बात 1977 की है. आपातकाल के बाद आम चुनाव हुआ था. तब बिहार से एक युवा सांसद भी लोकसभा पहुंच गया था. महज 29 साल की उम्र में. उस युवा सांसद का नाम था लालू प्रसाद यादव. गोपालगंज जिले के फुलवरिया जैसे सुदूरवर्ती गांव से निकलकर, दिल्ली के संसद भवन में पहुंचने का लालू का यह सफर चमत्कृत करने वाला था. लेकिन तब मीडिया की ऐसी 24 घंटे वाली व्यापक पहुंच नहीं थी. इसलिए लालू का एकबारगी वाला उभार भी उस तरह से चर्चा में नहीं आ सका. तब तो फुलवरिया गांव में रहने वाली लालू प्रसाद की मां मरछिया देवी ने ही अपने बेटे की इस बड़ी छलांग पर कोई टिप्पणी नहीं की थी. 1990 में जब लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री बने और रातों-रात बिहार के बड़े नायक के तौर पर उभरे, चहुंओर उनकी चर्चा होने लगी और हर जगह लालू के नाम पर जश्न का माहौल बना तब मरछिया देवी को लगा कि उनका बेटा कुछ बन गया है. यही वजह है कि लालू जब मां से मिलने पहुंचे तो उन्होंने पूछा, ‘का बन गइल बाड़ हो.’ लालू प्रसाद ने तब अपनी मां को समझाने के लिए गोपालगंज के ही एक पुराने राजा हथुआ महाराज का बिंब के तौर पर इस्तेमाल किया और बताया कि अब तुम्हरा बेटा हथुआ महाराज से भी बड़का राजा बन गया है. मां को तसल्ली हुई.
लालू प्रसाद यादव ने अपनी अपढ़ मां को समझाने के लिए अपने पड़ोस के राजा ‘हथुआ नरेश’ से खुद की तुलना की. यही नहीं, फुलवरिया गांव से निकलने के बाद उन्होंने एक-एक कर दो और जुमले हवा में उछाले. एक यह कि अब रानी के पेट से ही राजा का जन्म नहीं होगा और दूसरा यह कि एक न एक दिन वे प्रधानमंत्री भी जरूर बनेंगे. लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, बिहार की एक बड़ी आबादी की आकांक्षा जगी थी, उम्मीदों का संचार हुआ था और बहुतेरे सपनों के सच होने की उम्मीद जगने लगी थी.
लेकिन लालू प्रसाद बिहार को संभालने के साथ ही देश को संभालने-थामने का सपना बार-बार देखने लगे और गाहे-बगाहे यह भी रटने लगे कि वे प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, वे प्रधानमंत्री जरूर बनेंगे, उनका योग कहता है कि एक दिन प्रधानमंत्री जरूर बनेंगे. लालू प्रसाद यादव इस सपने का ख्वाब जनता दल का नेता बनकर बुनते रहे और ऐसा करते हुए यह भी भूल गए कि जनता दल में वे अकेले नेता नहीं जो सिर्फ अपने सपनों को पर लगाने के लिए सारे निर्णय खुद ले सकते हैं. उनके संगी-साथी नीतीश कुमार ने सबसे पहले साथ छोड़ा, शरद यादव, जॉर्ज फर्नांडिस जैसे नेताओं ने भी. 1996 में देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने के वक्त लालू के दरवाजे पर भी संभावनाओं ने दस्तक दी थी, लेकिन आखिर में समीकरण उनके हिसाब से नहीं बैठे. उनके अपने समाजवादी नेताओं ने ही उनका विरोध किया. लालू प्रसाद मन मसोसकर किंग बनने के बजाय खुद को किंगमेकर कहना-कहलाना ज्यादा पसंद करने लगे.
तब से लेकर 2009 के लोकसभा चुनाव के परिणाम आने तक लालू प्रसाद उस यूटोपिया से बाहर नहीं निकल सके और समय-समय पर दुहराते रहे कि उनका योग है, वे एक न एक दिन पीएम बनेेंगे जरूर. जो लालू प्रसाद बोलते रहे, वही उनके दल के कुछ नेता भी दुहराते रहे. उनकी पत्नी और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने भी यह बात कही. बिहार के गायकों ने लालू प्रसाद को पीएम बनाने वाले गीत भी गढ़े, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में इनमें से कोई कवायद काम नहीं आई. 2005 में बिहार की सत्ता गंवा चुके राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लोकसभा चुनाव में भी बुरी तरह परास्त हुए और लोकसभा में सिर्फ चार सांसदों वाली पार्टी के नेता भर बन गए.
