नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान अपने-अपने राज्यों के सूखे इलाकों में नर्मदा का पानी पहुंचाना चाहते हैं. क्या उनकी यह महत्वाकांक्षी कावेरी जल विवाद जैसी अंतहीन समस्या खड़ी करने वाली है? शिरीष खरे की रिपोर्ट.
भले ही गुजरात और मध्य प्रदेश में एक ही पार्टी भारतीय जनता पार्टी की सरकार हो लेकिन नर्मदा को लेकर दोनों राज्य द्वंद्व और टकराव के मुहाने पर खड़े हैं. पानी के बंटवारे को लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आमने-सामने आ गए हैं.
शिवराज सिंह के करीबी अधिकारी नर्मदा को लेकर ताजा विवाद की शुरूआत मोदी के चौथी बार सत्ता में वापसी के बाद हुए शपथ समारोह से जोड़कर देख रहे हैं. मोदी ने चुनाव के ठीक पहले नर्मदा के पानी से अपनी राजनीतिक फसल बोकर सौराष्ट्र में निर्णायक बढ़त हासिल की थी. सो जब उनका शपथग्रहण समारोह हुआ तब मोदी ने मंच से घोषणा कर दी कि आने वाले दिनों में वे सौराष्ट्र के सारे बांधों को नर्मदा के पानी से लबालब कर देंगे. मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी इस समारोह में उपस्थित थे. नर्मदा पर मोदी की इस सियासी चाल से सबक लेते हुए चौहान ने अहमदाबाद से भोपाल लौटते ही नर्मदा का पानी मप्र के निमाड़ और मालवा के कोने-कोने तक पहुंचाने की घोषणा कर दी. गौरतलब है कि पिछले विधानसभा चुनाव में प्रदेश का यही हिस्सा है जहां भाजपा को सबसे कम बढ़त मिली थी. इसी को ध्यान में रखते हुए चौहान ने नर्मदा का पानी क्षिप्रा में डालने की उस महत्वाकांक्षी योजना को पहले ही हरी झंडी दिखा दी है जिसमें उन्होंने महाकालेश्वर की नगरी उज्जैन सहित आस-पास के सैकड़ों गांवों की प्यास बुझाने का दावा किया है. मोदी और चौहान के भविष्य की राजनीति काफी हद तक नर्मदा के पानी पर टिकी है और दोनों ही खुद को विकासपुरुष के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं. इसलिए उनके बीच टकराव होना स्वाभाविक है. इसी कड़ी में चौहान ने एनसीए (नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण) और केंद्रीय जल आयोग को इसी जनवरी में पत्र लिखकर मोदी की उस दस हजार करोड़ रुपये की लागत वाली नर्मदा अवतरण योजना पर सख्त आपत्ति जताई है जिसमें गुजरात सौराष्ट्र के तकरीबन 115 बांधों को नर्मदा के पानी से भरना चाहता है. चौहान ने अपने पत्र में गुजरात पर हर साल निर्धारित मात्रा से एक चौथाई अधिक पानी लेने और कई शहरों में उसके व्यावसायिक इस्तेमाल किए जाने का आरोप लगाया है.
नर्मदा से ही जुड़े एक और मामले में चौहान ने सरदार सरोवर बांध के नीचे प्रस्तावित गरुड़ेश्वर योजना से भी अपना हाथ खींचना तय किया है. मुख्यमंत्री का मानना है कि मप्र को इससे बिजली का कोई लाभ नहीं मिलेगा.
दोनों राज्यों के बीच पानी पर शुरू हो रही इस खींचतान को समझने के लिए हमें दिसंबर, 1979 में नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के उस निर्णय में जाना होगा जिसमें न्यायाधिकरण ने अगले 45 साल के लिए मप्र को 18.25 एमएएफ (मिलियन एकड़ फीट), गुजरात को नौ एमएएफ और राजस्थान तथा महाराष्ट्र को क्रमशः 0.50 और 0.25 एमएएफ पानी आवंटित किया था.
