बरसों पहले महिलाओं के लिए निकलने वाली हिंदी पत्रिका ‘वामा’ में मशहूर नारीवादी चिंतक जर्मेन ग्रीयर का एक साक्षात्कार छपा था. जर्मेन ग्रीयर ने तब कहा था कि नारीवादी आंदोलन ने भारतीय स्त्री को बस तीन चीजें दी हैं- लिपस्टिक, हाई हील और ब्रा. बाद के दिनों में जर्मेन ग्रीयर की यह राय बदली या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम, लेकिन अपने देश में बहुत सारे लोग ऐसे रहे हैं जो नारीवाद को एक सजावटी- एक फैशनेबल विचार- भर मानते रहे हैं. इत्तिफाक से आधुनिक स्त्री का मतलब भी उनके लिए एक फैशनेबल स्त्री भर है. कुछ साल पहले जब शरद यादव ने संसद में महिला आरक्षण पर चल रही बहस के दौरान परकटी महिलाओं का जिक्र किया था तो वे अपने भीतर बनी हुई आधुनिक स्त्री की छवि का भी सुराग दे रहे थे.
दरअसल भारत में स्त्री आधुनिकता के सामने दुविधाएं और संकट कई हैं. सबसे बड़ा संकट तो यही है कि आधुनिकता की पूरी परियोजना की तरह स्त्री आधुनिकता के विचार और संस्कार भी हमारे यहां पश्चिम से ही आए हैं. यह आधुनिकता मूलतः नागर है और इसका ज्यादातर जोर लैंगिक बराबरी से ज्यादा यौनिक आजादी पर है. बल्कि पिछले कुछ दिनों में स्त्री मुक्ति और यौनिक आजादी को कुछ इस तरह गूंथ देने की कोशिश हुई है जैसे सिर्फ देह की मुक्ति को ही स्त्री मुक्ति का पर्याय बना दिया गया है. यहां एक बहुत स्पष्ट फांस है जो बाजार ने पैदा की है. बाजार का पूरा प्रचार-प्रसार, उसका पूरा का पूरा विज्ञापन उद्योग, समूचा मनोरंजन उद्योग जैसे सिर्फ स्त्री की देह पर टिका है. साबुन से लेकर कार तक बेचने के लिए स्त्री देह का यह इस्तेमाल लेकिन स्त्री की दैहिक आजादी को एक नई तरह की छिपी हुई गुलामी में बदल डालता है. यह अनायास नहीं है कि जिस दौर में स्त्री लगातार आजादी और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ी है, उसी दौर में स्त्री उत्पीड़न भी बढ़ा है, देह का कारोबार भी बढ़ा है, उसका आयात-निर्यात भयावह घृणित स्तरों तक फैला है.
मुश्किल यह है कि आधुनिकता स्त्री को घर से बाहर निकाल कर उसका शिकार करना चाहती है तो परंपरा उसे घर के भीतर ही मार डालना चाहती है. आधुनिकता और परंपरा दोनों इस मामले में द्वंद्वहीन हैं कि स्त्री बस इस्तेमाल की वस्तु है- उसे बाजार के भी काम आना है, घर के भी. लेकिन इस स्थिति का सामना तो स्त्री को करना होगा और वह कर भी रही है. बेशक, उसके बाहर निकलने से, बराबरी चाहने से, सिर्फ परंपरा की चूलें ही नहीं हिल रहीं, काफी कुछ और भी दरक रहा है. परिवारों में हलचल है, विवाह नाम की संस्था के भीतर तनाव हैं, दफ्तरों और सार्वजनिक जगहों में उथल-पुथल है. पहली बार पुरुष स्त्री के अधीन रह कर काम करना सीख रहा है, उसे बॉस की तरह देखने को मजबूर है. स्त्रियां गलती कर रही हैं, सीख रही हैं, दूसरों की गलती निकाल रही हैं और अंततः समाज में लगातार निर्णायक हस्तक्षेप कर रही हैं.
यह सबसे ज्यादा संभव इसलिए हो रहा है कि स्त्री आज की तारीख में आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हुई है. इस लिहाज से देखना चाहें तो आत्मनिर्भरता या इसकी चाह भारतीय स्त्री के आधुनिक होने की शायद पहली कसौटी हो सकती है. दरअसल आत्मनिर्भरता सिर्फ नौकरी या रोजगार हासिल करना नहीं है, वह एक पूरी प्रक्रिया है जिससे किसी के व्यक्तित्व का निर्माण होता है. इसकी शुरुआत शिक्षा और समानता के अवसरों से होती है. यह सच है कि दुर्भाग्य से हमारी शिक्षा पद्धति में पुरुष वर्चस्व के अनेक रूप कई सूक्ष्म स्तरों पर सक्रिय हैं जो पाठ्य पुस्तक निर्माण से लेकर पठन-पाठन की प्रक्रिया और शिक्षकों के नजरिये तक में दिखाई पड़ते हैं. भारत के मध्यवर्गीय घरों में भी लड़कियों को अमूमन इसलिए पढ़ाया जाता रहा कि वे पढ़े-लिखे, अच्छे रोजगार में लगे लड़कों से विवाह की पात्रता अर्जित कर सकें.
