बीती चार अक्टूबर को जब दिल्ली के मंगलापुरी इलाके में सुष्मिता चक्रवर्ती ने खुद को फांसी लगा ली तो यह इस डरावनी सच्चाई का पहला संकेत था कि किंगफिशर एयरलाइंस का संकट अब तनख्वाहें न मिलने और उड़ानें रद्द होने के दायरे से कहीं आगे पहुंच चुका है. 45 साल की सुष्मिता के पति किंगफिशर एयरलाइंस में स्टोर मैनेजर हैं. यह आत्मघाती कदम उठाने से पहले लिखी गई चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि उनके पति को पिछले छह महीने से तनख्वाह नहीं मिली है जिसकी वजह से घर चलाने का संकट है और इस कारण वे खुदकुशी कर रही हैं. भयंकर आर्थिक संकट से जूझ रही इस कंपनी के कई दूसरे कर्मचारियों को समझ में नहीं आ रहा कि वे घर कैसे चलाएं.
अब सवाल उठता है कि आखिर एक नामी कंपनी इस हालत में कैसे पहुंच गई. क्या विजय माल्या ने अक्ल से ज्यादा अपने अहं को तरजीह दी? क्या माल्या की चमक-दमक से बैंकों और नियामकों की आंखें भी इस कदर चुंधिया गई थीं कि वे कुछ नहीं देख सके? धमाके के साथ शुरू हुई यह एयरलाइन जिस तरह फुस्स हुई उसे देखते हुए कई सवाल खड़े होते हैं. कहानी मई, 2005 से शुरू होती है जब किंगफिशर एयरलाइंस बड़े धूमधड़ाके के साथ शुरू हुई थी. खूबसूरत एयरहोस्टेसों से घिरे विजय माल्या अखबारों और टीवी में यह कहते दिखाई और सुनाई दे रहे थे कि उनकी कंपनी आसमान पर राज करेगी. तब माल्या को खेल के नियम बदल देने वाला खिलाड़ी करार दिया जा रहा था. ब्रिटिश कंपनी वर्जिन एटलांटिक के तमाशापसंद मुखिया रिचर्ड ब्रैसनन से उनकी तुलना हो रही थी.
लेकिन उन दिनों भी इस बात को समझने के लिए दिमाग को ज्यादा मथने की जरूरत नहीं थी कि इस चमक-दमक के पीछे एक अंधेरा भी गहराता जा रहा है. एयरलाइन की शुरुआत करते ही माल्या ने धड़ाधड़ नए जहाज खरीदने शुरू किए. किंगफिशर एयरलाइंस चार-पांच विमानों के साथ शुरू हुई थी लेकिन उसने तेजी से नए जहाजों के ऑर्डर देना शुरू कर दिया. मई 2005 से मार्च, 2012 तक कंपनी के बेडे़ में हर महीने एक नया विमान जुड़ता गया. मार्च, 2012 तक कंपनी के 92 विमान उड़ान भर रहे थे, जबकि 60 और नए विमानों का ऑर्डर दिया जा चुका था. दरअसल हर चीज अपनी ट्रेडमार्क शैली में करने की चाहत में माल्या पर किसी भी कीमत पर यात्रियों को अपनी झोली में भरने की धुन सवार हो गई थी. एयरहोस्टेसों से लेकर खाने-पीने और मनोरंजन तक हर चीज का इंतजाम इतना लकदक था कि किंगफिशर के लिए प्रति यात्री कुल लागत जेट एयरवेज से लगभग दोगुनी हो गई थी. यह अति थी. शायद माल्या यह नियम भूल गए थे कि कारोबार में एक वित्तीय अनुशासन भी होना चाहिए. उड्डयन क्षेत्र में काम कर रही एक कंपनी के सीईओ बताते हैं कि किंगफिशर की उड़ान के दौरान परोसे जाने वाले खाने की कीमत 700-800 रु प्रति यात्री बैठती थी जबकि उसकी प्रतिस्पर्धी जेट एयरवेज के लिए यह आंकड़ा 300 रु प्रति यात्री था.
