नर्मदा यानी मध्य प्रदेश की जीवनरेखा महाराष्ट्र और गुजरात से गुजरते हुए करोड़ों जन का भाग्य भी तय करती है. नर्मदा का अर्थ है आनंद देने वाली और सदियों से यह सबकी भूख-प्यास मिटाती भी आई है. मगर आज इसी का जल इतना रीत चुका है कि यह अपने उद्गम अमरकंटक पर ही जल रही है. सदियों से समाए काले पत्थर अपना पूरा पत्थरपन लिए उभर आए हैं. हालत इस कदर पतली है कि बीते छह साल में इस बारहमासी का जल आधा हो चुका है. केंद्रीय जल आयोग कहता है कि नर्मदा में उसकी क्षमता का आधा ही जलभराव हो पाता है और वह भी लगातार घटता जाता है. नर्मदा बहेगी तभी तो रहेगी, लेकिन पांच बड़े बांधों से इसका जल बहना बंद हो गया है. फिर भी यह जिंदा है, लेकिन इसके किनारे-किनारे झुंड के झुंड कोयले वाले बिजलीघर बनाए गए तो इसकी मौत तय हो जाएगी. बिजलीघर नदी को तो चूसेंगे ही, बदले में छोड़ी जाने वाली राख से उसे खाक भी कर देंगे. शिरीष खरे की रिपोर्ट
नर्मदा कोई ग्लेशियर से निकली गंगा नहीं कि बर्फ पिघली और पानी आ गया. इसलिए नर्मदापट्टी पर जंगल की उच्च पैदावार लकड़ी नहीं बल्कि नर्मदा के जल को माना गया है. यहां हर एक पेड़ दोहरी ड्यूटी करता है. एक तो वह पानी को बरसने पर मजबूर करता है और दूसरा जो पानी बरस गया उसे चौतरफा फैली अपनी जड़ों से रोकता है. जब पानी जड़ों में रुक जाता है तो यही रुका हुआ पानी आहिस्ता-आहिस्ता नर्मदा में पहुंचता रहता है.
मगर आज बादलों को जो ठंडक चाहिए वह जंगल कटने से कम हो रही है. वहीं जंगल कटने के साथ ही उनकी जड़ें भी खोदी जा रही हैं. इससे जड़ों से जल को जमीन में ले जाने वाली लाइन टूट रही है और नर्मदा की लय-ताल भी. नर्मदा को जंगल से काटने का पहला बड़ा दृश्य डिंडौरी जिले से शुरू होने वाली बैगाचक (बैगा आदिवासी बहुल इलाका) पहाड़ियों में दिखाई देता है. यहीं कुछ घने जंगल बचे हंै, इसलिए अंधाधंुध कटाई जारी है. स्थानीय पत्रकार लक्ष्मीनारायण अवधिया बताते हैं कि अधिकसे अधिक राजस्व वसूलने के लिए वन विभाग के अधिकारी जंगलों की नीलामी करके उन्हें जबलपुर और बिलासपुर के ठेकेदारों को बेच रहे हैं. जंगल में कोई विशेष निवेश नहीं होने से ठेकेदारों के लिए जंगल एक बड़ी कमाई का स्त्रोत बने हुए हैं. यहां दर्जन भर गांवों में हजारों हेक्टेयर जंगल देखते ही देखते टहनियों से जड़ों तक काटे जा चुके हैं.