लेकिन इसके बावजूद इस शिक्षा ने लड़कियों के व्यक्तित्व निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है, उन्हें बराबरी का दावा पेश करने लायक बनाया है. 50 साल पहले शिक्षा और सेहत के मामलों में भारतीय स्त्रियां जो स्वाभाविक उपेक्षा झेलती थीं, वह निस्संदेह काफी घटी है. लेकिन स्त्री की बराबरी का एक बड़ा मोर्चा अब भी बाकी है. सारे कानून बन जाने के बावजूद भारतीय समाज की मुख्यधारा उसे संपत्ति में हिस्सा नहीं देती. लड़की के नाम पर दहेज चाहे जितना भी दे दिया जाए, लड़की अगर घर और खेत में हिस्सा मांगे तो वह बेशर्म, ढीठ या लालची कुछ भी कही जा सकती है जो अपने भाइयों का हक मार रही है.
आत्मनिर्भरता स्त्री के आधुनिक होने की शायद पहली कसौटी हो सकती है. आत्मनिर्भरता सिर्फ नौकरी या रोजगार हासिल करना नहीं है, वह एक पूरी प्रक्रिया है
इस मामले में हमारे समय की लड़कियां भी कुछ हिचक और संशय में दिखती हैं. वे नौकरी करके, या कोई छोटा-मोटा काम करके गुजारा करने को तैयार हो सकती हैं, लेकिन अपनी ऐसी छवि नहीं बनने देना चाहतीं कि वे घर में बंटवारा करा रही हैं. दरअसल यह परंपरा की वही जकड़न है जिससे आधुनिक स्त्री को मुक्त होना होगा. घर-परिवार-खानदान जैसी व्यवस्थाएं सिर्फ लड़कों की हैं और लड़कियां पराया धन हैं, यह अवधारणा सबसे पहले स्त्री को दास में बदलती है. अक्सर इसका खामियाजा उन औरतों को भुगतना पड़ता है जो आर्थिक तौर पर पति पर निर्भर होती हैं और किसी त्रासदी में पाती हैं कि मायका उन पर कुछ दया करने को तो तैयार है, लेकिन उनका हिस्सा देने को नहीं. भारत की आधुनिक स्त्री को यह सिलसिला तोड़ना होगा- उसे बताना होगा कि उसके बराबरी के अधिकार बिल्कुल संपत्ति से शुरू होते हैं. यह सिर्फ पैसे का नहीं, उसके मान-सम्मान का, उसकी सामाजिक हैसियत का मामला भी है.
स्त्री की आधुनिकता की बात हो और परिधान का सवाल न आए, यह नहीं हो सकता. क्योंकि एक स्तर पर परिधान ही वह पहली कसौटी है जिस पर समाज आधुनिक लड़की की छवि बनाता है. दूसरे स्तर पर यह भी वह दुविधा है जो भारत में आधुनिक लड़की को घेरती है. निस्संदेह तथाकथित आधुनिक कहे जाने वाले परिधान पहनने वाली लड़कियां जरूरी नहीं कि मिजाज से भी आधुनिक हों और साड़ी या परंपरागत दूसरे कपड़ों वाली लड़कियां पारंपरिक हों. लेकिन इस मामले में भी लडकियों को दोहरे हमले झेलने पड़ते हैं. परंपरा चाहती है कि वह परदे, बुरके, आंचल में रहे, इससे आगे भी जाए तो उसकी बनाई कसौटियों के हिसाब से तथाकथित शालीन- यानी देह ढकने वाले कपड़े पहने, जबकि बाजार के कंधों पर आ रही आधुनिकता जैसे उसके सारे कपड़े उतार लेने पर आमादा है और इसे उसकी आजादी का नाम दे रही है. निस्संदेह कोई भी आधुनिक लड़की अपने ढंग से तय कर सकती है कि वह क्या पहने और क्या नहीं, और अलग-अलग अवसरों के लिए अलग-अलग परिधान निकाल सकती है, लेकिन उसे यह स्वस्थ माहौल देना होगा कि वह अपनी मर्जी से अपने कपड़े चुन सके, और ऐसा करते हुए न परंपरा की लाठियां झेले न बाजार के लॉलीपॉप से प्रभावित हो. भारतीय समाज में दोनों तरह की परंपराएं भी मिलती हैं- खुलेपन की भी और तथाकथित मर्यादा की भी- एक आधुनिक स्त्री इन दोनों के बीच आसानी से आवाजाही कर सकती है.
