आजकल नुमाइश का दौर है। वैसे तो लोग अपने फ़ायदे के लिए किसी भी चीज़ की नुमाइश करते हैं। लेकिन जिस तरह लोग ख़ुद को धार्मिक दिखाने की नुमाइश करते हैं, वो आश्चर्यजनक है। यह पूरी तरह आडम्बर है। आजकल हर धर्म में ऐसे लोगों की भरमार है। ये लोग अपने धर्म को समझे बग़ैर ही ख़ुद को सबसे बड़ा धर्मपरायरण समझते हैं। ऐसे लोगों को अज्ञानी अथवा मूर्ख कहा जाए, तो ग़लत नहीं होगा। सही मायने में यह कट्टरता है। इनकी बात कोई न माने अथवा सवाल करे, तो ये क्रोध में आपा खो देते हैं। यह इनका सबसे बड़ा और पहला अवगुण है, जो बात-बात में सामने आ जाता है। मगर इन लोगों में एक भी अपने धर्म के संस्थापकों की राह पर नहीं दिखता। सब धर्म ग्रन्थों और उनसे सम्बन्धित ग्रन्थों में लिखी कहानियाँ सुनते-सुनाते रहते हैं। अफ़सोस, कहानियों से सीख भी नहीं लेना चाहते। सबको धर्म की अफ़ीम खाकर उन्मादी नारे लगाने से फ़ुरसत नहीं है। सही मायने में अपने धर्म का पालन कोई नहीं कर रहा है।
आज न सनातन धर्म के लोग सनातन संस्कृति का पालन कर रहे हैं। न इस्लाम धर्म के लोग इस्लाम की सुन्नतों पर अमल कर रहे हैं। न ईसाई धर्म के लोग ईसाई धर्म पर चल रहे हैं। न बौद्ध धर्म के लोग धम्म के उपदेशों पर हैं। न जैन धर्म के लोग जिन की वाणी पर खरे उतर रहे हैं। न पारसी धर्म के लोग अपने धर्म पर चल रहे हैं। न ही यहूदी अपने धर्म पर टिके हैं। और न ही किसी पंथ के लोग अपने-अपने पंथ की गरिमा बनाकर रख रहे हैं। लेकिन धर्म से भटके हुए सब लोग धर्म पर होने का दावा करते हैं। कोई भी व्यक्ति यह नहीं कहता कि वह धर्म से भटक गया है। पहला अधर्म तो यही है कि सब एक-दूसरे के धर्म में ख़ामी निकालने, उसे बदनाम करने और एक-दूसरे पर हमला करने में लगे हैं। जबकि इसकी इजाज़त कोई भी धर्म नहीं देता। सवाल यह है कि क्या एक-दूसरे के धर्म से नफ़रत करने वाले लोग एक-दूसरे के बग़ैर अपना हर काम चला लेंगे? नहीं। सच तो यह है कि सभी लोग अपनी मनोदशा स्वार्थ के आधार पर तय करते हैं। सबकी सोच इसी बात पर टिकी है कि उनका फ़ायदा कहाँ, किससे होगा? अगर किसी को काम पड़ जाए या उस पर मुसीबत आ जाए, तो वह किसी भी धर्म के उस व्यक्ति के पास जाने में संकोच नहीं करता, जिसके पास उसका समाधान हो। धर्म के आधार पर वह भले ही उससे नफ़रत करता हो। लेकिन अगर उसकी मुसीबत का हल दूसरे धर्म के व्यक्ति के पास हो, तो वह अपने स्वार्थ के लिए दिखावे की मित्रता का बाना पहनकर उसके सामने दण्डवत् दिखायी देगा। जब ज़रूरत न हो, तो दूसरे धर्म का व्यक्ति दुश्मन नज़र आता है। आख़िर क्यों बिना एक-दूसरे से झगड़े, बिना एक-दूसरे का कालर पकड़े किसी की रोटी हज़्म नहीं होती? मज़हबों में दिये गये प्यार के सन्देश और इंसानियत के रास्ते पर चलने के पैग़ाम से उस समय किसी को कोई वास्ता नहीं रहता। कोई किसी के धर्म के बारे में सच भी कह दे, तो धर्म उनका निजी मामला हो जाता है, और उसे ग़ुस्सा आने लगता है। लेकिन जब कोई धार्मिक रीति का जुलूस निकालना हो, तो धर्म दिखावे की वस्तु बन जाता है। कुछ लोग तो झगड़े की जड़ें टटोलने में लगे रहते हैं।
क्या कोई सनातनधर्मी बतायेगा कि सनातन धर्म में जितने भी देवता, अवतार और महान् लोग हुए हैं, उन्होंने कभी हिंसा का रास्ता अपनाया हो? कभी किसी को सिर्फ़ इसलिए मार दिया हो कि वह दूसरे धर्म का व्यक्ति था? क्या कभी कोई मुस्लिम जवाब देगा कि पैगम्बर मोहम्मद ने कभी किसी से ज़रा भी नफ़रत की हो? कभी उस बुढिय़ा को गाली दी हो या उस पर हमला किया हो, जो उन पर रोज़ कूड़ा फेंकती थी? कभी किसी की इसलिए हत्या कर दी हो कि वह एक अल्लाह को नहीं मानता? क्या कभी किसी ईसाई ने ख़ुद को पीटने वाले को या जान से मारने की कोशिश करने वाले को माफ़ किया? ईशु ने तो अपनी हत्या करने वालों को माफ़ करके उनके लिए प्रार्थना की। कोई बौद्धिस्ट बताएगा कि बुद्ध ने कहाँ हिंसा, मांस भक्षण और अशान्ति फैलाने को कहा है? कोई माने अथवा न माने; लेकिन सच यही है कि किसी भी धर्म और पन्थ के लोग शत्-प्रतिशत् धर्म पर नहीं टिके हैं। किसी भी धर्म या पन्थ में बेईमानी, झूठ बोलने, दूसरों का हक़ मारने, पर स्त्री पर ग़लत नज़र डालने, दूसरों पर अत्याचार करने, उन्हें नुक़सान पहुँचाने और उनके प्रति मन में किसी प्रकार का द्वेश रखने की अनुमति तक नहीं है। कितने लोग इन नियमों पर टिके हुए हैं? जो धर्म के ठेकेदार हैं, वे तो और भी धृष्ट-भ्रष्ट हैं। उनकी नीयत में तो खोट-ही-खोट है।
सवाल यह है कि धर्मों को लेकर लोगों में टकराव बढ़ क्यों रहा है? इसकी सबसे बड़ी वजह धर्मों में होने वाला दिखावा है। धर्म की नुमाइश नहीं करनी चाहिए। लेकिन लोग अब धर्म की नुमाइश करने को ही धर्म पर चलना समझते हैं। वास्तव में धर्म क्या है? यह दुनिया में उँगलियों पर गिने जाने लायक लोग ही शायद समझते होंगे।