भाजपा और कांग्रेस को मिलेंगे नये राष्ट्रीय अध्यक्ष!

सन् 2019 भी गुज़र गया, हम 2020 में कदम रख चुके हैं। इस साल देश के दो बड़े दलों- भाजपा और कांग्रेस में नये अध्यक्षों को चुना जा सकता है। भाजपा के संगठन चुनाव दिसंबर में होने थे, लेकिन झारखंड विधानसभा के चुनाव और अन्य कारणों से आगे टल गये। यही मामला कांग्रेस का है, जहाँ सोनिया गाँधी कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में पार्टी चला रही हैं। कांग्रेस के नये अध्यक्ष का चुनाव भी नये साल में हो जाएगा।

दोनों ही दलों के लिए आने वाला साल 2020 राजनीतिक दृष्टि से बहुत अहम है। दिल्ली सहित दो राज्य विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। दिल्ली के तो फरवरी में हो जाएँगे, जबकि बिहार के साल के आिखर में होने हैं। दोनों ही चुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए इसलिए भी अहम हैं, क्योंकि भाजपा हाल के विधानसभा चुनावों में अपनी घटती संख्या के झटके से बाहर निकलना चाहती है, वहीं कांग्रेस के पास खोने के लिए भले कुछ न हो, पर राष्ट्रीय स्तर पर वह अपना खोया हुआ रुतबा हासिल करना चाहती है।

क्या चल रहा है भाजपा में?

भाजपा ने जिस तरह अपनी सदस्यता संख्या बढ़ाई है, उससे भाजपा आज दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बन चुका है। भाजपा में नये अध्यक्ष को लेकर भले कांग्रेस जैसी दुविधा न दिखती हो, उसके पास ऐसे नेताओं की कमी नहीं, जो इस पद की दौड़ में माने जाते हैं। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह देश के गृह मंत्री का ज़िाम्मा देख रहे हैं, लिहाजा यह माना जाता है कि पार्टी जल्द ही उनका विकल्प चुन लेगी।

भाजपा का वर्तमान में संगठन के विस्तार पर बहुत ज़्यादा फोकस है। भाजपा की सदस्यता संख्या संगठन चुनाव खत्म होने तक 18 करोड़ पहुँचने का लक्ष्य रखा गया है। दिलचस्प यह है कि दुनिया में सिर्फ आठ देश ऐसे हैं, जिनकी जनसंख्या भाजपा सदस्यों की संख्या से ज़्यादा है। भाजपा ने पिछले सदस्यता अभियान के वक्त यह दावा किया था कि 11 करोड़ मेम्बर्स के साथ पार्टी दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक संगठन है। पार्टी के नेताओं का दावा है कि मोदी के पीएम बनने के बाद बहुत बड़ी संख्या में युवाओं ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की है। जुलाई-अगस्त, 2019 में भाजपा ने सदस्यता अभियान चलाया था। उस अभियान में पार्टी से 5 करोड़, 81 लाख, 33  हज़ार 242 ऑनलाइन सदस्य बने। इनके अलावा 62 लाख के आसपास ऑफलाइन सदस्य पार्टी से जुड़े। नये सदस्यों की संख्या करीब 7 करोड़ पहुँचने के बाद भाजपा कुल 18 करोड़ सदस्य हो जाने कर रही है। सदस्यता फार्म की पूरी पड़ताल के बाद पार्टी इसका आधिकारिक आँकड़ा जारी करेगी।

भविष्य में चुनाव वाले राज्यों पश्चिम बंगाल के अलावा भाजपा ने जम्मू कश्मीर पर भी बहुत फोकस किया है। बंगाल में करीब सवा जम्मू-कश्मीर में छ: लाख सदस्य इस दौरान भाजपा से जुड़े हैं। वैसे 2020 में दिल्ली और बिहार के अललवा पुडुचेरी में भी चुनाव होने हैं। नये अध्यक्ष का फोकस इस संगठन ताकत को चुनावों में बेहतर तरीके से इस्तेमाल करना है।  ऐसे में यह देखना होगा कि भाजपा नया अध्यक्ष कब चुनती है। सम्भावना यही है कि दिल्ली के विधानभा चुनाव के बाद ही नये अध्यक्ष का चयन होगा। इसका एक कारण यह भी है कि प्रदेशों में संगठन चुनाव की प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है। इनके पूरा होते ही नया अध्यक्ष चुना जाएगा।

कांग्रेस में क्या तैयारी?

