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इन दिनों उत्तर प्रदेश की गाजियाबाद स्थित एक सीबीआई अदालत में जो हो रहा है वह हो सकता है कि भारत के कानूनी इतिहास की सबसे शर्मनाक घटनाओं में से एक के रूप में याद किया जाए. यह एक ऐसी कहानी है जिससे हर एक को डर लगना चाहिए. एक ऐसी कहानी जिसमें भयानक अक्षमता और पूर्वाग्रह दिखता है. जिसमें जान-बूझकर न्याय की धज्जियां उड़ाई जाती नजर आती हैं. यह एक ऐसी कहानी है जिसका केंद्रीय पात्र इस देश में कोई भी हो सकता है.
15 जून, 2008 की रात तक राजेश और नूपुर तलवार एक आम मध्यवर्गीय दंपत्ति थे. वे दोनों ही दांतों के डॉक्टर थे और 13 साल की अपनी बेटी आरुषि के साथ नोएडा में रहते थे. दिल्ली पब्लिक स्कूल, नोएडा में नवीं क्लास में पढ़ने वाली आरुषि अपनी उम्र की बाकी लड़कियों की तरह ही थी. प्यारी और नटखट. रिश्तों में मजबूती से गुंथा यह परिवार हर तरह से खुशहाल था. 15 मई को डॉ राजेश तलवार ने अपनी बेटी के लिए एक कैमरा खरीदा था. 24 तारीख को उसका जन्मदिन आने वाला था. दोस्तों के साथ इसका जश्न मनाने के लिए एक आयोजन स्थल भी बुक कर लिया गया था. तोहफे के रूप में मिले कैमरे से खुश आरुषि ने इससे अपनी और मम्मी-पापा की ढेर सारी तस्वीरें खींचीं.
अगली सुबह, यानी 16 मई तक खुशहाली की यह तस्वीर पूरी तरह से बदल चुकी थी. आरुषि की खून से लथपथ लाश उसके बिस्तर पर मिली. उसके सिर पर भयानक वार किया गया था और उसका गला रेत दिया गया था. पहले-पहल शक तलवार के घरेलू नौकर हेमराज की तरफ गया जो घर से गायब था. लेकिन एक दिन बाद ही 17 मई को हेमराज की लाश छत पर मिली. उसके सिर पर भी वार हुआ था और गला रेत दिया गया था.
तब से लेकर आरुषि-हेमराज डबल मर्डर केस की कई बातें सबको जुबानी याद हो चुकी हैं. सभी को इसके बारे में मालूम है और सभी का इसके बारे में कोई-न-कोई मत है. स्थिति कुछ ऐसी है कि जो धारणाएं बन गई हैं उन पर तथ्यों से अब कोई फर्क नहीं पड़ता.
हेमराज की लाश मिलने का इस मामले पर एक और असर पड़ा. जल्द ही नोएडा पुलिस ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और इसमें एक कहानी पेश की. गौर करें कि तब तक पड़ताल खत्म नहीं हुई थी. यह कहानी विस्तार पाती गई. इतना कि आज इसे खारिज करना नामुमकिन लगता है. अखबारों और टीवी पर यह कहानी छा गई और ऐसा करने में पत्रकारीय मर्यादा और तथ्यों की पड़ताल जैसी चीजें किनारे कर दी गईं.
[box]नई सीबीआई टीम के आने के बाद जहां एक पक्ष के खिलाफ जांच ठंडे बस्ते में चली गई वहीं तलवार दंपति के खिलाफ इसने तेज रफ्तार अख्तियार कर ली हेमराज की लाश मिलने के बाद तलवार दंपति स्वाभाविक रूप से शक के घेरे में आ गया क्योंकि घर में जबरन घुसने का कोई संकेत नहीं था[/box]
अचानक ही राजेश और नूपुर तलवार इंसान नहीं रह गए. वे ऐसे माता-पिता नहीं रह गए जिन्होंने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा हादसा झेला था. तथ्यों की पड़ताल के बिना ही वे अपनी बेटी के कातिल हो गए. पिछले पांच साल में उनके बारे में मीडिया में हर तरह की खबरें आई हैं. अब उनकी हालत यह है कि उन पर कोई भी खबर चलाई जा सकती है. इसके लिए किसी तथ्य, तर्क और पड़ताल की जरूरत नहीं: वे अपनी ही बेटी के हत्यारे हैं. वे बीवियों की अदला-बदली वाले नेटवर्क का हिस्सा हैं. बेटी की मौत का गम उनके चेहरे पर नहीं दिखा. उन्होंने अपराध स्थल को साफ कर दिया था. आवेश में आकर उन्होंने अपनी बेटी को मारा. उनकी 13 साल की बेटी 45 साल के नौकर के साथ आपत्तिजनक अवस्था में पाई गई थी. गर्दन पर चोट के निशान सर्जरी में काम आने वाले चाकू के हैं और बहुत नफासत से गला रेता गया है. राजेश तलवार ने अपनी बेटी और नौकर के सिर पर गोल्फ क्लब से वार किया. उस रात घर में और कोई नहीं था. घर में किसी के जबरन घुसने के प्रमाण नहीं मिले हैं. पुलिस आई तो राजेश तलवार छत का दरवाजा नहीं खोलना चाह रहे थे. उन्होंने पोस्टमार्टम रिपोर्ट में गड़बड़ी करवाई है.