बैगाचक में कोई ढाई दशक तक मिश्रित जंगल हुआ करता था. मगर साल बहुल जंगल घोषित करने के बाद यहां कूप (विभाग की योजनाबद्ध कटाई) ने कई वृक्षों (साजा, धावड़ा, हलदू, तेंदू, गराड़ी आदि) को उजाड़ दिया. अब यहां 80 प्रतिशत साल के वृक्ष हैं. नर्मदा में जंगलों के मुख्य प्रकारों में से एक साल जो कभी अपनी सदाबहार प्रकृति के लिए जाना जाता था अब तनाछेदक नाम के कीड़े लगने से बड़े स्तर पर फैली महामारी के लिए जाना जाने लगा है. पंकज श्रीवास्तव की किताब ‘जंगल रहे, ताकि नर्मदा बहे’ से मालूम पड़ता है कि इस महामारी का पहला आक्रमण 1983 में हुआ था. तब वृक्षों की बाकी प्रजातियां भी बड़ी संख्या में होने से असर कम हुआ. 1995 में जब दूसरा आक्रमण हुआ तो साल के 80 प्रतिशत वृक्ष प्रभावित हुए. समनापुर निवासी प्रहलाद परस्ते कहते हैं कि अगर दूसरे वृक्षों को नहीं काटा जाता तो यह पहाडि़यां हरी-भरी रहतीं. विभाग के लिए भी महामारी का डर दिखाकर साल के सभी जंगलों को नेस्तनाबूद करना आसान नहीं रह जाता. साल की लकड़ियों की मांग सबसे अधिक होती है. इसलिए विभाग साल से सबसे अधिक राजस्व पाता है. प्रहलाद कहते हैं, ‘क्या गारंटी है कि काटे जा रहे सभी वृक्षों में कीड़ा लगा ही है. कीड़ों के नाम पर कहीं करोड़ों रुपये बनाने के लिए जंगल तो नहीं काटा जा रहा?’ स्थानीय रहवासी बताते हैं कि वृक्षों को सुखाने के लिए उनके तनों को गोलाकार छील लिया जाता है. इससे कुछ ही दिनों में वृक्ष खड़े-खड़े सूख जाते हैं. सेराझन के धनसिंह कुशराम कहते हैं कि एक दशक पहले तक जंगल के भीतर सूरज दिखाई नहीं देता था. अब डिंडौरी के भानपुर से मंडला जाने पर कई नंगी पहाड़ियां दिखाई देती हैं.
राख से खाक न हो जाए
बिजली के लिए कामधेनु मान ली गई नर्मदा पर जिस तरह से विकास का खाका खींचा गया है उससे लगता है कि जल्दी ही यह नदी सिर से पैर तक निचोड़ ली जाएगी. इसकी कोख में पल रहे थर्मल पावर प्लांटों की राख जब पहाड़ों की लंबी श्रृंखलाएं बनाएगी तो यह ऐतिहासिक नदी इतिहास बन जाएगी. नर्मदा पर यह अभी तक का सबसे बड़ा हमला बताया जा रहा है. उद्गम से दूसरे छोर तक अगर डेढ़ दर्जन प्लांटों को उनकी पूरी क्षमता के साथ स्थापित किया गया तो कई विशेषज्ञों का दावा है कि यह नदी हद से हद दस साल में जहरीली और बीस साल में राख के ढेर पर सवार हो जाएगी. जबलपुर से नरसिंहपुर तक चार थर्मल पावर प्लांटों का काम शुरू होने के साथ ही नर्मदा की उल्टी गिनती शुरू भी हो चुकी है. घंसौर, शाहपुरा भिटोनी और झांसीघाट में 600 से 3,200 मेगावाट क्षमता वाले प्लांटों के लिए नर्मदा के पानी का बड़ा बहाव सुरक्षित रखा गया है. घंसौर में झाबुआ पावर प्लांट निर्माण एजेंसी का मानना है कि प्रति घंटा 600 टन कोयला उपयोग में लेने वाला यह प्लांट प्रति घंटा 150 टन राख निकालेगा. मगर एजेंसी खतरे को बहुत कम आंक रही है; क्योंकि कोयले से बिजली बनाने में 40 प्रतिशत राख निकलती है. इस हिसाब से यह प्लांट प्रतिघंटा 250 टन राख निकालेगा, जिसके निपटान का एकमात्र उपाय नर्मदा का किनारा ही है.
