‘धूमिल के बाद कोई ऐसा नहीं जिसकी कविता पर आलोचना लिखी जा सके’

हिंदी साहित्य, विशेषकर कविता के नामचीन आलोचक नंदकिशोर नवल एक सितंबर को 75 साल के हो गए. इस खास मौके पर उनसे निराला की बातचीत.

पहले से भी हिंदी कविता के इतिहास पर कई महत्वपूर्ण किताबें लिखी जा चुकी थीं, फिर आपने अपनी ओर से एक और किताब की जरूरत क्यों समझी? क्या उन किताबों में कोई कमी थी या आपके पास कहने को कुछ नया था?

आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास पर कोई किताब नहीं थी. और फिर साहित्य में कांसेप्ट बदलता है. पहले जो किताबें थीं वे कालखंड पर लिखी गई थीं जबकि कालखंड में साहित्य को नहीं बांधा जा सकता. एक ही कालखंड में कई महत्वपूर्ण कवि एक साथ सक्रिय रहे हैं. काल विभाजन के बजाय कवियों का ग्रुप बनाकर अध्ययन बेहतर है. और फिर कविता की एक कसौटी भी तो तय कर ली गई थी. अब कोई एक मानक कसौटी कैसे हो सकती है! हर कवि की, हर कविता की अपनी कसौटी होती है.फिर जब आप मेरी किताब की बात पूछ रहे हैं तो मैं सच बता रहा हूं कि मैं गुप्त और तुलसी पर लिखने के बाद थक गया था. मैंने तय किया था कि तुलसीदास पर ही मेरी आखिरी पुस्तक हो, उन पर ही अपनी नैया विसर्जित कर दूं लेकिन ज्ञानपीठ के आलोक जैन का कई बार फोन आया. मैं मना करता रहा लेकिन एक सुबह मैं बैठा तो मेरे जेहन में अचानक ही एक नया सिनोप्सिस तैयार हुआ और मैंने इस किताब के बारे में जैन को हां कह दी.

आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास आपने धूमिल पर लाकर खत्म कर दिया है. क्या आपको उनके बाद कोई आधुनिक कवि नहीं दिखा?

धूमिल के बाद हिंदी में अब तक कोई कवि ऐसा नहीं जिसके रचनात्मक व्यक्तित्व का निर्माण पूरी तरह से हो गया हो. सब अभी मेकिंग प्रोसेस में हैं. विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, आलोक धन्वा, मंगलेश डबराल, ज्ञानेंद्रपति, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, अरुण कमल की कविताओं को हमने देखा, जाना, पढ़ा है. इनकी कविताओं पर ठीक से एक लेख तक नहीं लिखा जा सकता, आलोचना की पुस्तक में शामिल करने की तो बात ही दूर. सिर्फ कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह, दो ही ऐसे हैं जिनके रचनात्मक व्यक्तित्व का निर्माण हो गया है, इसलिए हमने शामिल किया.

इतने कवि, रोज नई कविताएं, ढेरों आलोचक भी, लेकिन हिंदी कविता की पठनीयता को लेकर अब तक एक मुकम्मल माहौल नहीं दिखता. लेखक, आलोचक, संपादक, प्रकाशक या पाठक, इनमें कौन कड़ी इसके लिए जिम्मेदार है?

मुक्तछंद में जब से कविता लिखी जाने लगी, तब से इसके पाठक घटने लगे हैं. अज्ञेय, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन आदि के पाठक तो रहे हैं. बाद में कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह के भी पाठक खूब हुए. राजेश जोशी भी बहुत पाॅप्युलर हंै. आज भी धूमिल का संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ हर पुस्तक मेले में धूम मचाता है. प्रकाशक कविता का नाम ही नहीं सुनना चाहते. इसका फायदा उठाकर छोटे प्रकाशक कवियों से पैसा लेकर उनका संग्रह छापते हैं और ऐसे कवि भी बहुतेरे हैं जो छपने के लिए पैसे देते हैं.

आप प्रकाशकों को दोषी ठहरा रहे हैं जबकि राजस्थान के वाग्देवी प्रकाशन ने पिछले साल कवि विजेंद्र का कविता संग्रह प्रकाशित किया और उसकी 10 हजार से अधिक प्रतियां बिकीं भी.

विजेंद्र को तो मैं कवि ही नहीं मानता. उनकी कविताओं में मार्क्सवादी विचारधारा हावी रहती है जबकि कविता संवेदना की चीज है. कविता से संवेदना का ही पता चलना चाहिए. विचारों को संवेदना में परिवर्तित करना ही कविता है.

समकालीन कवियों में कौन ऐसे हैं जिनमें आप वैश्विक फलक तक दस्तक देने की संभावना देखते हैं?

राजेश जोशी में वह संभावना दिखती है. आलोक धन्वा ने फिर से लिखना शुरू किया है तो लगता है कि अभी उनमें सृजनात्मकता बची हुई है. राकेश रंजन में भी वह संभावना दिखती है.