माल्या भले ही बड़ी-बड़ी बातें करते रहे हों मगर किंगफिशर एयरलाइंस कभी तय नहीं कर सकी कि इसे खुद को कैसी कंपनी के तौर पर पेश करना है. शुरुआत के दो साल बाद ही इस ऑल इकोनॉमी एयरलाइन ने भव्यता की तरफ बड़ा कदम बढ़ाते हुए एक बिजनेस क्लास प्लान पेश किया. दूसरे शब्दों में कहें तो सस्ती यात्रा से यह महंगी यात्रा की दिशा में गई. भारत के लिहाज से यह अव्यावहारिक रणनीति थी. माल्या यहीं नहीं रुके. वे किंगफिशर को देश की सरहदों के पार ले जाना चाहते थे. उनकी इस इच्छा ने पहले से ही मुश्किलों से जूझ रही कंपनी को और संकट में डाल दिया. दरअसल माल्या किसी भी कीमत पर अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनी जेट एयरवेज से पीछे नहीं रहना चाहते थे. जेट ने भी अंतरराष्ट्रीय सेवाएं शुरू कर दी थीं. माल्या भी ऐसा करना चाहते थे. मगर इस रास्ते में एक बाधा थी.
नियमों के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय सेवा शुरू करने से पहले किसी भी एयरलाइन को देश के भीतर ही विमान परिचालन में पांच साल का तजुर्बा होना चाहिए. किंगफिशर को तब तक पांच साल नहीं हुए थे. ऐसे में माल्या ने एक शॉर्टकट अपनाया. उन्होंने कैप्टन गोपीनाथ की एयरलाइन एयर डेक्कन को खरीद लिया जिसे काम शुरू किए पांच साल हो चुके थे. एयर डेक्कन का नया नाम हुआ किंगफिशर रेड. कैप्टन गोपीनाथ के लिए यह चोखा सौदा रहा. कंपनी की कीमत 2,200 करोड़ रु आंकते हुए किंगफिशर ने एयर डेक्कन में 26 फीसदी शेयर खरीदे और इसके एवज में 550 करोड़ रु खर्च किए. अब इसकी तुलना जेट से करें जिसने इससे थोड़ा पहले ही पूरी की पूरी सहारा एयरलाइंस 1,450 करोड़ रु में खरीदी थी. इस तरह माल्या ने अपने कारोबारी मॉडल में एक और परत जोड़ी जिसने निवेशकों की हैरानी बढ़ाई.
इस तरह किंगफिशर की अंतरराष्ट्रीय सेवाएं भी शुरू हो गईं. महंगे खाने से लेकर शराब तक यहां भी भव्यता का पूरा इंतजाम था. यात्रियों के लिए सीट पर ही मसाज की सुविधा थी. कंपनी ने अभी मुनाफे का एक पैसा भी नहीं देखा था मगर वह दिल खोलकर लुटा रही थी. इस तरह की अति कारोबारी रणनीति के लिहाज से बड़ी चूक थी. लंदन स्थित कंपनी स्ट्रैटेजिक एयरो रिसर्च में विश्लेषक साज अहमद कहते हैं, ‘किंगफिशर एयरलाइंस चलना सीखने से पहले ही दौड़ने की कोशिश कर रही थी.’ जब माल्या का ध्यान इस तरफ दिलाया भी गया तो उन्होंने यह मानने से इनकार कर दिया कि उनसे कोई चूक हो रही है. किंगफिशर एयरलाइंस के इस मुखिया और कंपनी के शीर्ष अधिकारियों के बीच रिश्ते हमेशा तनावपूर्ण रहे. एयरलाइन कैसे चलानी है, इस मुद्दे पर माल्या के साथ मतभेद के चलते सीओओ नाइजेल हैरवुड ने भी कंपनी छोड़ दी थी. कारोबार के नियमों की उपेक्षा करते हुए समूह की एक कंपनी को दूसरी कंपनी की चोटों के इलाज का खर्च उठाने के लिए प्रोत्साहित किया गया. एक पूर्व सीओओ ने तो बयान भी दिया था कि जब तक बीयर बह रही है तब तक एयरलाइन चलती रहेगी. कुछ समय पहले कनाडा की चर्चित इक्विटी फर्म वेरिटा ने अपनी रिपोर्ट में कंपनी की इस बात के लिए कड़ी आलोचना की थी और आंकड़ों के अध्ययन के बाद उसे खतरे से आगाह भी किया था. वेरिटा ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा था कि मूल कंपनी यानी यूबी ग्रुप पर भी इसका बुरा असर पड़ेगा जिसने न सिर्फ किंगफिशर एयरलाइंस में पैसा लगाया है बल्कि इसकी तरफ से करीब 19 हजार करोड़ रु की बैंक गारंटियां भी ले रखी हैं. कई कारोबारी सौदों में माल्या को सलाह देने वाले एक बैंकर बताते हैं कि उन्हें एयरलाइन के साथ भावनात्मक लगाव था. वे बताते हैं, ‘समय बीतने के साथ भावना व्यावहारिकता पर भारी पड़ती गई.’