इस आवाजाही में दो महत्वपूर्ण सवाल उसका पीछा करते हैं. पहला तो यह कि वह अपनी त्वचा का क्या करे, दूसरा यह कि वह अपने चारों तरफ पसरे समाज से- जो मूलत: पुरुष वर्चस्व और उपस्थिति से बना समाज है- कैसा रिश्ता जोड़े. एक दौर में नारीवाद मानता था कि स्त्री को पुरुष की निगाह में सुंदर दिखने की जरूरत नहीं. वह सौंदर्य प्रतियोगिताओं का विरोधी था और इस बात की उचित वकालत करता था कि स्त्री अपने व्यक्तित्व से परखी जाए, अपने शरीर से नहीं. बाद के दौर में यह मान्यता बदलती दिखती है, एक सोच यह उभरती है कि शरीर भी व्यक्तित्व का हिस्सा ही है और जब बहुत तेज दौड़ने की, बहुत ऊंची छलांग लगाने की, बहुत दूर तक गोला फेंकने की- मूलतः शारीरिक सामर्थ्य पर आधारित प्रतियोगिताएं हो सकती हैं तो सबसे सुंदर दिखने की क्यों नहीं. त्वचा के प्रति स्त्री में एक नई संवेदनशीलता जागी है जो उसे अपनी सुंदरता के प्रति भी सजग बना रही है.
अब दूसरे सवाल पर लौटें जो भारतीय संदर्भों में अचानक समीचीन हो उठा है. लड़की जब तक घर में थी, वह किसी की मां, बेटी, बहन, पत्नी, भाभी, चाची, बुआ, मौसी जैसी बिल्कुल परिभाषित भूमिकाओं में थी. वह बाहर भी निकलती थी तो बड़ी आसानी से किसी की दीदी और भाभी हो जाया करती थी. लेकिन आज के कहीं ज्यादा पेशेवर दौर में, जब दफ्तरों में स्त्री उपस्थिति भी बढ़ी है और आपसी प्रतिस्पर्धा भी, तो स्त्री अपने आप को रिश्तों के अपरिभाषित संसार में पा रही है. भारत में स्त्री और पुरुष पहली बार इस तरह निकट हैं कि एक साथ कई घंटे गुजार रहे हैं. ऐसी स्थिति में उनके बीच नए रिश्ते बन रहे हैं. पहली बार विवाह पूर्व या विवाहेतर संबंधों का सवाल इतने जलते हुए ढंग से हमारे सामने है जो परिवारों को तनाव में डाल रहा है. पहली बार विवाह इतनी बुरी तरह टूट और दरक रहे हैं. तलाकों की तादाद इसीलिए बड़ी तेजी से बढ़ी है.
इन सबके लिए मर्द को नहीं, नए जमाने की औरत को दोष दिया जा रहा है. यह समझने को कोई तैयार नहीं है कि विवाह नाम की व्यवस्था अब तक अटूट और अभेद्य मालूम पड़ती रही तो इसलिए कि उसकी दीवारें औरत की हसरतों से चिनी हुई थीं. पुराने परिवार में औरत मर्द की छाया बन कर जी सकती थी. नए घर में वह दफ्तर की ही तरह हुक्म चला रही है, पुरुष की ही तरह बराबरी का हिस्सा मांग रही है. मुश्किल यह है कि इसकी वजह से जो सामाजिक ताना-बाना टूटता लग रहा है, उसकी मार भी औरत की पीठ पर ही पड़ रही है. पहली बार वह इतनी अकेली है और कई बार टूटे हुए घर में अपने बच्चों का बोझ अकेले उठाने को मजबूर.
इन सबके बावजूद इस आधुनिक समय ने स्त्री को उसका व्यक्तित्व लौटाया है जो कई दूसरी चीजों से कहीं ज्यादा मूल्यवान है. यह जरूरी है कि स्त्री अपना यह स्वतंत्र व्यक्तित्व कायम रखे और इसी ढंग से अपने रिश्ते, अपने रास्ते, अपने कपड़े तय करे. यह उसके लिए भी जरूरी है और एक न्यायपूर्ण समाज की रचना के लिए भी.