नोबेल पुरस्कार की संभावना वाला कवि भी कोई निकट भविष्य में उभरेगा भारत से….! नोबेल पुरस्कार नहीं मिलने वाला है. जो साम्राज्यवाद के पोषक हैं, उन्हें ही यह सम्मान मिलता है. कभी-कभी दिखाने के लिए दूसरों को दे दिया जाता है. अगर भारतीय को मिलना होता तो रवींद्रनाथ के बाद अल्लामा इकबाल, निराला, सुब्रहमण्यम भारती, अशांत भारती जैसे कवि हुए; उनके नामों पर तो चर्चा होती.

सिंगुर-नंदीग्राम के समय नवारुण भट्टाचार्य, वरवरा राव जैसे कवि खूब लिखते हैं, लेकिन नामचीन और प्रगतिशील हिंदी कवि चुप्पी साधे दिखते है. ऐसा क्यों?

साहित्य अकादेमी से मेरी एक किताब है- ‘स्वतंत्रता पुकारती’. मुझे कहा गया था कि जिस तरह जां निसार अख्तर ने ‘हिंदोस्तां हमारा’ नाम से दो खंडों में उर्दू कविताओं का संकलन किया है, उसी तरह से हिंदी कविताओं का संकलन लाइए. मैंने तब ही कहा था कि न तो उर्दू कविताओं की ऊंचाई हिंदी कविता प्राप्त कर सकी है और न ही मुझमें जां निसार अख्तर की तरह क्षमता है. फिर भी मैंने 1857 से 1947 तक की कविताओं को संकलित करना शुरू किया. तब मैंने पाया कि शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध जैसे कवियों ने भी एक भी कविता राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन पर लिखी ही नहीं है. वे कवि मानते थे कि स्वतंत्रता आंदोलन बुर्जुआ आंदोलन है, सर्वहारा आंदोलन चाहिए. जबकि मैथिली शरण गुप्त जैसे कवि कांग्रेस के साथ रहते हुए भी कांग्रेस के खिलाफ, गांधी के विरोध में कविताएं लिख रहे थे. तब मैंने महसूस किया कि शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध जैसे कवि एक खास विचारधारा की पक्षधरता की जकड़न में थे. उनमें देश और समाज के प्रति उस स्तर पर कमिटमेंट नहीं था. आज के कम्युनिस्ट कवि भी उसी तरह मार्क्सवाद के शिकंजे में हैं. तो भला वे वाम इलाके में हो रहे सिंगुर-नंदीग्राम पर कविताएं कैसे लिख सकते हैं. नामवर सिंह जैसे लोग भी विचारधारा में जकड़ जाने का नुकसान समझ चुके हैं, इसीलिए अब उसका विरोध करते हैं तो प्रगतिशील लेखक संघ ने उन्हें अध्यक्ष पद से ही हटा दिया. हां लेकिन यह सच है कि आज के कवियों की तुलना में शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध बड़े और महान कवि थे.


आप वाम विचारधारा वाले रहे हैं. प्रगतिशील लेखक संघ से वर्षों तक जुड़े रहे हैं. और आप ही मार्क्सवाद को एक शिकंजा कह रहे हैं?

सिर्फ मार्क्सवाद नहीं, सभी वाद शिकंजे की तरह हैं. सच है कि मैं वर्षों तक प्रलेस में था, लेकिन 1985 में मुझे हटा दिया गया. लेकिन सच यह है कि मैं हटना चाहता था, वरना उसके बाद मैं किसी और संगठन से जुड़ गया होता लेकिन मैं जानता हूं कि वाम और लेखक संगठनों की भूमिका अब भारत में समाप्त हो चुकी है. एक समय में इनका काम महत्वपूर्ण था लेकिन अब तो ये लकीर के फकीर बने हुए हैं. वाम दलों को देखिए, दूसरे मुल्कों में वाम दलों ने नाम बदल दिए, काम बदल दिए, झंडे बदल दिए, लेकिन भारत में उसी को पकड़कर बैठे हुए हैं. जिन वाम राजनीतिक दलों की दुर्दशा हो चुकी है, उनके लेखक संगठनों का क्या हश्र होगा, आप समझ सकते हैं. यहां के वामपंथी इतिहास से सबक नहीं ले रहे हैं. जब सोवियत इतिहास के गर्त में समा गया, पूर्वी यूरोप उसी राह पर चला गया तो ये कितने दिन बचेंगे? इन्हें समझना होगा कि सिर्फ मार्क्स नहीं थे. समय बहता रहता है. इसमें मार्क्स, प्लेटो, हेगल सभी की भूमिका समय काल में मिलती रही है और वह धारा आगे बढ़ जाती है. अब पूंजीवादी दौर है, उसी के हथियारों से उससे लड़ना होगा. कंप्यूटर व मशीनी युग में मजदूर रहेंगे ही नहीं तो दुनिया के मजदूरों एक हो का नारा लगाकर क्या करेंगे. खैर! मैं साफ मानता हूं कि लेखक संगठनों को स्वतंत्र होना चाहिए, किसी राजनीतिक दल का नहीं.