देश की सबसे पुरानी और एक समय भारत के प्रत्येक छोर तक अपनी पहचान रखने वाली कांग्रेस इस समय एक बुरे दौर से गुज़र रही है। पार्टी को लगता है कि उसका यह दौर जल्दी ही खत्म होगा और वह देश की राजनीति में बड़ा रोल निभाने की स्थिति में होगी। कांग्रेस की वर्तमान अध्यक्ष सोनिया गाँधी कार्यकारी अध्यक्ष हैं और पार्टी को इस साल नया अध्यक्ष चुनना ही है।

कांग्रेस में पिछले दो लोक सभा चुनाव के बाद काफी उथल-पुथल वाली स्थिति रही है। ऐसा नहीं है कि पार्टी का आधार की खत्म हो गया है। राज्यों में अभी भी उसकी सरकारें हैं और आने वाले समय में उसे उम्मीद है कि इसका और विस्तार होगा। लेकिन पार्टी कई राज्यों में कांग्रेस दूसरे दलों के सहारे रह गयी है या उनकी पिछलग्गू की भूमिका ही निभा रही है।

कारण संगठन का कमज़ोर होना है। 2004 और उसके बाद 2009 में जब देश में दोबारा कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार बनने पर संगठन की तरफ बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया गया। इसका नतीजा यह निकला कि जब 2014 के लोक सभा चुनाव के बाद कांग्रेस 55 सीटों पर सिमट गयी, तो ज़मीनी स्तर पर संगठन भी कुछ करने की स्थिति में नहीं रह गया था। भाजपा के विपरीत कांग्रेस में संगठन को मज़बूत करने के लिए 2014 के बाद भी कोर्ई गम्भीर कोशिश नहीं हुई है।

इसके बावजूद राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने दिसंबर, 2018 में तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में शानदार प्रदर्शन कर भाजपा को इस हिन्दी बेल्ट में हराकर अपनी वापसी का संकेत दिया। लेकिन कांग्रेस की सबसे ज़्यादा संगठन दुर्गति 2019 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद हुई है। पार्टी को मिली हार और अमेठी में खुद अपनी सीट हारने से आहत राहुल गाँधी ने अध्यक्ष पद को तिलांजलि दे दी। करीब तीन महीने तक उन्हें मनाने की कोशिश चलती रही लेकिन राहुल गाँधी ने अपना फैसला नहीं बदला। पार्टी को चलाने के लिए सोनिया गाँधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाना पड़ा। इस दौरान पार्टी ने हरियाणा में कुछ बेहतर प्रदर्शन किया और महाराष्ट्र में शिव सेना से समझौता करके सरकार में हिस्सेदारी की ताकि दुश्मन नम्बर-1 भाजपा को सत्ता से बाहर रखा जा सके।

कौन बन सकता है कांग्रेस अध्यक्ष

कांग्रेस की राजनीति का दारोमदार दशकों से नेहरू-गाँधी परिवार के आसपास सिमटा रहा है। बीच में हाल के दशकों में जब परिवार से बाहर सीताराम केसरी जैसा कोर्ई अध्यक्ष बना तो पार्टी की ताकत कमज़ोर ही हुई है। राहुल गाँधी के आने के बाद लगता था कि पार्टी को स्थायी अध्यक्ष मिल गया; लेकिन अपने करीब डेढ़ साल के कार्यकाल में उन्हें वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं का सहयोग नहीं मिला। इसका कारण यह था कि राहुल पार्टी को ज़मीन स्तर पर मज़बूत करने के लिए इसमें लोकतंत्र बहाल करना चाहते थे, जो बहुत से नेताओं को स्वीकार नहीं था। उन्हें लगता था कि इससे उनका अपना अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