हालांकि मप्र ने एनसीए में गुजरात के खिलाफ जो आपत्ति लगाई है उसका गुजरात की तरफ से आधिकारिक जवाब आना अभी बाकी है कि वह नौ एमएएफ से अधिक पानी का इस्तेमाल कर भी रहा है या नहीं, लेकिन जल क्षेत्र के कई जानकारों का मानना है कि गुजरात जिस तरह से अपने यहां जल योजनाओं का जाल फैला रहा है उससे यह तो साफ है कि निकट भविष्य में वह बड़े पैमाने पर पानी के इस्तेमाल की तैयारी कर रहा है. जल नीतियों पर शोध करने वाली संस्था सैंड्रप (दिल्ली) के हिमांशु ठक्कर बताते हैं, ‘ गुजरात में तकरीबन 18 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई की जानी है लेकिन फिलहाल यहां नहरें नहीं बनने से सिर्फ दस फीसदी क्षेत्र में ही सिंचाई की जा रही है. मगर जैसा कि गुजरात की तैयारी है वह सौराष्ट्र के बांधों को नर्मदा के पानी से भरेगा, बड़ोदरा जैसे कई बड़े शहरों तक उसका पानी पहुंचाएगा, धौलेरा (अहमदाबाद) में बनने वाले एक विशालकाय औद्योगिक क्षेत्र में जलापूर्ति करेगा और सरदार सरोवर की मूल योजना से अलग गैर-लाभ क्षेत्रों में भी पंपों के जरिए पानी लेने की छूट देगा तो जल्द ही नर्मदा को लेकर दोनों राज्यों के बीच विवादों का नया दौर शुरू होना तय है.’ ठक्कर आगे यह भी जोड़ते हैं कि पानी का इस्तेमाल एक बार शुरू हुआ तो राजनीतिक दबाव इस हद तक बन जाएगा कि फिर उसे रोक पाना संभव नहीं होगा.
गुजरात ने कच्छ के क्षेत्र को हराभरा बनाने के नामपर अधिक पानी की मांग की थी लेकिन आज की तारीख में नर्मदा का 90 फीसदी पानी मध्य गुजरात में जा रहा है
वहीं तहलका के साथ बातचीत में नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर बताती हैं कि गुजरात जिन योजनाओं पर काम कर रहा है वे 1979 में न्यायाधिकरण को बताई गई उसकी मूल योजना से पूरी तरह भिन्न हैं. जैसे नर्मदा का पानी साबरमती में डालने का प्रावधान ही नहीं था. इसी तरह साबरमती के दक्षिण में भी किसी उद्योग को पानी देना तय नहीं था, लेकिन आज वहां पानी पहुंचाया जा रहा है. इसी तरह, मूल योजना में अहमदाबाद का कहीं नाम ही नहीं था. बावजूद इसके उसे भरपूर पानी दिया जा रहा है. कैग की रिपोर्ट में भी यह सामने आ चुका है कि गुजरात ने एक दशक पहले नर्मदा का पानी गांधीनगर तक पहुंचाने के लिए 40 करोड़ रुपये की जो योजना बनाई थी वह मूल योजना के बजट में थी ही नहीं. मेधा मानती हैं, ‘मप्र को समय-समय पर सवाल उठाने चाहिए थे. मगर ऐसा नहीं हुआ और न ही उसने अपने हिस्से में आने वाले घाटों का कोई हिसाब ही रखा.’
दूसरी तरफ गुजरात के पूर्व नर्मदा विकास मंत्री जय नारायण व्यास ऐसी बातों से इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘हमने मप्र से कभी नहीं पूछा कि उसने अपने हिस्से के पानी का कैसे इस्तेमाल किया है. इसलिए गुजरात को यह हक है कि वह अपने पानी का जैसा चाहे वैसा इस्तेमाल करे.’ मगर ऐसा कहते हुए व्यास पानी के बंटवारे के एक अहम सिद्धांत और गुजरात के मूल प्रस्ताव के उस आधार को भुला रहे हैं जिसके चलते न्यायाधिकरण ने गुजरात को सबसे अधिक महत्व दिया था. नदी विवाद से जुड़े तकनीकी विशेषज्ञों की राय में जब किसी नदी के पानी का बंटवारा किया जाता है तो उसमें रायपेरियन राइट यानी तटवर्ती अधिकारों (बांध के पहले वाले हिस्से का जलग्रहण क्षेत्र और उसके दूसरी ओर वाला जलग्रहण क्षेत्र) को ध्यान में रखा जाता है.
