनका चिन्तन नागरिकता कानून के विरोध से आगे मोदी सरकार के रोज़गार जैसे मुद्दों पर चुप बैठने से है।
भाजपा के लिए चिन्ता का एक और कारण इस आन्दोलन में बड़े पैमाने पर दलित और पिछड़े वर्ग के छात्रों का जुडऩा है। इसका कारण उनके मन में यह भय है कि भाजपा का अंतत: लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र की स्थापना है। इसे यह वर्ग मनुवादी दौर के लौटने के खतरे के रूप में देखता है।
कांग्रेस अपने शासित राज्यों में इस कानून को लागू करने से मना कर चुकी है। कांग्रेस की ही तरह तृणमूल कांग्रेस की शक्तिशाली नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी नागरिकता कानून का मुखर विरोध कर रही हैं।
तहलका संवाददाता से बातचीत में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने कहा- ‘यह बहुत बड़ा और संवेनशील मुद्दा है। मोदी सरकार संविधान की मूल भावना का उल्लंघन कर रही है। कानून बनाते समय वह राज्यों (सन्दर्भ जम्मू कश्मीर में कश्मीर धारा-370 खत्म करना) को तो नजर अंदाज़ कर ही रही है। अब संविधान की भी धज्जियाँ (सन्दर्भ नागरिकता संशोधन कानून) उड़ाने लगी है।
भाजपा की चिन्ता यह भी है कि जिस नागरिकता कानून को लेकर वो सिर्फ असम को लेकर विरोध की सोच रही थी; वह आन्दोलन कमोवेश पूरी देश में फैल गया है। आज की तारीख में 11 राज्य खुले तौर पर मोदी सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि नागरिकता कानून ने विपक्ष को सरकार के िखलाफ एक बड़ा मुद्दा दे दिया है। जैसे-जैसे आन्दोलन तेज़ हो रहा है, भाजपा इसके राजनीतिक खतरे महसूस करने लगी है। यही कारण है कि वह अब एनआरसी के लागू करने को लेकर बयान देने में सावधानी बरतने लगी है। यही नहीं नागरिकता कानून के अंतिम ड्राफ्ट के लिए जनता से सुझाव माँगने की बात भी कह रही है।
कानून के विरोध के बहाने कांग्रेस विपक्षी दलों को एकजुट कर सरकार और भाजपा के िखलाफ खुद की राजनीति को धार देने के कोशिश कर रही है। कांग्रेस और विपक्ष की 22 दिसंबर की भारत बचाओ रैली को इसी रूप में देखा जा सकता है।
भाजपा जिस तरह ढके-छिपे तरीके से अपने हिन्दू वोट बैंक को गोलबन्द करने में जुटी है, उसमें बहुत खतरे भी निहित हैं। पूर्वोत्तर में जिस तरह उसने अपनी सरकारें बनायी थीं, उससे इन राज्यों में उसकी शक्ति बढ़ी थी और भाजपा का राष्ट्रव्यापी विस्तार भी हुआ। यदि ऋण राज्यों में जनता भाजपा के िखलाफ हो जाती है, तो उसे वहाँ बहुत बड़ा राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। परम्परागत रूप से यह राज्य कांग्रेस के साथ रहे हैं या बाद में क्षेत्रीय दल भी उसकी पसन्द बने हैं। भाजपा से छिटके तो उनका कांग्रेस की तरफ जाना सम्भव हो जाएगा।
गोवा, मेघालय में तो भाजपा को बहुमत भी नहीं मिला था, जबकि अरुणाचल प्रदेश में एक तरह से पूरी कांग्रेस सरकार को ही हाईजैक करके भाजपा ने बाद में चुनाव जीतकर अपनी सरकार बना ली। ऐसी में इन राज्यों में भाजपा बहुत िफसलन भरी राजनीतिक पिच पर खड़ी है। कांग्रेस मौका मिलते ही भाजपा पर हावी ओने की कोशिश करेगी।
भाजपा को भी डर है कि नागरिकता संशोधन कानून के बाद पूर्वोत्तर में भाजपा की बढ़त रुक जाएगी। ज़ाहिर है राजनीतिक तौर पर इसका लाभ कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को मिलेगा। यह सभी दल इन राज्यों में अभी से सक्रिय हो चुके हैं। नागरिकता कानून के िखलाफ कांग्रेस खुलकर असम में लोगों के साथ खड़ी दिख रही है।