राहुल गाँधी

कांग्रेस में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री से लेकर बहुत से ऐसे नेता हैं, जो राहुल गाँधी के समर्थक हैं। राहुल गाँधी महाराष्ट्र में भी शिव सेना से मिलकर सरकार बनाने के सख्त िखलाफ थे। लेकिन अभी भी राहुल को कांग्रेस के भविष्य के रूप में देखा जाता है।

बहुत से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि राहुल की क्षमताओं को बहुत कम करके आँका गया है। उनका तर्क है कि जनता से जुड़े मुद्दों पर राहुल कहीं ज़्यादा संवेदनशील हैं। वे यह भी कहते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले देश के तमाम बड़े नेताओं में अकेले ही थे, जिन्होंने राफेल से लेकर किसान, बेरोज़गारी के मुद्दों पर मोदी जैसे ताकतवर नेता से अकेले लोहा लिया।

उनके समर्थकों का तर्क है कि यदि लोकसभा चुनाव से ऐन पहले पुलवामा और बालाकोट न हुआ होता तो राहुल लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी चुनौती देने की स्थिति में पहुँच चुके थे। उनका कहना है कि भाजपा ने अचानक चुनाव का एजेंडा उग्र राष्ट्रवाद की तरफ मोड़ दिया और राहुल इसके आगे बेबस हो गये। कोर्ई और नेता होता, तो उसकी भी यही हालत होती।

जबकि अन्य मानते हैं कि राहुल गाँधी के रहते पार्टी कुछ नहीं कर पाएगी। उनका तर्क है कि राहुल प्रभावशाली तरीके से नहीं बोलते और मोदी जैसे नेता के सामने वे नौसिखिया लगते हैं। हालाँकि वे यह ज़रूर मानते हैं कि राहुल अपनी कुछ कमज़ोरियों से बाहर निकल सकें, तो उनमें सम्भावनाएँ हैं।

करीब 48 साल के राहुल गाँधी के पिता देश के प्रधानमंत्री रहे, जिससे उन्हें राजनीति के घुट्टी घर में ही मिली। दादी इंदिरा गाँधी और पिता राजीव गाँधी की मौत छोटी उम्र में ही देखने वाले राहुल गाँधी ने 2004 में पहला चुनाव अमेठी से लोकसभा का लड़ा और जीत हासिल की। साल 2007 में उन्हें कांग्रेस का महासचिव बनाया गया और एनयेसयूआयी और युवा कांग्रेस का काम देखने को कहा गया।

जब 2009 में आम चुनाव हुए तो वे दोबारा अमेठी से जीते। कांग्रेस को भी बड़ी जीत  मिली, जिसका श्रेय उन्हें दिया गया। खासकर यूपी में जहाँ कांग्रेस ने आश्चर्यजनक रूप से उलटफेर करते हुए 23 सीटें जीत लीं। इसके बाद 2013 में वे कांग्रेस के उपाध्यक्ष नियुक्त किये गये। साल 2014 में कांग्रेस चुनाव हार गयी; लेकिन अमेठी में राहुल फिर जीत गये। कांग्रेस के बहुत मुश्किल  दौर में दिसंबर 2017 में उन्हें  कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। उनके अध्यक्ष बनने के एक साल के बाद ही पार्टी ने तीन राज्यों में भाजपा को हराकर सत्ता में लम्बे समय के बाद वापसी की।