वैसे माल्या की भावनाओं के उफान का दुनिया भर के कारोबारी माहौल से तारतम्य भी नहीं बैठा. एयर डेक्कन के विलय के बाद जल्द ही अमेरिका में लीमैन ब्रदर्स का ढहना हुआ और इससे पैदा आर्थिक संकट सारी दुनिया में फैल गया. खुलकर कर्ज बांटने वाले बैंक सावधान हो गए. 2011 में भी मंदी का एक और दौर आया जिसने माल्या की मुश्किलों में बढ़ोतरी की. आज किंगफिशर को उबारने के लिए पैसा चाहिए. लेकिन अर्थव्यवस्था सुस्त है और अब पहले की तरह कारोबार के लिए पैसा जुटाना आसान नहीं. इसलिए यूबी ग्रुप की दूसरी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचकर रकम की व्यवस्था करने की बात हो रही है. उधर, कर्जदाता मुंबई और गोवा में माल्या के आलीशान घरों को बेचकर जितनी हो सके, अपनी रकम की वसूली करना चाहते हैं.
अहमद कहते हैं, ‘इस एयरलाइन को कई लोग मजाक की तरह देखने लगे हैं. मई, 2009 में 10 लाख से ज्यादा यात्रियों ने इसके साथ उड़ान भरी थी. बाजार पर इसका अच्छा-खासा कब्जा था. तीन साल बाद इसके विमान धरती पर खड़े हैं. इसके पास कर्मचारियों की तनख्वाह के लिए पैसे नहीं हैं. इन सालों के दरम्यान यह निवेशकों के लिए ऐसी कंपनी बनी रही जिसकी पैकिंग तो बढ़िया थी मगर जिसका माल कमजोर था.’
इसलिए हाल यह है कि 2005 में शुरू हुई यह एयरलाइन मुनाफे की तो छोड़िए, हजारों करोड़ रु के कर्जे में डूबी है. यह कर्जा सप्लायरों का है, तेल कंपनियों का है और सरकार का भी. जिस दिन यह लांच हुई थी उस दिन माल्या ने बड़ी-बड़ी बातें की थीं. उनके शब्द थे, ‘हमें उम्मीद है कि कीमतों पर नियंत्रण, तकनीक के इस्तेमाल और आउटसोर्सिंग जैसी कारोबारी रणनीतियों के इस्तेमाल से किंगफिशर एयरलाइंस परिचालन के पहले ही साल में मुनाफा देने वाली कंपनी बन जाएगी.’
संपत्तियां और कीमत
शराब
यूनाइटेड ब्रूअरीज होल्डिंग्स, यूनाइटेड स्प्रिट्स, यूनाइटेड ब्रूअरीज, मैक्डॉवेल होल्डिंग
8,888.68 करोड़ रु
एयरलाइंस
किंगफिशर
5,082.40 करोड़ रु
खेल
फोर्स इंडिया एफ1 टीम, रॉयल चैलेंजर्स बेंगलूरु
1343.24 करोड़ रु
उर्वरक और रसायन
मैंगलौर कैमिकल्स और फर्टिलाइजर्स
535.49 करोड़ रु
इंजीनियरिंग
यूबी इंजीनियरिंग
131.43 करोड़ रु
हालांकि इस चूक के दोषी और भी हैं. सवाल यह है कि जब इस कंपनी की बिगड़ती सेहत के संकेत साफ दिख रहे थे तो बैंक और नियामक अब तक क्या कर रहे थे. किंगफिशर एयरलाइंस पर आज सात हजार करोड़ रु का कर्ज है. इसमें सबसे बड़ा हिस्सा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का है. जैसा कि एक प्राइवेट इक्विटी विश्लेषक कहते हैं, ‘इन कर्जदाताओं ने माल्या पर पहले दबाव क्यों नहीं बनाया? अब मुंह खोलना और मीडिया को बयान देना बस भागते भूत की लंगोटी पकड़ने वाली बात है. यह काम अगर पहले ही हो जाता तो इन कर्जदाताओं का बहुत-सा पैसा बच जाता.’ दूसरे शब्दों में कहें तो किंगफिशर एयरलाइंस की इस मुसीबत का अच्छा-खासा बोझ देश के करदाताओं के हिस्से में भी आना है. सवाल यह भी है कि माल्या स्टेट बैंक से इतना पैसा हासिल करने में कैसे कामयाब हो गए. कंपनी खस्ताहाल थी मगर माल्या को यह जरूरी नहीं लगा कि वे कर्जदाताओं की बैठक में शामिल हों. इससे यह सवाल भी उठता है कि क्या यह नौबत प्रोमोटरों और बैंकरों के बीच की दोस्ती का नतीजा है. क्या बैंक इसलिए पहले माल्या पर चाबुक नहीं चला पाए क्योंकि उन्हें डर था कि इससे यूबी ग्रुप की दूसरी कंपनियां उनके साथ कारोबार करना बंद कर देंगी? क्या बैंकों को यह याद नहीं रखना चाहिए था कि 2010 यानी दो साल पहले ही किंगफिशर ने आठ हजार करोड़ रु के कर्ज की रीस्ट्रक्चरिंग (तय समय पर उधार न चुका पाने की स्थिति में कर्ज को बाद में कैसे चुकाया जाना है इसकी व्यवस्था) की थी.
