छह दिसंबर को हिंदू विजय दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए.उमा भारती, भाजपा नेत्री
हमें कुछ शत्रुओं से सचेत रहने की जरूरत है. जेहादियों से, हिंसक चर्च से, कम्युनिस्ट विचारधारा से, सेक्युलर हिंदू से और कुछ मीडियावालों से भी.
अशोक सिंहल, अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष, विश्व हिंदू परिषद
अहिंसक होना ही हिंदुओं की सबसे बड़ी कमजोरी है. वेदों ने चूड़ियां पहनकर बैठे रहने को नहीं कहा है. एक हाथ में माला तो दूसरे में भाला भी रखना होगा.स्वामी नरेंद्रानंद सरस्वती, शंकाराचार्य, सुमेरू पीठ, काशी
अपने ही मुल्क में हिंदू बकरी की तरह हो गए हैं, जो संख्याबल में ज्यादा रहने के बावजूद शेर की एक दहाड़ से छिपते हैं. सुब्रमण्यम स्वामी, अध्यक्ष, जनता पार्टी
बीते नवंबर की 29 और 30 तारीख को जब गिरते तापमान के साथ पटना में ठंड दस्तक दे रही थी तो शहर के ही एक प्रतिष्ठित सरकारी संस्थान के सभागार में ऐसे ही कई वक्तव्यों की गूंज माहौल में गर्मी पैदा कर रही थी. कई बार ये वक्तव्य उग्रता और उन्माद की पराकाष्ठा तक पहुंचते रहे. मौका था ‘संस्कृति बचाओ महासम्मेलन’ नामक एक आयोजन का जिसे नई दिल्ली की एक संस्था ‘सांस्कृतिक गौरव संस्थान’ ने आयोजित किया था.संस्कृति को ढाल बनाकर हुए इस दो दिनी आयोजन से एक बार फिर संकेत मिला कि बिहार हिंदुत्व की राजनीति का नया अखाड़ा बनने की राह पर अग्रसर है. संकेत तो पहले भी मिले थे लेकिन स्पष्टता और अस्पष्टता के बीच के. बेगूसराय के सिमरिया में अर्धकुंभ हुआ तो उसे धार्मिक आयोजन की परिधि में बांधा गया था. लेकिन इस पर अच्छी-खासी राजनीति हो गई. उस धार्मिक आयोजन में भी विहिप नेता प्रवीण तोगडि़या धार्मिक गर्जना की बजाय कुछ और भी बोलकर निकले थे. अच्छे संकेत नहीं थे वे. फिर हाल ही में आडवाणी की यात्रा की शुरुआत भी बिहार से हुई थी जिसमें उन्होंने बार-बार रामरथ यात्रा पर गौरवान्वित होते हुए उसका बखान किया था.
बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता राष्ट्रीय जनता दल के अब्दुल बारी सिद्दिकी कहते हैं, ‘एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट में जो आयोजन हुआ, उसमें अचरज जैसी कोई बात नहीं. यहां जब से एनडीए सरकार बनी है, तोगडि़या, सिंहल आदि आते रहते हैं, अपनी बात बोलते रहते हैं. राजगीर में ही संघ ने अपना राष्ट्रीय सम्मेलन भी किया.’अब सवाल यह है कि क्या पिछले चुनाव में तुलनात्मक रूप से नीतीश कुमार से भी ज्यादा बड़ी जीत हासिल करने वाली भाजपा एक नई रणनीति पर काम कर रही है. क्या हिंदुत्व को उभारकर लालू प्रसाद को फिर से मजबूत करके भाजपा बनाम लालू का राजनीतिक खेल खेलने की तैयारी चल रही है?राज्य भाजपा के वरिष्ठ नेता और प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चौबे तर्क देते हैं कि हिंदुत्व की बात करने में बुराई क्या है. वे कहते हैं, ‘हिंदुत्व कोई धर्म या संप्रदाय नहीं बल्कि एक संस्कृति है. वे कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि इस तरह की बातें जो करते हैं वे अपने ही पूर्वजों को गाली देते हैं.’ उधर, सामाजिक कार्यकर्ता अरशद अजमल कहते हैं, ‘पिछले चुनाव में मतों के ध्रुवीकरण के बाद भाजपा अब दूसरे तरीके से ध्रुवीकरण की कोशिश में है.’ वे आगे कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब तक यह समझ पाएंगे तब तक शायद काफी देर हो चुकी होगी. फिर वे पीएम तो क्या, सीएम बने रहने की स्थिति में भी नहीं रहेंगे.’