उनके लिए सबसे कठिन समय 2019 के लोकसभा चुनाव में आया जब कांग्रेस उनके नेतृत्व में लोकसभा चुनाव बुरी तरह हार गयी। पार्टी को 55 सीटें मिलीं और राहुल गाँधी अमेठी की अपनी प्रिय सीट से हार गये। हालाँकि, केरल के वायनाड से वे बड़े अन्तर के साथ लोकसभा के लिए चुने गये। चुनाव में हार के बाद राहुल गाँधी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

अब जबकि अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी को कुछ महीनों में अपना पद छोड़ देना है, संगठन चुनाव में नया अध्यक्ष चुना जाना है, तो कांग्रेस के भीतर एक बड़ा वर्ग राहुल को दोबारा ज़िाम्मेदारी देने की ज़ोरदार वकालत कर रहा है।

प्रियंका गाँधी

राहुल गाँधी की बहन प्रियंका गाँधी को देश के राजनीति में इंदिरा गाँधी का रूप बताया जाता है। वर्तमान में वे कांग्रेस की महासचिव और उत्तर प्रदेश की प्रभारी हैं। हाव-भाव से इंदिरा गाँधी का अहसास कराने वालीं प्रियंका को एक आक्रामक नेता माना जाता है और हाल के महीनों में उन्होंने यूपी कांग्रेस के संगठन में सक्रिय हिस्सेदारी की है।

प्रियंका नागरिकता कानून के िखलाफ आन्दोलन भी काफी सक्रिय दिखी हैं। करीब 46 साल की प्रियंका को कांग्रेस की राजनीति में एक बड़ी सम्भावना के रूप में देखा जाता है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस उन्हें यूपी में पार्टी को खड़ा करने की ज़िाम्मेदारी देकर 2022 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद के लिए आगे करना चाहती है। यही सलाह प्रशान्त किशोर ने भी कांग्रेस को दी थी, जब उन्हें यूपी चुनाव के लिए कांग्रेस का रणनीतिकार बनाया गया था।

साल 2019 के शुरू में कांग्रेस महासचिव बनने से पहले प्रियंका अमेठी और माँ सोनिया गाँधी के रायबरेली हलकों का ही ज़िाम्मा देखती थीं। हालाँकि, इस बार वे झारखंड में चुनाव प्रचार करने भी गयीं। यह तय है कि यदि राहुल अध्यक्ष बनने से अब भी मन कर देते हैं, तो प्रियंका को पार्टी की बागडोर सौंपी जा सकती है।

अन्य दावेदार

गाँधी परिवार से बाहर कांग्रेस में प्रतिभाशाली नेताओं की कमी नहीं है। कुछ ऐसे युवा तुर्क हैं, जिनका नाम विकल्प के लिया जाता है। इनमें सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य, मिलिंद देवड़ा, सुष्मिता देव जैसे नाम हैं। सचिन राजस्थान के उप मुख्यमंत्री हैं और साथ ही राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष भी। संगठन का उनका खासा अनुभव है। ऐसा माना जाता है कि पार्टी गाँधी परिवार से बाहर जाकर यदि किसी का चयन करती हैं, तो उनमें सचिन पायलट एक हो सकते हैं। करीब 42 साल के पायलट पाँच साल से राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। उनका नाम राजस्थान में मुख्यमंत्री पद के लिए भी आगे था, लेकिन पार्टी ने अनुभवी अशोक गहलोत को तरजीह दी। हिन्दी भाषी प्रदेश हो होना उनकी सबसे बड़ी ताकत है।

उनके बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया भी एक ऐसा नाम हैं, जो अध्यक्ष पद की दौड़ में बन सकते हैं। करीब 48 साल के सिंधिया केंद्र में मनमोहन सरकार में मंत्री रह चुके हैं। साल 2002 में पहली बार सांसद चुने गये और 2014 के मोदी लहर में भी मध्य प्रदेश से जीते। हालाँकि, 2019 में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। तीसरा नाम सुष्मिता देव का है। महिला कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं सुष्मिता देव राजनीतिक परिवार से आती हैं। वे 2014 में भाजपा लहर के बावजूद सिलचर से चुनाव जीत गयीं। हालाँकि, 2019 में हार गयीं।