गलती उड्डयन मंत्रालय की भी है. नियम-कायदों का पालन सुनिश्चित करने वाले का काम ही यह होता है कि वह ऐसी नौबत आने न दे. इलाज से ज्यादा बचाव का इंतजाम करे. अगर इसने पहले ही किंगफिशर एयरलाइंस पर कार्रवाई कर दी होती तो मौजूदा संकट टाला जा सकता था. अगर चेतावनी का कोई असर नहीं हो रहा था तो सरकार को हरकत में आना चाहिए था. इसके बजाय यह टालमटोल करती रही. इसका नतीजा यह हुआ कि निवेशकों, कर्मचारियों और आम जनता को इस संकट की भनक तक नहीं लगी. सरकार कहती रही कि एयरलाइन से यह कहा गया है कि वह खुद में जान फूंकने की कोई योजना बनाए.
माल्या की नेताओं से करीबी भी उनके प्रतिस्पर्धियों के लिए लंबे समय से शिकायत का विषय रही है. चाहे एनसीपी के मुखिया शरद पवार हों या पूर्व उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल, माल्या हमेशा ताकतवर नेताओं के करीबी दिखते रहे हैं. हाल ही में खबरें आई थीं कि नागर विमानन महानिदेशक (डीजीसीए) भारत भूषण को इसलिए अचानक उनके पद से हटा दिया गया कि उन्होंने किंगफिशर एयरलाइंस की माली हालत को देखते हुए यात्रियों की सुरक्षा संबंधी कुछ अहम सवाल उठाए थे.
विडंबना देखिए कि उड्डयन के क्षेत्र में जिस सुधार की राह माल्या इतने साल से तकते रहे वह सुधार उनके लिए थोड़ी देर से आया. यह था इस क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति. हाल ही में ब्रिटिश एयरवेज और इत्तेहाद एयरवेज द्वारा एयरलाइन में दिलचस्पी लेने की खबरें आई थीं. मगर अब कोई भी समझदार निवेशक तब तक और इंतजार करेगा जब तक उसके लिए सौदा और सस्ता नहीं हो जाता. फिर जो कंपनी खराब तरीके से परिचालन के इतर वजहों से भी डूबी हो उसमें पैसा लगाने से पहले निवेशक उसके मैनेजमेंट पर नियंत्रण चाहेगा. अहमद कहते हैं, ‘अगर अपनी एयरलाइन बचाने के लिए माल्या जेब ढीली नहीं करेंगे तो कोई दूसरा इसमें पैसा क्यों लगाएगा? दुनिया भर में एयरलाइंस वैसे ही मुश्किलों से जूझ रही हैं. ऐसे में कोई भी एयरलाइन किसी बीमार एयरलाइन पर पैसा क्यों लगाएगी? ‘
फिलहाल किंगफिशर एयरलाइंस और मार्च से बिना तनख्वाह के जी रहे इसके कर्मचारियों में सुलह की खबर है. बताया जा रहा है कि 13 नवंबर यानी दीवाली तक कर्मचारियों को मार्च, अप्रैल और मई तक का वेतन मिल जाएगा. माल्या ने बयान दिया है कि उनकी कारोबारी बुद्धि अभी चुकी नहीं है और वे कंपनी को फिर से पटरी पर लाकर दिखाएंगे.
कंपनियों की दुर्गति भारत में कोई नई बात नहीं है. लेकिन किंगफिशर के निवेशकों और कर्मचारियों के गले यह बात नहीं उतर रही कि एक आदमी, जिसकी एयरलाइन डूब रही थी, वह फॉर्मूला वन रेस, कैलेंडर शूट्स और आईपीएल टीम पर पैसा लुटाए जा रहा था. कहा जा सकता है कि ये सब तो अलग बातें हैं, लेकिन जब इस शाहखर्ची के बाद माल्या अपने पायलटों और इंजीनियरों को उद्दंड कर्मचारी बताते हैं तो कौन उनके साथ सहानुभूति रखेगा?