हाल के दिनों में बिहार में घटित कुछ नए राजनीतिक घटनाक्रम से अजमल की बातों को बल मिलता है. एक तरफ नीतीश कुमार पार्टी का आधार मजबूत करने के लिए लगातार अभियान चला रहे हैं, तो दूसरी तरफ बिहार में भाजपा के आला नेता बिना ज्यादा शोर किए राज्य में जगह-जगह धार्मिक सम्मेलनों के जरिए एक नई रणनीति बनाने के क्रम में प्रयासरत हैं.
‘मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब तक यह समझ पाएंगे तब तक शायद काफी देर हो चुकी होगी’
विपक्षी आरोप लगाते हैं कि इस रणनीति को नीतीश जान-बूझकर अनदेखा कर रहे हैं. सिद्दिकी कहते हैं, ‘फारबिसगंज प्रकरण पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मौन साधे रहे. वे मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाए रखने और भविष्य में प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे हैं. यह उनका मौन नहीं, मुखर समर्थन है, तभी यह सब संभव हो रहा है.’ वहीं अश्विनी चौबे सिद्दिकी के इस आरोप को खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ‘विपक्ष के पास कोई मुद्दा नहीं बचा है. नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार फल-फूल रहा है. मुसलिम इनसे दूर भाग गए. बहुसंख्यक इनसे डरते हैं. इस तरह की बात करने वाले लोग दरअसल मानसिक दिवालिएपन के शिकार हैं.’
चौबे जो भी कहें यह तो साफ दिखता ही है कि विपक्ष बिहार में लगभग लाचार है. वरना संस्कृति महासम्मेलन के नाम पर पटना में जिस तरह दो दिन तक यह खास आयोजन हुआ, एक सरकारी संस्थान में प्रस्तावित राम मंदिर की तसवीरें टांगने के साथ-साथ उग्र साहित्य की बिक्री हुई और गरमागरम भाषण होते रहे, उसके बाद भी विपक्ष की लगभग निष्क्रियता उसकी बेबसी को ही दिखाती है. राजनीतिक कार्यकर्ता महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘ऐसे आयोजन पर सिर्फ नीतीश या सरकार पर निशाना साधने की बजाय धर्मनिरपेक्ष पार्टियों व विपक्षी दलों को खुद के बारे में सोचना होगा कि वे क्यों नहीं विरोध की ताकत जुटा रहे. मौन व्रत में क्यों चल रहे हैं!’
प्रधानमंत्री पद के लिए ‘एक अनार, सौ बीमार’ के दौर से गुजर रही भाजपा के लिए इस आयोजन में छोड़ा गया एक नया शगूफा बड़े सिरदर्द की तरह उभरा. यहां गंगा की सांस्कृतिक महत्ता पर बोलने पहुंची भाजपा नेत्री उमा भारती ने जनता पार्टी के अध्यक्ष डॉ सुब्रमण्यम स्वामी प्रधानमंत्री पद से जोड़कर एक नया जुमला उछाल दिया. उनके इस नए जुमले पर विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंहल मौन साधे रहे. उमा ने सोच-समझकर यह नया शगूफा छोड़ा या फिर बोलते-बोलते अनायास ही यह कह गईं. यह सवाल पूछने पर वे कहती हैं, ‘मैंने कोई फैसला नहीं सुनाया है लेकिन दिल में जो बातें है उन्हें कहीं तो साझा करूंगी न! मैं तो सिर्फ यह कह रही हूं कि देश एक बार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व से चूक गया, अब स्वामी से भी चूक रहा है.’