थर्मल पावर कितना खतरनाक होता है, यह जानने के लिए नर्मदा की सहायक नदी तवा के तट पर बसे सारणी कस्बे का तजुर्बा काफी है. सारणी में पावर प्लांट से निकलने वाली राख ने तवा के पूरा पानी प्रदूषित कर दिया है. थर्मल पावर प्लांट के साथ एक समस्या यह भी बताई जाती है कि उससे निकलने वाली राख के सही निपटान का तरीका अब तक नहीं खोजा गया है. इस प्लांट से राख बहाने पर पानी दूधिया होता है और मछलियां मर जाती हैं. सारणी पावर प्लांट अपनी शुरुआत से ही पर्यावरण कानूनों की अनदेखी के लिए चर्चा में रहा है. मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी अपने निरीक्षण में यहां भयंकर प्रदूषण पाया है. बोर्ड ने कंपनी को अब तक कई नोटिस दिए हैं. इसके बावजूद प्रदूषण नियंत्रण की दशा और दिशा में कोई सुधार होता नहीं दिखता.
नरसिंहपुर जिले के गोटेगांव में थर्मल पावर प्लांट को मंजूरी देने से पहले आयोजित जन सुनवाई में विशेषज्ञों ने कई आपत्तियां जताईं. उनके मुताबिक इसी एक प्लांट को नर्मदा से प्रतिदिन 3,000 क्यूबिक यानी बीस हजार से अधिक टैंकर पानी की जरूरत पड़ेगी. इस तरह, सभी प्लांटों की नर्मदा से पानी की कुल जरूरत को जोड़ने पर एक भयावह तस्वीर बनती है. विशेषज्ञ बताते हैं कि कोयला जलने से राख के साथ कार्बन, सल्फर और नाइट्रोजन के ऑक्साइड भारी मात्रा में निकलेंगे और ये हवा के साथ पानी को भी प्रदूषित करेंगे. जन सुनवाई में हवाई और सूखी राख प्लांट के 200 वर्ग किलोमीटर तक फैलने और बरसात में मिट्टी के साथ घुलने वाली राख के दलदल बनने पर भी चिंता जताई गई. परियोजना प्रभावित यह तो मानते हैं कि बिजली विकास के लिए जरूरी है लेकिन उस विकास की परिभाषा से वे सहमत नहीं. करकबेल निवासी और कृषि विस्तार अधिकारी रजनीश दुबे कहते हैं, ‘बांधों की बिजली उद्योगों के लिए बनाई जाती है. बरगी से बिजली बनी लेकिन किसानों को नहीं मिली.’ सतपुड़ा के बाशिंदे किताब के लेखक बाबा मायाराम पूछते हैं ‘सरदार सरोवर और इंदिरा सागर की बिजली कहां गई? गांवों में आने से पहले शहरों में लुट गई. बिजली बनाने के लिए नर्मदा को पूरी तरह से निचोड़ने की तो कई योजनाएं हैं लेकिन बिजली के उपयोग की एक भी योजना क्यों नहीं बनी है?’
दम तोड़ती जीवनधाराएं
नर्मदा की कुल 41 सहायक नदियां हैं. उत्तरी तट से 19 और दक्षिणी तट से 22. नर्मदा बेसिन का जलग्रहण क्षेत्र एक लाख वर्ग किलोमीटर है. यह देश के भौगोलिक क्षेत्रफल का तीन और मध्य प्रदेश के क्षेत्रफल का 28 प्रतिशत है. नर्मदा की आठ सहायक नदियां 125 किलोमीटर से लंबी हैं. मसलन- हिरन 188, बंजर 183 और बुढ़नेर 177 किलोमीटर. मगर लंबी सहित डेब, गोई, कारम, चोरल, बेदा जैसी कई मध्यम नदियों का हाल भी गंभीर है. सहायक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में जंगलों की बेतहाशा कटाई से ये नर्मदा में मिलने के पहले ही धार खो रही हैं.