इस लिहाज से जिस जगह पर सरदार सरोवर बना है वहां मप्र के 90 फीसदी जलग्रहण क्षेत्र के मुकाबले गुजरात का जलग्रहण क्षेत्र सिर्फ दो फीसदी है. इस हिसाब से गुजरात को सिर्फ दो फीसदी पानी मिलना चाहिए था. मगर इस योजना में गुजरात को 36 फीसदी पानी दिया गया. साथ ही 16 फीसदी बिजली भी. तब (1969-79) मप्र ने गुजरात को इतना अधिक पानी देने के सवाल पर कड़ा विरोध किया था. मगर न्यायाधिकरण का अपने फैसले के पक्ष में तर्क था कि गुजरात ने कच्छ जैसे सूखाग्रस्त इलाके को हरा-भरा बनाने के नाम पर इतना अधिक पानी मांगा था. ऐसे में अब यदि गुजरात कच्छ को सबसे अधिक पानी नहीं देता है तो यह योजना की मूल भावना के खिलाफ होगा. लेकिन सरदार सरोवर के लाभ क्षेत्र का नक्शा बताता है कि गुजरात कच्छ के खेती लायक इलाके के सिर्फ दो फीसदी हिस्से में ही सिंचाई करेगा. जबकि मध्य गुजरात (बड़ोदरा, अहमदाबाद, खेड़ा, आणंद) को 50 फीसदी से भी अधिक पानी दिया जाएगा. गौरतलब है कि मध्य गुजरात पूरे गुजरात के राजनीति की मुख्य धुरी है. पानी की उपलब्धता के मामले में भी यह इलाका पहले से सम्पन्न माना जाता है. बावजूद इसके इन दिनों सरदार सरोवर बांध का 90 फीसदी पानी अकेले मध्य गुजरात को दिया जा रहा है. जाहिर है इस नदी विवाद का एक निचोड़ यह भी है कि जिस आधार पर एक राज्य न्यायाधिकरण से अधिक पानी की मांग करता है उसी आधार पर बने रहने के लिए वह बंधा हुआ नहीं है.
न्यायाधिकरण की शर्तों के मुताबिक राज्यों के बीच पानी के बंटवारे पर पुनर्विचार 2024 के पहले नहीं किया जा सकता. मप्र को डर यह है कि 2024 के बाद गुजरात और अधिक पानी की मांग न कर बैठे. जलाधिकार पर अध्ययन करने वाली संस्था मंथन अध्ययन केंद्र (पुणे) के श्रीपाद धर्माधिकारी कहते हैं, ‘मप्र यदि योजना के अनुरूप जल परियोजनाओं का ढांचा खड़ा नहीं कर पाता और अपने हिस्से का 18.25 एमएएफ पानी इस्तेमाल नहीं कर पाता है तो 2024 में गुजरात उसके हिस्से का पानी भी मांग सकता है.’ असल में पानी के बंटवारे का एक सिद्धांत यह भी है कि कौन पहले पानी के उपभोग पर अपना अधिकार जमा पाता है. इस सिद्धांत के मुताबिक जो सबसे पहले पानी का उपभोग करता है उसके अधिकार को वरीयता मिल जाती है. इस मामले में मप्र के मुकाबले गुजरात जिस तेजी से जल परियोजनाओं का ढांचा बनाते हुए पानी का उपभोग कर रहा है उससे मप्र की मुश्किलें बढ़ गई हैं. अगले 11 साल में बुनियादी ढांचे के निर्माण की चुनौती मध्य प्रदेश के लिए बहुत बड़ी है. इस अवधि में उसे नर्मदा घाटी में 29 बड़े, 135 मध्यम और 3 हजार से अधिक छोटे बांध तो बनाने ही हैं, 27 लाख 50 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई का तंत्र भी तैयार करना है.
‘यदि मध्य प्रदेश योजनाओं के अनुरूप बुनियादी ढांचा नहीं बना पाया तो सन 2024 के बाद गुजरात अधिक पानी की मांग कर सकता है’
इसके लिए मुख्यमंत्री चौहान ने हाल ही में संबंधित विभागों के सभी मंत्रियों और आला अधिकारियों की एक अहम बैठक बुलाकर समय-सीमा से चार साल पहले यानी 2020 तक नर्मदा के पानी का पूरा उपयोग करने की रूपरेखा भी बनाई है. मगर बीते दशकों में नर्मदा परियोजनाओं की सुस्त चाल को देखते हुए यह काफी मुश्किल लक्ष्य लगता है. वरिष्ठ पत्रकार अनुराग पटैरिया के मुताबिक, ‘बरगी नर्मदा पर बना पहला बांध था, जिसमें 1990 में ही पानी भर दिया गया था लेकिन आज तक उसकी नहरें नहीं बन पाई हैं.’ वहीं इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर जैसे बड़े बांधों को बनाने का काम भी अपेक्षा से काफी पीछे चल रहा है. दरअसल मप्र के लिए एक दिक्कत यह भी है कि जिस बड़ी संख्या में उसे बांध बांधने हैं उसी अनुपात में विस्थापितों का पुनर्वास भी करना है. 1979 से 2013 के बीच मप्र से जुड़ा सबसे अहम पहलू यह है कि एक तो वह पानी का सही ढंग से उपयोग भी नहीं कर पाया और उस पर भी बड़े बांधों के चलते उसका बहुत बड़ा हिस्सा डूब गया. नर्मदा बचाओ आंदोलन के आलोक अग्रवाल के मुताबिक मप्र को यदि सच में नर्मदा के पानी का उपयोग करना है तो उसे चाहिए कि वह विस्थापित परिवारों को पहले बसाए. वे कहते हैं, ‘पुनर्वास नहीं तो बांध नहीं और बांध नहीं तो पानी का उपयोग नहीं हो पाएगा.’
