चैनलों पर लड़कपन इस कदर हावी है कि वे तथ्यों को उत्तेजना और सनसनी के साथ परोस रहे हैं.
सनसनी, अति उत्साह और उत्तेजना न्यूज चैनलों की स्थाई पहचान बन चुकी है. हालांकि बीते कई सालों से चैनलों के कर्ताधर्ता यह दावा करते रहे हैं कि ये चैनलों के बालपन की समस्याएं हैं जो उम्र बढ़ने के साथ खत्म होती जाएंगी और चैनलों में परिपक्वता आएगी. लेकिन चैनलों का लड़कपन खत्म होता नहीं दिख रहा है. उल्टे चैनलों में अति उत्साह, उत्तेजना और सनसनी के लगातार बढ़ते जोर को देखकर कई बार आशंका होती है कि कहीं उन्हें हाई ब्लड प्रेशर की स्थायी शिकायत तो नहीं है?
जबीउद्दीन अंसारी उर्फ अबू जिंदाल उर्फ अबू जुंदल उर्फ अबू जंदाल उर्फ अबू जंदल उर्फ अबू हमजा के मामले को ही लीजिए. कथित तौर पर लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े और मुंबई पर 26/11 के आतंकवादी हमले के निर्देशकों में से एक जबीउद्दीन अंसारी की सउदी अरब की मदद से 21 जून को दिल्ली में गिरफ्तारी के बाद से भारतीय मीडिया में जिस तरह की अति उत्साह और उत्तेजना से भरी और सनसनीखेज रिपोर्टिंग हुई है, उससे बाकी दर्शकों की तो नहीं जानता लेकिन अपनी जानकारी व समझ कम बढ़ी और भ्रम व हैरानी ज्यादा बढ़ गई. चैनलों की रिपोर्टिंग की हालत यह थी कि शुरुआती कई दिनों तक तो अंसारी के नाम को लेकर उलझन बनी रही.
अबू के मामले में टेलीविजन चैनलों के बीच आगे बढ़ने की ऐसी होड़ लगी कि वे तथ्यों के बजाय कल्पना से अधिक काम लेते रहे
जितने चैनल, जितने अखबार, उतने मुंह और उतनी ही कहानियां. नाम का यह भ्रम इस हद तक पहुंच गया कि गृह मंत्रालय को सफाई देनी पड़ी कि गिरफ्तार जंदाल, अबू हमजा नहीं है. इसके बावजूद यह उलझन आज भी बनी हुई है कि वह जिंदाल है, जुंदल है या जंदाल है. जैसे नाम का जंजाल काफी नहीं था, समाचार मीडिया खासकर चैनलों में जंदाल के कारनामों को लेकर एक से एक सनसनीखेज ‘खबरें’ दिखाई गईं. इस मामले में चैनलों के बीच एक-दूसरे से आगे बढ़ने की ऐसी होड़ मची हुई थी कि उत्तेजना में वे तथ्यों से कम और कल्पना से अधिक काम ले रहे थे.
कल्पनाशीलता में वे ऐसी-ऐसी रिपोर्टें दिखा रहे थे कि आज की रिपोर्ट कल की रिपोर्ट को काट रही थी, सुबह का ‘खुलासा’ शाम के ‘खुलासे’ पर उल्टा पड़ रहा था और एक चैनल की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट दूसरे की एक्सक्लूसिव को सर के बल खड़ा कर दे रही थी. पता नहीं चैनलों में अपने पिछले दिनों की रिपोर्टों को देखने का चलन है या नहीं, लेकिन उन पर जिस तरह हर दिन सुबह-शाम जंदाल से पूछताछ के बाद सूत्रों के हवाले से ‘खुलासे’ प्रसारित हो रहे थे, उसमें कोई तारतम्य नहीं दिख रहा था.लगता है कि चैनल या तो बहुत जल्दी में रहते हैं और कल क्या दिखाया था, इसका ख्याल करने की फुर्सत नहीं होती है या फिर वे ‘दिखाओ और भूल जाओ’ (स्मृति भ्रंश) की बीमारी के शिकार हो गए हैं.
लेकिन क्या इस स्मृति भ्रंश की बड़ी वजह यह नहीं है कि ऐसे मामलों में चैनल (और अखबार भी) ‘सूत्रों’ पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गए हैं? यह भी कि वे इन खुफिया-पुलिस सूत्रों से सवाल नहीं पूछते हैं और उनसे मिली हर कच्ची-पक्की जानकारी को बिना छानबीन और जांच-पड़ताल के और अक्सर अपनी ओर से भी कुछ नमक-मिर्च लगाकर चैनलों पर उगल देते हैं? यही नहीं, अधिकांश चैनलों की रिपोर्टिंग में तथ्यों/भाषा के स्तर पर संयम, संतुलन और वस्तुनिष्ठता को भी किनारे रख दिया जाता है. इस मामले में इंडिया टीवी और बाकी चैनलों के बीच का फर्क खत्म होते देर नहीं लगती है. लेकिन क्या करें जब उत्तेजना से भरे चैनलों का नीति वाक्य ‘देर से दुर्घटना भली’ बन गया है. यह और बात है कि इस दुर्घटना में हम दर्शकों की समझ और जानकारी का सिर फूटता है. लेकिन इससे चैनलों को क्या फर्क पड़ता है?