जातीय और सामुदायिक अस्मिता के लेखन के इस दौर में क्या आलोचना की विधा की एकरसता और एकरूपता को बदलने की जरूरत नहीं है? दलित, स्त्री के बाद अब आदिवासी अस्मिता का उभार हो रहा है. आदिवासियों का सौंदर्यबोध तो बिल्कुल अलग होता है, उनके साहित्य की आलोचना वे कैसे करेंगे जो उनके जीवन के सौंदर्य को जानते ही नहीं?

ये सारे अस्मिताई लेखन और विमर्श उधार और नकल के हैं. अमेरिका के ब्लैक मूवमेंट से दलित विमर्श आया, यूरोप के फेमिनिज्म से स्त्री विमर्श. इसके पैरोकार बहुत कुछ बेजा बोलते रहते हैं. कहते हैं, स्त्री ही स्त्री की पीड़ा समझेगी, दलित ही दलित की पीड़ा समझेगा. डॉ धर्मवीर जैसे लेखक भी हैं, जिन्हें साहित्य का ज्ञान नहीं लेकिन कुछ भी बकते रहते हैं. टॉल्सटॉय ने घोड़े पर एक मशहूर और क्लासिक कहानी लिखी थी- इंसान और हैवान. टॉल्सटॉय घोड़ा तो नहीं थे. प्रेमचंद ने दलितों को केंद्र में रखकर जो कहानियां लिखी हैं, उन्हें इस आधार पर खारिज कर दें कि वे दलित नहीं थे. लेखन परकाया प्रवेश करके होता है, जाति के आधार पर नहीं. जिस तरह अंबेडकर अडंगाबाजी करते रहे, उसी तरह उनको नायक मानने वाले भी अड़ंगाबाजी में विश्वास करते हैं लेकिन ये अंबेडकर के वैसे अनुयायी हैं जिन्होंने ठीक से उनका सेलेक्टेड वर्क भी नहीं पढ़ा है. वर्ण व्यवस्था के खिलाफ पापुलर तरीके से बोलकर रोज गालियां बकने वाले लोग भी हैं, लेकिन वे इतिहास के पन्ने पलटकर यह नहीं देखना चाहते कि आखिर किस हालत में वर्ण व्यवस्था बनी थी और वह समय के अनुसार सही थी या नहीं. रही बात आदिवासी लेखन के विकसित होने की तो रचनाकारों को चिल्लाने की जरूरत नहीं कि आलोचना की अलग कसौटी चाहिए, अलग विधा चाहिए. रचनाओं को बोलने दीजिए, रचनाएं कसौटी की मांग खुद करने लगती हैं और अलग कसौटी बन भी जाती है. निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘कुकुरमुत्ता’ की आलोचना की कसौटी एक नहीं रही है. अज्ञेय, रेणु, प्रेमचंद के लिए भी कसौटियां अलग रही हैं. एकरसता और एकरूपता तो कभी रही ही नहीं.

आप कविता के शीर्षस्थ आलोचक हैं, राजेंद्र यादव जैसे लेखक इस विधा को ही खारिज करते हैं. कोई कवि या आलोचक जवाब नहीं दे पाता.

जब कभी गंभीर साहित्य की बात कीजिए तो उसमें राजेंद्र यादव का नाम नहीं लीजिए तो अच्छा. वे क्या-क्या करते हैं, उन्हें खुद ही पता नहीं. बाजारवाद अर्थशास्त्रियों का विषय है, उस पर वही बोलेंगे-लिखेंगे. स्त्री विमर्श, दलित विमर्श समाजशास्त्र का विषय है, लेकिन इसके भी मर्मज्ञ-विशेषज्ञ वही हैं. साहित्यकार को सबसे पहले अपनी जमीन पर रहकर बातें करनी चाहिए. इसलिए साहित्य की किसी बात पर राजेंद्र यादव की चर्चा ही फिजूल है.

आखिरी सवाल, बिहार में साहित्य-संस्कृति की वर्तमान स्थिति पर क्या कहेंगे?

मेरा बहुत साफ मानना है कि लालू प्रसाद यादव जिस रोज बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, वह दिन ऐतिहासिक प्रगति का दिन माना जाएगा. गौरव का क्षण था. लेकिन बाद में वे पिछड़ों के सही नेता साबित नहीं हुए, धीरे-धीरे पिछड़ों के सामंती वर्ग का प्रतिनिधित्व करने लगे. नीतीश आए तो उन्होंने सामंजस्य की राजनीति को एक स्वरूप दिया और बेहतरी की कोशिश की, लेकिन दोनों के ही राज में साहित्य-संस्कृति हाशिये का विषय रहा. राष्ट्रभाषा परिषद, हिंदी साहित्य सम्मेलन, ग्रंथ अकादमी जैसी संस्थाएं रसातल में चली गई हैं.