कांग्रेस अध्यक्ष (स्वतंत्रता के बाद)

आचार्य जेबी कृपलानी (1947-1948), पट्टाभि सीतारमैया (1948-1950), पुरुषोत्तम दास टंडन (1950-1951), जवाहरलाल नेहरू (1951-1955), यूएन ढेबर (1955-1959),  इंदिरा गाँधी (1959-1960), नीलम संजीव रेड्डी (1960-1964), के कामराज (1964-1968), एस निजलिंगप्पा (1968-1969), पी मेहुल (1969-1970), जगजीवन राम (1970-1972), शंकर दयाल शर्मा (1972-1974), देवकांत बरुआ (1975-1977), इंदिरा गाँधी (1978-1984), राजीव गाँधी (1985-1991), कमलापति

भाजपा के अध्यक्ष

अटल बिहारी वाजपेयी      1980-1986

लालकृष्ण आडवाणी         1986-1991

मुरली  मनोहर जोशी       1991-1993

लालकृष्ण आडवाणी         1993- 1998

कुशाभाऊ ठाकरे 1998-2000

बंगारू लक्ष्मण     2000-2001

जेना कृष्णमूर्ति    2001-2002

वेंकैया नायडू      2002-2004

लालकृष्ण आडवाणी         2004-2006

राजनाथ सिंह      2006-2009

नितिन गडकरी    2009-2013

राजनाथ सिंह      2013-2014

अमित शाह        2014 से अब तक

पिछले साल लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी ने जेपी नड्डा को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था। दरअसल, भाजपा के संगठन चुनाव दिसंबर, 2019 में ही होने थे; लेकिन विभिन्न कारणों से इन्हें आगे खिसकाना पड़ा। पार्टी सदस्यता अभियान भी तेज़ी से आगे बढ़ा है। कुछ राज्यों में संगठन की चुनाव की प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है। उम्मीद है कि नये साल में भाजपा को नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिल जाएगा। कुछ सम्भावित चेहरे इस प्रकार हैं-

जगत प्रकाश नड्डा

अपने गृह राज्य हिमाचल में समर्थकों में जेपी के नाम से जाने-जाने वाले जगत प्रकाश नड्डा आज जहाँ भी हैं, अपनी मेहनत और संगठन के प्रति गहरे समर्पण के बूते हैं। वैसे तो एबीवीपी के समय से ही नड्डा अपनी संगठन क्षमताओं के कारण एक जाना पहचाना चेहरा रहे हैं, भाजपा में उन्होंने एक लम्बा सफर तय किया है।

उनके राजनीतिक करियर ने ऊँची उड़ान भरी उत्तर प्रदेश भाजपा का प्रभारी बनने के बाद। नड्डा ने संगठन को सपा-बसपा गठबन्धन के सामने भी कमज़ोर नहीं पडऩे दिया और भाजपा ने मई, 2019 के लोक सभा चुनाव में 80 में से 64 सीटें जीत लीं। यह नड्डा की संगठन क्षमता के बूते ही सम्भव हुआ था। इसके बाद नड्डा को भाजपा का कार्यकारी अधयक्ष बना दिया गया। नड्डा फरवरी 2010 से नवम्बर 2014 तक नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह और अमित शाह के साथ पार्टी के महासचिव के रूप में काम कर चुके हैं।