उमा परिपक्व नेत्री हैं. खुद कहती हैं कि 27 की उम्र में ही संसद पहुंची थीं. हिंदुत्व की फायर ब्रांड नेत्री मानी जाती रही हैं. अब तक की उनकी राजनीतिक यात्रा में यह नहीं दिखता कि फितरतन वे दिल की बातें सार्वजनिक तौर पर साझा करें. ऐसा करतीं तो राजनीतिक प्रेम का एक अहम अध्याय अपनी मौत न मरा होता. यानी साफ है कि उन्होंने कुछ सोच-समझकर ही बोला होगा. उनके बोले का आगे के दिनों में जो असर पड़े, फिलहाल उसका अनुमान ही लगाया जा सकता है लेकिन महासम्मेलन के दौरान उसका असर दिखा. महासम्मेलन में पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी को भी आना था. वे नहीं आए. कारण पारंपरिक बताए गए. सभा परिसर में बिहार के उपमुख्यमंत्री व भाजपाई नेता सुशील कुमार मोदी की भी तसवीरें टंगी हुई थीं. उनके आने के बारे में भी संभावना जताई गई थी. वे भी नहीं आए. नाम न छापने की शर्त पर एक भाजपा नेता कहते हैं, ‘अशोक सिंहल की उपस्थिति में प्रधानमंत्री पद के लिए उमा भारती दूसरा ही राग छेड़कर चली गईं, ऐसे में कोई भाजपाई यहां आकर क्या अपनी फजीहत करवाएगा?’ सुब्रमण्यम स्वामी खुद इस सवाल पर कुछ नहीं बोलते. सिर्फ इतना कहते हैं, ‘मैं भारत के भविष्य की लड़ाई लड़ रहा हूं.’
आयोजन में वरिष्ठ बुजुर्ग भाजपाई कैलाशपति मिश्र व अयोध्या में रामशिला पूजा से चर्चा में आए भाजपाई विधानपार्षद कामेश्वर चौपाल प्रमुखता से मौजूद रहे. उक्त दोनों भाजपा नेताओं की पहचान संघी पृष्ठभूमि से रही है. उनका उपस्थित होना स्वाभाविक भी था. बहुत हद तक प्रत्यक्ष तौर पर संघ परिवार के इस आयोजन में प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा की एक जिम्मेदार नेत्री द्वारा गैरभाजपाई का नाम उछालना ‘जंगल में मोर के नाचने’ की घटना की तरह हुआ, जिसे कुछ ही सुन-देख सके, लेकिन इसके अपने गहरे निहितार्थ हैं. सुब्रमण्यम स्वामी का नाम उछालने के बाद मंच से पूछा जाता रहा कि क्या भारत में फिलहाल कोई ऐसी राजनीतिक पार्टी है जो हिंदू हितों का ध्यान रखती हो. यह सवाल उछालकर जय श्रीराम के उद्घोष के साथ उपस्थित समूह से ‘नहीं’ पर सहमति ली गई. सम्मेलन में आए विश्व हिंदू परिषद के एक नेता कहते हैं कि हम यह संकेत तो बार-बार देते रहे हैं कि भाजपा हमारी बात नहीं सुनती और हमारी राह भी नहीं चलती इसलिए उसके मुगालते को तोड़ने के लिए नई पार्टी बना लेने और अपने स्तर से नेता चुन लेने की भभकी वाला प्रेशर गेम तो जरूरी है.
पता नहीं, पटना के इस छोटे-से सभागार से उठी आवाज की धमक कहां तक पहुंचेगी, लेकिन इस महासम्मेलन में यह घोषणा भी की गई है कि ऐसे आयोजन हर जिले में होंगे.