वर्षों तक लालू प्रसाद के संगी-साथी रहे रामबिहारी सिंह कहते हैं, ‘अब बूढ़ीपंथी पार्टियों के बड़े नेताओं को स्थिति को समझना चाहिए. आज नया जमाना है. नई चीज गढ़ने की तैयारी है. पुराने जमाने की बात कहकर जितने दिन लालू प्रसाद जैसे नेता अपना काम चला सकते थे, चला लिए. अब वह सब नहीं चलने वाला है.’ दूसरे शब्दों में कहें तो अब केंद्रीय राजनीति में लालू प्रसाद का करिश्मा नहीं चलने वाला है.
वर्षों तक पीएम बनने का ख्वाब देखते रहने वाले लालू प्रसाद यादव वैसे भी फिलहाल बेहद मुश्किल दौर में हैं, लेकिन उनके लिए एक धुंधली उम्मीद भी दिखती है. लालू प्रसाद खुद सजायाफ्ता हो चुके हैं, सांसदी जा चुकी है और आगे जितने वर्षों तक के लिए वे चुनाव लड़ने से वंचित हुए हैं, उतने वर्षों के बाद वे राजनीति में शायद ही चलने लायक सिक्के की तरह रहें. और रही बात केंद्रीय राजनीति में अब किंगमेकर बनने की तो लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं की प्राथमिकता अब किसी तरह बिहार में अपनी खोई हुई जमीन को वापस पाना है.
यह बात लालू प्रसाद भी जानते हैं और उनके दल के नेता भी, लेकिन अब भी वे उन दिनों को याद करके एक नए किस्म का यूटोपिया बनाए रखना चाहते हैं, जिन दिनों लालू प्रसाद देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाने में भूमिका निभा रहे थे या फिर यूपीए वन में रेल मंत्री बनकर देश-दुनिया में वाहवाही लूट रहे थे. राजद नेता प्रेम कुमार मणी कहते हैं, ‘राजनीति वर्षों पहले ही बदल चुकी है और समय के साथ बदलती रहती है. नेहरू के बाद इंदिरा युग अलग था. नेहरू समाजवादी ढांचेे से काम चलाते थे, लेकिन इंदिरा के समय में समाजवादी सरकार की ही चाहत जनता में जगी. 1990 के बाद राजनीति पूरी तरह बदल गई. पहचान की राजनीति का जमाना आ गया. अब उसका दौर भी समाप्त हो रहा है. दिल्ली में जो छोटी-सी घटना हुई वह नई आकांक्षाओं का जनतांत्रिक ज्वार है. बिहार की राजनीति का जो सबसे बड़ा लक्षण है, वह है कि 11 प्रतिशत शहरीकरण है ऐसे में अब जो नए तरीके से सोचेगा, वही यहां की जनता की उम्मीदों को वोटों में बदलने में कामयाब होगा.’ मणी आगे कहते हैं, ‘हां यह तय है कि बिहार में नरेंद्र मोदी या भाजपा का खुलकर विरोध करने और उसके खिलाफ वोटों का धुव्रीकरण करने में लालू प्रसाद ही सफल होंगे.’
कई बड़े नेताओं से बात होती है. राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं से भी और दूसरे दल के नेताओं से भी. कोई खुलकर नहीं कहता कि लालू प्रसाद या उनकी पार्टी के लिए केंद्र की राजनीति में करिश्माई भूमिका निभाने की संभावनाएं खत्म- सी हो गई हैं. राजद के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘नीतीश कुमार से बिहार में नाराजगी की एक लहर है. भाजपा से जदयू का अलगाव हो चुका है. लालू प्रसाद खुलकर और जमकर भाजपा अथवा नरेंद्र मोदी के खिलाफ बोल सकेंगे. उसका फायदा मिलेगा. लेकिन इतना फायदा मिलेगा कि वे या उनकी पार्टी केंद्र मंे अहम भूमिका निभाने की स्थिति में आएगी, ऐसा फिलहाल संभव नहीं दिखता.’ लोक जनशक्ति पार्टी के बिहार के प्रवक्ता रोहित कुमार सिंह कहते हैं, ‘गठबंधन की राजनीति का दौर है. लालू प्रसाद एक समय में उस हैसियत वाले नेता रहे हैं. आगे क्या
होगा, इसका आज की राजनीति में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता.’