देश 2024 के आम चुनाव के लिए तैयार हो रहा है। लेकिन ऐसा कोई संकेत नहीं है कि जम्मू और कश्मीर में विधानसभा चुनाव होंगे। और हर बीतते महीने के साथ राष्ट्रीय चुनाव से पहले केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव होने की उम्मीद तेज़ी से धुँधली पड़ती जा रही है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि केंद्र शासित प्रदेश में भाजपा को छोडक़र पूरा राजनीतिक वर्ग चाहता है कि निकट भविष्य में चुनाव हों।
जम्मू-कश्मीर में जून, 2018 के बाद से कोई निर्वाचित सरकार नहीं है, जब पीडीपी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार से भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया और बहुमत खोने के कारण सरकार की विदाई होते ही वहाँ राज्यपाल शासन लगाया गया था। इसके बाद 5 अगस्त, 2019 को, नई दिल्ली ने अनुच्छेद-370 को निरस्त कर दिया, जिसमें भारत के संविधान के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा हासिल था। साथ ही राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख़ में बाँट दिया गया। तब से वहाँ राज्यपाल की जगह उपराज्यपाल ने ज़िम्मा सँभाल लिया। पिछले चार साल में पूर्ण राज्य से केंद्र शासित प्रदेश में बदलने के बाद जम्मू कश्मीर में बड़ा राजनीतिक बदलाव देखा गया है। इतना कि कई पहलुओं में वर्तमान जम्मू-कश्मीर अगस्त, 2019 से पहले की तुलना में बहुत कम समानता रखता है। भाजपा शान्ति स्थापित करने का दावा कर रही है; लेकिन फिर भी चुनाव कराने से कतरा रही है। इसने विपक्षी दलों को एकजुट होने और चुनाव की माँग करने के लिए मजबूर किया है।
मार्च की शुरुआत में नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फ़ारूक़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में राजनीतिक नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने भारत के चुनाव आयोग से मुलाक़ात कर केंद्र शासित प्रदेश में जल्द चुनाव की माँग की परिसीमन प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। उन्होंने आयोग को ज्ञापन सौंपा, जिसमें यूटी में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली का आह्वान किया गया था। ज्ञापन में यह भी उल्लेख किया गया है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कई बार कहा है कि सरकार विधानसभा चुनाव कराने के लिए तैयार है; लेकिन अन्तिम फ़ैसला आयोग को लेना है।
ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वालों में फ़ारूक़ अब्दुल्ला, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े, माकपा महासचिव सीताराम येचुरी, राकांपा प्रमुख शरद पवार डीएमके, टीएमसी, राजद, सपा, आप जैसे राष्ट्रीय दलों के वरिष्ठ नेता शामिल थे। इन नेताओं ने समर्थन देने के लिए मई में श्रीनगर जाने का भी फ़ैसला किया। जम्मू-कश्मीर के नेताओं द्वारा इस क्षेत्र में राज्य और लोकतंत्र की बहाली के लिए देश भर के विपक्षी दलों से समर्थन माँगने का यह पहला प्रयास था। यह पहल अब्दुल्ला के जम्मू सम्भाग के विपक्षी नेताओं की रैली करने के तुरन्त बाद हुई।
इस ज्ञापन में कहा गया है कि चुनाव आयोग जम्मू और कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराने के लिए एक संवैधानिक दायित्व से बँधा है। चुनाव में देरी और इनकार करना जम्मू और कश्मीर के लोगों को उनके मौलिक और लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित करना और संवैधानिक दायित्वों का उल्लंघन होगा। नेशनल कॉन्फ्रेंस सांसद हसनैन मसूदी ने कहा- ‘भारत के चुनाव आयुक्त ने कोई विशेष तारीख़ नहीं दी है कि चुनाव कब होंगे। लेकिन हमें उम्मीद है कि यह बैठक फलदायी होगी।’