वैसे कांग्रेस बहुत सोच समझकर नागरिकता कानून को लेकर चल रही है। वह छात्रों के साथ एकजुटता तो दिखाना चाहती है, साथ ही वोटों के लिहाज़ से मज़बूत हिन्दी बेल्ट में इस बात का भी खयाल रखना चाहती है कि यह संदेश न जाए कि वह हिन्दू विरोधी है। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण हुआ, तो हिन्दी भाषी राज्यों में कानून को भाजपा अपने पक्ष में करने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर देगी। ऐसे में कांग्रेस एक सावधान रणनीति से ही आगे बढऩे की कोशिश कर रही है। ऐसा ही विपक्ष के अन्य दल भी कर रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर में धारा-370 को लेकर सम्भावित विरोध किया, जो तैयारी मोदी सरकार ने की थी; वैसी वह नागरिकता कानून को लेकर नहीं कर पायी। हालाँकि जानकार कहते हैं कि जम्मू कश्मीर में 9 लाख के करीब सैनिक तैनात हैं। लिहाज़ा यह सुरक्षा बंदोबस्त बहुत मज़बूत हो जाता है। वैसे भी जम्मू-कश्मीर की सही स्थिति अभी आने वाले महीनों में ही पता चलेगी। वहाँ अभी भी इंटरनेट जैसी कई पाबंदियाँ हैं।
पूर्वोत्तर में नागरिकता कानून के िखलाफ जो हुआ वह राजनीतिक रूप से भाजपा के िखलाफ गया है और लोग उसे लेकर परहेज करने लगे हैं। भाजपा के लिए सबसे बड़ी दिक्कत यह कि असम का विरोध हिन्दुओं की तरफ से ज़्यादा आया है, न कि मुसलमानों की तरफ से।
विपक्ष इस सारे हालात में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नागरिकता कानून के प्रभावों को लेकर भी मोदी सरकार पर सवाल उठा रहा है। अमेरिका सहित उच्च देशों के संगठनों, जिनमें मानवाधिकार संगठन भी हैं; ने भारत के नागरिकता कानून को लेकर सवाल उठाये हैं। दक्षिण एशिया में हमारा मित्र माने जाने वाला बांग्लादेश भी इस कानून के बाद सरकार के नुमाइंदों की टिप्पणियों से नाराज़ दिखा है। कई देशों में भारतीयों और मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं ने इस कानून के िखलाफ प्रदर्शन किये।
नागरिकता कानून पास होने के बाद जब असम में नाराज़गी दिखी और प्रदर्शन होने शुरू हुए, तो भी सरकार ने गुवाहाटी में होने वाला अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन रद्द नहीं किया और इसे आयोजित करने की बात कही। लेकिन जब वहाँ के हालात के मद्देनज़र जापान के प्रधानमंत्री सिंजो आबे ने अपना दौरा रद्द कर दिया, तो भारत को शॄमदगी झेलनी पड़ी। बांग्लादेश ने भी अपने मंत्रियों को भेजने से मना कर दिया।
निश्चित ही इससे भारत के लिए असहज स्थिति बनी। बाद में कूटनीतिक और आंतरिक स्तर पर क्राइसिस मैनेजमेंट की कोशिश विभिन्न स्तरों पर हुई। लेकिन जो होना था, वह तो हो ही गया था। यहाँ यह उस सरकार के प्रबंधन की नाकामी थी, जिसे जाना ही बेहतर प्रबंधन के लिए जाता है। कानून के बाद उपजने वाली स्थितियों का पूर्व आकलन करने में सरकार फेल रही। विपक्ष ने इसे मुद्दा बनाया। कांग्रेस ने कहा कि कि ऐसा कानून मोदी सरकार ले आयी है, जिसका असर देश के बाहर भी दिख रहा है।
लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या कांग्रेस और विपक्ष सच में सरकार विरोधी इन आन्दोलनों के ज़रिये खुद की खोयी ताकत हासिल कर पाएँगे? क्या जनता देश के अन्य मुद्दों के मुकाबले इस कानून को तरज़ीह देगी या फिर सरकार के साथ चलेगी? यह बड़े सवाल हैं; लेकिन आन्दोलन के बाद सरकार की बेचैनी बताती है कि सब कुछ वैसा नहीं हुआ है, जैसी उसने कल्पना की थी।
नागरिकता कानून पर उपजी स्थिति से भाजपा कितनी चिन्तित है यह इस बात से ज़ाहिर हो जाता है कि उसने देश भर में 10 दिन तक व्यापक अभियान चलाने का फैसला किया। इसमें पार्टी ने देश के तीन करोड़ लोगों को कानून के बारे में सही जानकारी देने का फैसला किया। घर-घर पहुँचने के इस अभियान में भाजपा ने 250 के करीब प्रेस कॉन्फ्रेंस करने का फैसला किया।
देश के हर ज़िाले में नागरिकता संशोधन कानून के पक्ष में रैली और कार्यक्रमों का भी आयोजन भी भाजपा की रणनीति का हिस्सा है, ताकि विपक्ष की इस कानून के िखलाफ धार को कमज़ोर किया जा सके। प्रधानमंत्री मोदी से लेकर भाजपा अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह और कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा समेत तमाम नेता कांग्रेस और विपक्ष पर लगातार आरोप लगा रहे हैं कि वह जनता को गुमराह कर रहा है। लेकिन तकनीकी के इस जमाने में क्या सचमुच यह कहा जा सकता है कि एक बड़ी आबादी को कानून के विभिन्न पहलुओं की जानकारी ही न हो, वह भी छात्रों को?