जल क्षेत्र के शोधकर्ता रहमत बताते हैं, ‘सहायक नदियां बरसात के कुछ महीनों में ही भरती हैं. मानसून में तो सभी खूब उफनती हैं लेकिन उसके बाद उनकी सांसें टूट जाती हैं.’ अमरकंटक से डिंडौरी के कटे हुए जंगलों के रास्ते में खरमैल, चकरार और सिवनी, जबलपुर से डिंडौरी में सिलगी और महानदी और डिंडौरी के बैगाचक क्षेत्र में बुढ़नेर, खरमेर, संजारी, हाफिन, धमना, कनई-वनई, डंडला, छिपनी और मझरार जैसी नर्मदा को रिचार्ज करने वाली डेढ़ दर्जन से अधिक नदियों को देखकर लगता है कि ये कुपोषण की शिकार हो चुकी हैं. इनमें से सबसे बड़ी बुढ़नेर यानी बूढ़ी मैया है. कोई ढाई दशक पहले नर्मदा समर्पित चित्रकार और लेखक अमृतलाल वेगड़ ने नर्मदा की परिक्रमा करते हुए बुढ़नेर को ‘युवनेर’ कहा था. आज यही अपना रूप खो चुकी है. बुढ़नेर बैगाचक के केंद्रीय बिंदु तांतर और ठाड़पतरा नामक दो पहाडि़यों के बीच एक छोटे झरने के रुप में निकलती है. यह मंडला जिले के देवगांव में नर्मदा से मिलने के लिए 150 किलोमीटर की यात्रा करके 40 गांवों से गुजरती है. सक्का निवासी संतोष कुढ़ापी बताते हैं कि बारह महीने तेज धार के साथ बहने वाली बुढ़नेर की छाती 15 अप्रैल के बाद बैठ जाती है. सहायक नदियों के मौत का एक उदाहरण सतपुड़ा पहाड़ी के पातालकोट से निकलने वाली दुधी है. इस बारहमासी नदी का हाल यह है कि नर्मदा से मिलने के लिए अब इसका खैरघाट तक पहुंच पाना मुश्किल है. नहीं के बराबर दिखाई देने वाला पानी भी बरसात के चार महीने रहता है. आठ महीने दुधी केवल यादों में बसती है. अब इसके किनारे न कोसम के वृक्ष हैं और न उससे निकलने वाली लाख को धोने के लिए पानी.
सहायक नदियों की प्रवाह में लगातार आती कमी को लेकर सरकारी स्तर पर भी चिंता जताई जाने लगी है. प्रवाह में कमी की एक बड़ी वजह सहायक नदियों पर बड़े बांध बनाना भी बताई जा रही है. इसमें नदियों का जल नर्मदा तक पहुंचने से पहले ही जमा कर लिया जाता है. तवा, बारना, मान, वेदा, कोलार, मटियारी और सुक्ता जैसी नदियों पर भी भारी बांध बनाकर उनके प्रवाह को रोक दिया गया है. विशेषज्ञों की राय में इससे नदियों के आपसी जुड़ावों और उनके पर्यावरण के बीच का संतुलन गड़बड़ा गया है.
दूसरी ओर जंगलों के लगातार कटने से बरसात का पानी बिना धरती में समाए सीधे सहायक नदियों में मिल जाता है और भारी मात्रा में गाद बहाते हुए बाढ़ लाता है. यहां के जंगल को नदियों का पिता कहा जाता है. यह बरसात के पानी के रिसाव को नियंत्रित करके अपनी बेटियों को कुछ यूं मर्यादा में रखता है कि वे विनाशकारी तांडव नहीं कर पातीं. अगर जंगलों ने पानी थामना बंद कर दिया तो कई अध्ययन बताते हैं कि नर्मदा घाटी को कल अचानक आने वाली बाढ़ और सूखे के लिए जाना जाएगा. इन नदियों में प्रवाह बने रहने की अवधि और मात्रा में भी तेजी से कमी आएगी.