अब जबकि गुजरात नर्मदा से जुड़ी योजना को लेकर सौराष्ट्र की तरफ बढ़ गया है तो दोनों राज्यों के अधिकारियों के बीच हलचल भी बढ़ गई है. मप्र के इंजीनियरों का तर्क है कि यदि गुजरात 9 एमएएफ से अधिक पानी लेगा तो सरदार सरोवर बांध के रिवर बेड (नदी तल) पावरहाउस के लिए पानी कम पड़ जाएगा और बिजली भी कम बनेगी. आखिकार मप्र को बिजली का नुकसान उठाना पड़ेगा. वहीं मप्र सरकार ने रिवर बेड पॉवरहाउस से बिजली बनने के बाद छूटे पानी को समुद्र में जाने से रोकने और उससे अतिरिक्त बिजली बनाने के लिए सरदार सरोवर बांध से 15 किलोमीटर नीचे प्रस्तावित गरुड़ेश्वर योजना से पीछे हटने का निर्णय लिया है. मप्र के अधिकारियों का कहना है कि उन्होंने प्राइस वाटरहाउस कूपर्स नामक कंपनी से सर्वे कराया है और उसने बताया है कि इससे काफी महंगी बिजली बनेगी. अधिकारियों के मुताबिक योजना में आधे से अधिक पैसा मप्र का ही खर्च होता और इसीलिए इससे बनने वाली बिजली का सबसे अधिक बोझ भी मप्र पर ही पड़ता.
गौरतलब है कि गरुड़ेश्वर योजना के निर्माण में 427 करोड़ रुपये खर्च होंगे और यदि मप्र इसमें भागीदार बनता है तो न्यायाधिकरण की शर्त के हिसाब से उसे 242 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे. उधर गुजरात में सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड के प्रबंध निदेशक एफ जगदीशन को मप्र के इस निर्णय पर कड़ा एतराज है. जगदीशन के मुताबिक, ‘गरुड़ेश्वर सरदार सरोवर बांध की एक अहम योजना है और अब यदि मप्र करार से पीछे हटता है तो हमारे पास न्यायाधिकरण में जाने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा.’
समाजवादी नेता सुनील बताते हैं कि अंतर्राज्यीय नदियों के बीच जब बड़े बांध बनाए जाते हैं तो उनमें इस तरह के भेदभाव निहित होते हैं और विवाद भी पनपते हैं. इस मामले में यदि मप्र को सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ा है तो इसलिए कि अधिकतर नदियां यहां से निकलती हैं और अपना पानी लेकर पड़ोसी राज्यों में जाती हैं. नदी के उद्गम पर पानी कम होता है इसलिए बड़े बांध उद्गम पर बनाने के बजाय पड़ोसी राज्यों की सीमा पर बनाए जाते हैं. सुनील कहते हैं, ‘मप्र की भौगोलिक स्थिति देखी जाए तो यह एक पठारी राज्य है. इसलिए सीमा पर बनने वाले बांधों का डूब क्षेत्र इस राज्य में आता है और पानी का लाभ नीचे और मैदानी इलाकों वाले पड़ोसी राज्यों को मिलता है.’ सरदार सरोवर बांध के मामले में भी ठीक ऐसा ही हुआ है- सिंचाई का सारा लाभ गुजरात को मिला है और हजारों हेक्टेयर जमीन की डूब मप्र के हिस्से में आई है.
हकीकत यह भी है कि मप्र के सामने दर्जनों मौके आए जब गुजरात के लाभ के आगे राज्य और उसके बांशिदों के हक प्रभावित हुए लेकिन मप्र के मुकाबले गुजरात की राजनीतिक लॉबी केंद्र के निर्णयों पर भारी पड़ती रही. बदली हुई परिस्थितियों में अब देखना यह है कि चौहान मोदी पर कितना भारी पड़ते हैं.