देश में 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले क़रीब 10 विधानसभा चुनाव होने हैं। लेकिन जम्मू-कश्मीर उनमें से एक नहीं है। इनमें कर्नाटक (घोषित हो चुके हैं और मई में होंगे), छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना के चुनाव काफ़ी अहम होंगे। भाजपा इन सभी को जीतने की उम्मीद करेगी; लेकिन यदि उसे अगर पार्टी को इनमें से अधिकांश राज्यों में हार का सामना करना पड़ा, तो यह उसकी 2024 की संभावनाओं पर सवालिया निशाँ लगा सकता है। यह चुनाव विपक्ष, ख़ासकर कांग्रेस के लिए फिर से पैर जमाने का आख़िरी अवसर होगा।
जम्मू-कश्मीर में चुनावों का बेसब्री से इंतज़ार है, क्योंकि इस क़वायद से राज्य का दर्जा बहाल होने की उम्मीद लोगों को है। कम-से-कम केंद्रीय गृह मंत्री ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा चुनाव होने और प्रतिनिधि सरकार बनने के बाद ही बहाल होगा। अभी तक ऐसे कोई संकेत नहीं मिले हैं कि केंद्र अपनी नीति की समीक्षा कर रहा है।
जहाँ तक मौसम और सुरक्षा की बात है, कश्मीर में अभी वसंत का समय है और मौसम अपेक्षाकृत गर्म है। दूसरा, सुरक्षा के लिहाज़ से कश्मीर अब काफ़ी अधिक शान्तिपूर्ण जगह है। वैसे भी इसे केंद्र सरकार अगस्त, 2019 में क्षेत्र की विशेष स्थिति ख़त्म करने के बाद अपनी एकमात्र उपलब्धि के रूप में पेश करती है। यदि यह सही चुनाव के लिए यह आदर्श समय है। लेकिन किसी-न-किसी वजह से चुनाव टाले जा रहे हैं। कुछ लोग अनुमान लगा रहे हैं कि भाजपा ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव की योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया है और 2024 के चुनावों के बाद तक के लिए उन्हें स्थगित करना चाहती है, जब वह देश में एक नये जनादेश के साथ लौटने की उम्मीद करती है।
कश्मीर में घटी आतंकियों की संख्या
जम्मू-कश्मीर पुलिस के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, कश्मीर घाटी में सक्रिय आतंकियों की संख्या अब तक के सबसे निचले स्तर 28 पर पहुँच गयी है। तीन दशक में यह पहली बार है कि जब आतंकियों की संख्या इस तरह कम हुई है। सुरक्षा बल आशावादी हैं कि आने वाले हफ़्तों में यह संख्या घटती रहेगी। हाल में एक साक्षात्कार में जम्मू-कश्मीर के सहायक पुलिस महानिदेशक विजय कुमार ने कहा कि जम्मू-कश्मीर पुलिस, सेना, अर्धसैनिक बलों और एनआईए, ईडी और एसआईए जैसी केंद्रीय और राज्य एजेंसियों की संयुक्त कार्रवाई ने सक्रिय आतंकवादियों को बेअसर करने और गिरफ़्तार करने में मदद की है।
स्थानीय युवाओं की नयी भर्ती पर अंकुश लगा है, जिससे क्षेत्र में आतंकियों की संख्या में कमी लाने में मदद मिली है। उनके मुताबिक, ‘सुरक्षा बल इस संख्या को और नीचे लाने, आतंकी पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट करने और आतंकवादियों को आश्रय या सहायता प्रदान करने वाले किसी भी व्यक्ति के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।’ जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने और उसका विशेष दर्जा ख़त्म करने के बाद ऑपरेशन ऑल आउट के तहत अब तक 500 से अधिक आतंकी मारे गये हैं, जिनमें से अधिकांश स्थानीय युवा और दक्षिण कश्मीर के रहने वाले हैं। इससे शान्ति बहाल करने में मदद मिली है।
सुरक्षा एजेंसियों ने आतंकवादियों और उन्हें पनाह देने वालों की सम्पत्तियों को भी ज़ब्त किया है। आतंकियों को शरण देने वाले घरों को भी इन्होंने अपने क़ब्ज़े में ले लिया है। आतंकियों की घटती संख्या ने यूटी सरकार के लिए कश्मीर घाटी के कुछ हिस्सों से सेना को वापस बुलाना सम्भव बना दिया है। हालाँकि सवाल यह है कि क्या उग्रवाद का यह कमज़ोर होना स्थायी है?
पिछले तीन दशक के रिकॉर्ड को देखकर ऐसी आशंका पैदा होती है। घुसपैठ कम हुई है, और स्थानीय भर्ती घटी है। लिहाज़ा आने वाले महीनों में ज़मीन की सही स्थिति का पता चलेगा।
हम जानते हैं कि एक बार प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद वे (चुनाव) अवश्य होने चाहिए। और मौसम, सुरक्षा चिन्ताओं और अन्य सभी कारकों को ध्यान में रखते हुए, …उस समय होने वाले अन्य चुनाव…(को ध्यान में रखकर हम निर्णय लेंगे)।
राजीव कुमार
(सीईसी द्वारा जनवरी में दिया गया बयान)