इस मुकाम तक पहुँचने के लिए नड्डा एक लम्बा सफर तय किया है। पटना में 1960 में जन्मे नड्डा इस समय राज्य सभा के सदस्य हैं, जबकि पिछली मोदी सरकार में वे स्वास्थ्य मंत्री थे। 1983 में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में एबीवीपी अध्यक्ष बने और 1991 में भारतीय जनता युवा मोर्चा (भाजयुमो) के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गये। हिमाचल के बिलासपुर से 1993 में पहली बार विधायक चुने गये और 1998 में प्रेम कुमार धूमल सरकार में पहली बार और 2007 में दूसरी बार मंत्री बने।

तीन साल बाद ही सरकार में मंत्री पद छोडक़र 2010 में वे भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री बनाये गये। वे इस दौरान जम्मू-कश्मीर, तेलंगाना, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, केरल, राजस्थान और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों के प्रभारी रहे। साल 2102 में उन्हें राज्यसभा सदस्य चुना गया, जबकि 2014 में नड्डा भाजपा केन्द्रीय संसदीय बोर्ड के सचिव नियुक्त हुए। अब भाजपा का कार्यकारी अध्यक्ष होने के नाते उन्हें भाजपा अध्यक्ष पद का स्वाभाविक दावेदार माना जा रहा है।

भूपेंद्र यादव

भारतीय जनता पार्टी में यह कहा जाता कि भूपेंद्र यादव अमित शाह के बहुत भरोसेमंद हैं। उन्हें संगठनात्मक रणनीति में माहिर माना जाता है। हाल के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में वह भाजपा के प्रभारी थे। वहाँ भाजपा की सरकार न बन पाने और उभर रही राजनीतिक परिस्थितियों को समझने में चूक से उन्हें थोड़ा राजनीतिक नुकसान ज़रूर हुआ है, इसके बावजूद उनकी संगठन क्षमता को कमतर नहीं आँका जा सकता।

राजस्थान के अजमेर के रहने वाले यादव करीब 50 साल के हैं और कानून के स्नातक और सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं। अजमेर कॉलेज छात्रसंघ के अध्यक्ष 2010 में भाजपा के राष्ट्रीय सचिव बने और में महासचिव बन गये। पार्टी ने 2012 में उन्हें राज्यसभा भेजा और 2013 में राजस्थान प्रभारी की ज़िाम्मेदारी सौंपी, जिसमें भाजपा ने जीत दर्ज की। साल 2014 में झारखंड और 2017 में गुजरात के चुनाव जीतने में उनकी बड़ी भूमिका रही। यही नहीं उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी उन्होंने परदे के पीछे से बड़ी भूमिका निभायी। नड्डा के बाद यदि किसी को भाजपा में अध्यक्ष पद का सबसे मज़बूत दावेदार माना जाता है तो वे भूपेंद्र यादव ही हैं।

धर्मेेंद्र प्रधान

मोदी सरकार में मंत्री धर्मेेंद्र प्रधान के गिनती भी भाजपा में संगठन के माहिर लोगों में की जाती है। साल 2004 में वे भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये गये और उसी साल ओडिशा के देवगढ़ से लोकसभा के लिए चुने गये। इससे पहले 2000 में वे विधानसभा चुनाव जीत चुके थे और 1995 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय सचिव थे। पहली बार 2012 में बिहार से राज्यसभा सांसद चुने गये। प्रधान को भी नड्डा और यादव की ही तरह अमित शाह का करीबी माना जाता है। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा के शानदार प्रदर्शन में उनकी रणनीति का बड़ा रोल माना जाता है। भाजपा की नयी पीढ़ी के नेताओं में उनकी गिनती सबसे असरदार नेताओं में होती है। करीब 50 साल के प्रधान को राजनीतिक घुट्टी परिवार में ही मिली। धर्मेेंद्र प्रधान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में रहे हैं। वे झारखंड और छत्तीसगढ़ में भाजपा प्रभारी और उत्तराखंड में चुनाव प्रभारी रहे हैं, जबकि 2007 में भाजपा के राष्ट्रीय सचिव बने। साल 2019 में मोदी सरकार में उन्हें मंत्री बनाया गया।