यह प्यास नहीं बुझेगी
एक ओर केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक नर्मदा की आवक आधी रह गई है. दूसरी ओर नर्मदा के समीपवर्ती इलाकों के साथ खंडवा, इटारसी, बुदनी और बैतूल के अलावा 40 बड़े शहरों की मांग भी नर्मदा के पानी पर आकर टिक गई है. तेजी से बढ़ते भोपाल, इंदौर और जबलपुर सहित मध्य प्रदेश के 20 बड़े शहरों की प्यास बुझाने के लिए नर्मदा का पानी दिया ही जा रहा है. इसी के साथ बिजली बनाने के लिए महेश्वर और ओंकारेश्वर जैसी बड़ी परियोजनाओं को प्राथमिकता की सूची में रखा गया है. नर्मदा के अधिकतम दोहन के लिए महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों की भी नजर है. जाहिर है शहरीकरण और आबादी का बढ़ता विस्तार नर्मदा के पानी की खपत में भी बढ़ोतरी करेगा. भारतीय जनगणना महानिदेशक के मुताबिक नर्मदापट्टी की आबादी 1901 में 65.69 लाख और 2001 में 3.31 करोड़ थी, जो 2026 में 4.81 करोड़ हो जाएगी. 2026 में यहां जनसंख्या घनत्व बढ़ते-बढ़ते 277 प्रति वर्ग किलोमीटर तक पहुंच जाएगा. आबादी की बढ़ती गति के समानांतर नर्मदा के जल को बचा पाना बहुत मुश्किल होगा. अमृतलाल वेगड़ नर्मदा के संकट की जड़ को आबादी से जोड़ते हुए कहते हैं, ‘आबादी विस्फोट से जंगल कटते और खेत, घर, कारखाने फैलते जा रहे हैं. ये सारे कारक मिलकर एक नदी पर इतना दबाव बना रहे हैं कि वह दम तोड़ रही है.’ वहीं दूसरा तबका नर्मदा के संकट को सरकार की मौजूदा नीतियों से जोड़ता है. यह मानता है कि नीतियां बनाने वालों का नजरिया शहरी है. इसलिए सरकार कोई भी आए अंततः पकड़ेगी उसी नजरिये वाली नीति को जो विशुद्ध तकनीकी है और नर्मदा को महज एक संसाधन तक सीमित रखती है.
समाजवादी जन परिषद के नेता सुनील का मत है कि नर्मदा पर पहला बड़ा हमला जो बांधों के साथ शुरू हुआ उसने नदी का कुदरती प्रवाह रोक दिया. अब जो दूसरे हमले हुए हैं उनसे पानी का रुख कारखानों की ओर हो जाएगा. विडंबना यह भी है कि नीतियों में नर्मदा को बचाने के लिए जनता का कोई अधिकार नहीं. जैसे नर्मदा को मरते हुए देखना ही उनकी नियति है. वरिष्ठ अधिवक्ता जयंत वर्मा का मानना है कि नर्मदा में जारी विकास को जनहित में बताया जा रहा है लेकिन बांधों को सिंचाई के नाम पर बनाने के बाद उसे कंपनियों को सौंपना कैसा जनहित है. एक हाथ से सरकार संसाधनों का दोहन करके संरचनाएं खड़ी करती है और दूसरे हाथ से संरचनाओं को कंपनी के हाथों सौंपती है. उनके मुताबिक संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा के घोषणापत्र में स्वनिर्धारण का जन अधिकार, सार्वजनिक भागीदारिता और प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व को विकास का सूचक माना गया है. लेकिन नर्मदा अंचल में जारी विकास तो तीनों सूचकों में से एक का भी संकेत नहीं करता. नर्मदा के कई रूपों को अपने कैमरे में संजोकर रखने वाले छायाकार रजनीकांत यादव बताते हैं कि अब नर्मदा को देखकर रोया, हंसा या गाया नहीं जा सकता. सबको पता चल चुका है कि इसे काबू में रखा जा सकता है. तकनीक के आने से जब नजरिया ही ऐसा हो रहा है तो यह मैया कैसे रही, यह तो मालगाड़ी बन गई. इधर सरकार की नीति है कि आइए हम आपको परोसने को तैयार हैं और ये लीजिए नर्मदा, ये लीजिए उसके जंगल, पहाडि़यां और उधर कंपनियों के पास सारी खोदाखादी, काटने और छांटने की मशीनें हैं. वे आएंगी और देखते ही देखते एक नदी को मैदान बना जाएंगी. l