क्या निरंकुश हो रही भाजपा!
भाजपा की छवि धीरे-धीरे एक अहंकारी राजनीतिक दल की बनती जा रही है। यह वैसी ही स्थिति है, जैसी कांग्रेस की 2009 में सत्ता के दोबारा आने के बाद बननी शुरू हो गयी थी। देश भर से दर्जनों लेखकों, िफल्मकारों, बुद्धिजीवियों और अन्य ने हाल के साल में अपने पुरस्कार इसलिए लौटा दिये; क्योंकि उनका केन्द्र की भाजपा सरकार की नीतियों के प्रति विरोध था।
भाजपा में सबसे तेज़ी से जो चलन बढ़ा है और जिसके चलते लोगों में उसके प्रति नाराज़गी पैदा हुई है, वह यह है कि उसका विरोध करने वाले व्यक्ति या राजनीतिक दल को वह सीधे देश विरोधी या पाकिस्तान परस्त करार दे देती है। इस मामले में कांग्रेस उसके निशाने पर सबसे ज़्यादा रही है। यह चलन इतना ज़्यादा है कि उसके मंडल स्तर तक के नेता भी इसी भाषा में बात करते हैं।
लोकतंत्र में इसे किसी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता; क्योंकि भाजपा विरोध का अर्थ देश विरोध भला कैसा हो सकता है। क्या कोई मान सकता है कि देश को आज़ादी दिलाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाने वाली या 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े करने वाली कांग्रेस पाकिस्तान परस्त है।
कांग्रेस सहित विरोधी दल भाजपा को एक निरंकुश दल कहने लगे हैं। उनका कहना है कि केन्द्र में भाजपा की सरकार जनमत और संविधान की धज्जियाँ उड़ाकर मनमर्ज़ी कर रही है और वह निरंकुश हो गयी है।
तहलका संवाददाता से बातचीत में वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पाँच बार के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह कहते हैं- ‘भाजपा देश में एक ऐसा वातावरण बना रही है, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र में दूसरों को खारिज कर देना खतरनाक संकेत है। भाजपा ने जब कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया, तो उससे ही पता चल गया कि लोकतंत्र में उसका कितना विश्वास है।’
लेकिन भाजपा के वरिष्ठ नेता और दो बार के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल कहते हैं कि कांग्रेस धर्म और जातियों की राजनीति करती रही है। लेकिन मोदी के पीएम बनने के बाद विकास की राजनीति की शुरुआत हुई है, जिससे कांग्रेस बेचैन है और उसकी दाल नहीं गाल रही। आज जब दुनिया भर में भारत की चर्चा है, तो कांग्रेस अलग-थलग पड़ी है। उसे इसके कारणों का आकलन करना चाहिए।
नेता भले जो कहें, कांग्रेस और विपक्ष अब भाजपा पर निरंकुश होने का आरोप चस्पा कर रहा है। उसका कहना है कि स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष की आवाज़ को दबाना लोकतंत्र का गला घोंटने जैसा है।
कांग्रेस ने महाराष्ट्र में शिव सेना जैसे विचारधारा के स्तर पर धुर विरोधी दल के साथ समझौता एक रणनीति के तहत ही किया है। एक तो कांग्रेस-एनसीपी ने मिलकर भाजपा से उसका एक बड़ा सहयोगी छीन लिया, दूसरा यह संकेत देने की कोशिश की कि शिवसेना का उनके साथ इस बात का सबूत है कि वे हिन्दू विरोधी नहीं हैं। होते तो शिवसेना जैसी पार्टी उनके साथ क्यों आती?
आने वाले समय में कांग्रेस, टीएमसी, माकपा, सपा, बसपा, शिव सेना और तमाम क्षेत्रीय दलों के साथ आने की कितनी सम्भावना बनती है, यह अभी कहना मुश्किल है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि विपक्ष और कांग्रेस लोगों में अपनी पैठ बनाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। कुछ सहयोगी दल ही अब भाजपा पर संदेह करने लगे हैं। नागरिकता कानून के िखलाफ उपजे सरकार विरोधी माहौल को यह दल कितना भुना पाएँगे, यह वक्त ही बताएगा।
जेडीयू दिखा रहा आँखें
एनआरसी का खुला विरोध करके और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से एनआरसी पर जवाब माँगकर बिहार की जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) ने कई संकेत दिये हैं, जो भाजपा के हक में नहीं जाते। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि क्या नीतीश कुमार अगले साल बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले पलटी मार सकते हैं? नीतीश यूपीए से पलटी मारकर ही एनडीए में गये थे। हाल के कुछ उप चुनाव नतीजों ने नीतीश की चिन्ता बढ़ायी है। ऐसे में उन्हें भाजपा के साथ को लेकर असुरक्षा महसूस हो रही है। भाजपा के लिए यह चिन्ता की बात कही जाएगी।
विरोध की ताकत
देश में 11 राज्य (सरकारें) खुलकर नागरिकता कानून का विरोध कर रहे हैं। ज़ाहिर है यह सब एनआरसी के भी िखलाफ होंगे। बल्कि इनकी संख्या ज़्यादा हो सकती है। यदि गुणा-भाग किया जाए, तो यह देश की कुल आबादी का 52 करोड़ है, अर्थात् आधे से कुछ ही कम लगभग 42 फीसदी। इन राज्यों का कुल क्षेत्रफल लगभग 13 लाख वर्ग मीटर बनता है और लोक सभा की 226 और राज्य सभा की 95 सीटें इन राज्यों के तहत पड़ती हैं। लोगों की चिन्ता का बड़ा कारण यह भी है कि असम में ही जब एनआरसी लागू किया गया, तो अंतिम सूची में कम नहीं पूरी 19 लाख लोग साबित नहीं कर सके, जिनमें हिन्दू ही बड़ी संख्या में हैं। ऐसे में देश हर में एनआरसी लागू होने पर क्या स्थिति बनेगी? यह कल्पना करना मुश्किल नहीं। राजनीतिक रूप से यह बात भाजपा के िखलाफ जा रही है और कांग्रेस सहित विपक्ष इसे भुनाने की कोशिश कर रहा है।
भाजपा अभी भी सबसे बड़ी पार्टी
आँकड़ों की बात करें, तो झारखंड विधानसभा चुनाव से पहले मई में भाजपा ने लोक सभा की 543 में से 303 सीटें जीती थीं। यह देश की कुल लोकसभा सीटों का 56 बैठता है। यदि इस जन-समर्थन को विधानसभा सीटों में तब्दील करें, तो यह देश की कुल 4120 सीटों में 2089 (देश की 51 फीसदी सीटें) बनता है, जहाँ भाजपा को बढ़त मिली थी। इस लिहाज़ से भाजपा अभी भी देश की सबसे बड़ी पार्टी है। लेकिन महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव तक भाजपा की वास्तविक विधायक संख्या जहाज़ 1326 थी, जो कुल ताकत का सिर्फ 32 फीसदी ही है। झारखंड चुनाव के बाद इसमें और कमी आयी है। भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की बात करें, तो वह भाजपा से पीछे ज़रूर है, लेकिन उसके पास भी 846 विधायकों की ताकत है, जिसका बहुत कुछ श्रेय दिसंबर, 2018 के राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव को जाता है, जहाँ उसने सरकार बनायी थी। इस लिहाज़ से कांग्रेस भाजपा के बाद 20 फीसदी ताकत के साथ महाराष्ट्र चुनाव के नतीजों के बाद दूसरे स्थान पर है। हालाँकि, क्षेत्रीय दलों का भी बड़ा हिस्सा है। लेकिन चूँकि वे राज्यों में बँटे हुए हैं, कांग्रेस सहज ही दूसरे नम्बर पर आ जाती है। आज विधानसभा में सत्ता के लिहाज़ से भाजपा का राज देश के 40 फीसदी हिस्से पर है। भाजपा के लिए चिन्ता की बात यह है कि 24 महीने पहले तक यह आँकड़ा करीब 70 फीसदी का था। झारखंड के बाद आने वाले समय में बिहार (243 सीटें), दिल्ली (82 सीटें) में अगले साल और उसके बाद पश्चिम बंगाल (295) में 2021 में चुनाव हैं। इन बड़े राज्यों में चुनाव में भाजपा को अपनी स्थिति बेहतर करने के लिए बहुत मेहनत की दरकार रहेगी।
भाजपा खो रही राज्य
क्या भाजपा भी कांग्रेस की तरह ही केन्द्र की पार्टी बनती जा रही है और राज्यों में उसकी पकड़ कमज़ोर पड़ रही है। यह बहुत दिलचस्प बात है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में 300 सीटों के भी पार निकल जाने वाली भाजपा देश के बड़े राज्य माने जाने वाले महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ में सत्ता में नहीं है। यह सब राज्य हाल के महीनों में उसके पास थे। राजनीतिक रूप से देखें, तो भाजपा ने अपनी बड़ी ताकत खो दी है। अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चमक या लोकप्रियता खो दी है। लेकिन भाजपा के लिए यह चिन्ता की बात ज़रूर है कि राज्यों में जनता ने मोदी के करिश्मे से इतर अपने मुद्दों पर वोट डालना शुरू किया है। देश में अभी भी अन्य किसी नेता के मुकाबले मोदी सबसे कद्दावर नेता हैं। लोगों का उन पर विश्वास ही है कि महज़ छ: महीने पहले जनता ने भाजपा को 300 से ज़्यादा लोकसभा सीटें दीं। हालाँकि, सच यह भी है कि राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता। ऐसे में भाजपा के लिए चिन्ता के कई क्षेत्र इन महीनों में उभरे हैं। नहीं उभरे होते तो राज्यों में भाजपा के लिए जनता आँख मूँदकर वोट कर रही होती और विपक्ष और ज़्यादा सिमट गया होता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। भाजपा की ताकत की बात करें, तो मार्च, 2018 में भाजपा के पास 21 राज्यों में सत्ता थी, जिसमें कुछ सहयोगी दलों के साथ थी। दिसंबर 2018 में जब भाजपा ने राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे बड़े और हिन्दी भाषी राज्यों में कांग्रेस को सत्ता खोने के बाद भाजपा के लिए स्थितियाँ दूभर होती दिखती हैं। जम्मू-कश्मीर में िफलहाल किसी की सरकार नहीं और आंध्र प्रदेश और तमिलनाड में भाजपा का ज़्यादा वजूद नहीं है। बड़े राज्यों के नाम पर उत्तर प्रदेश राज्य ही अब भाजपा के पास बचा है, जिसमें उसकी अपने दम पर सरकार है। मार्च 2018 के 21 राज्यों से भाजपा दिसंबर 2019 तक 16 राज्यों तक आ गयी है। इनमें से भाजपा के अपने दम पर राज्य तो महज 11 ही हैं। अन्य पाँच पर वह सहयोगियों के साथ सत्ता में है। हाल के विधानसभा चुनाव नतीजे बताते हैं कि अनुच्छेद-370, राम मंदिर, ट्रिपल तलाक और नागरिकता संशोधन कानून के बजाय जनता स्थानीय मुद्दों को अधिक तरजीह दे रही है। महाराष्ट्र और हरियाणा में सीटें खोने के बाद झारखंड के नतीजे भी यही संकेत करते हैं। भाजपा के लिए सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि वह वोटों के लिए पूरी तरह पीएम मोदी पर निर्भर हो चुकी है। उसके क्षेत्रीय क्षत्रप अर्थात् मुख्यमंत्री सके लिए वोट ले सकने वाले नेता साबित नहीं हुए हैं। हाल के विधानसभा चुनाव में महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस और हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर इसके उदहारण हैं। झारखंड में रघुबर दास सबसे नया उदहारण हैं।