समाचार चैनलों पर चीखती हेडलाइनें, नाटकीय रूपांतरण और पुलिस व सीबीआई के हवाले से आई तरह-तरह की खबरों ने अपना काम कर दिया. राजेश और नूपुर तलवार अदालत में दोषी साबित होने से पहले ही लोगों की निगाह में दोषी हो गए.
इस मामले में परिजनों और मित्रों में से कई बताते हैं कि कैसे इस हादसे के बाद दुख के मारे राजेश अपना सिर दीवारों पर पटकते थे और नूपुर फोन पर बात करते हुए पागलों की तरह रोने लगती थीं. उन्हें जानने वाले यह भी बताते हैं कि उन अभागे दिनों में कैसे उनके चारों तरफ रहने वाले लोग ही उनसे जुड़े सारे फैसले कर रहे थे. लेकिन मीडिया की शिकायत थी कि उनका यह रोना और सिर पटकना कैमरों के आगे और बयान देते हुए क्यों नहीं हुआ. वे हमेशा इतने शांत कैसे दिखते हैं?
फिर भी यह सार्वजनिक मुकदमा अप्रासंगिक होता अगर न्यायिक प्रक्रिया पटरी पर चलती रहती. लेकिन इससे पहले कि आप यह जानें कि गाजियाबाद स्थित ट्रायल कोर्ट में क्या हो रहा है, और यह जानें कि तलवार दंपति के खिलाफ या समर्थन में क्या सबूत हैं, कुछ और बातें जानना जरूरी है.
हेमराज की लाश मिलने के बाद थोड़े समय के लिए शक की सुई हेमराज के दोस्तों की तरफ घूमी. कृष्णा, जो राजेश तलवार के क्लीनिक में हेल्पर था. राजकुमार, जो तलवार दंपति के मित्रों डॉ प्रफुल्ल और अनीता दुर्रानी के यहां नौकर था और एक पड़ोसी के घर में काम करने वाला विजय मंडल. इस दौरान तलवार दंपति और इन तीनों लोगों के पॉलीग्राफ, ब्रेन मैपिंग और लाई डिटेक्टर टेस्ट हुए. एक नहीं दो-दो बार.
और सच यह है कि राजेश और नूपुर तलवार, दोनों ही इन जांचों में साफ पाए गए. बाकी तीनों लोग, खासकर कृष्णा और राजकुमार, लाई डिटेक्टर टेस्ट में झूठ बोलते पाए गए. इससे भी अहम यह है कि नार्को टेस्ट से ये संकेत मिले कि अपराध में उनकी भागीदारी थी. इसमें उन्होंने माना कि वे उस रात घर में थे, उन्होंने अपराध कैसे हुआ, यह भी बताया. हत्या किस हथियार से की गई, इसके बारे में भी जानकारी दी और यह भी कि कैसे आरुषि और हेमराज के फोन ठिकाने लगाए गए. इस मामले की जांच कर रही सीबीआई टीम के तत्कालीन मुखिया अरुण कुमार ने 11 जुलाई, 2008 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और मीडिया के साथ इन परीक्षणों की जानकारी साझा की. हालांकि ये परीक्षण अदालत में सबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं हैं, लेकिन उस ओर इशारा तो करते ही हैं जिधर जांच को जाना चाहिए. भारतीय साक्ष्य कानून की धारा 27 के मुताबिक अगर नार्को टेस्ट के आधार पर कोई खोज होती है तो वह कानूनन-सम्मत साक्ष्य है. जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ा, कृष्णा के नार्को टेस्ट से दो बड़ी अहम जानकारियां मिलीं. इनमें से एक तो विस्फोटक थी. लेकिन इनकी चर्चा बाद में.
इसके बावजूद आरुषि मर्डर केस की जांच किसी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सकी. सितंबर, 2009 में जांच अधिकारी अरुण कुमार को इस मामले से हटा दिया गया. अब जिम्मा सीबीआई की एक नई टीम ने संभाला. इसकी कमान एजीएल कौल के हाथ में थी. इस बदलाव के साथ ही मामले ने अचानक एक नया और दुर्भावनापूर्ण मोड़ ले लिया. निष्पक्ष जांच का तरीका यह होना चाहिए था कि शक के दायरे में आए दोनों पक्षों, तलवार दंपति और घरेलू नौकरों, के खिलाफ जांच जारी रखी जाती. नई टीम के आने के बाद जहां एक पक्ष के खिलाफ जांच ठंडे बस्ते में चली गई वहीं तलवार दंपत्ति के खिलाफ इसने तेज रफ्तार अख्तियार कर ली.
इसके बावजूद दिसंबर, 2010 में सीबीआई को मामले में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करनी पड़ी. इसमें उसका कहना था कि तलवार दंपति के खिलाफ सबूतों में कई अहम और पर्याप्त झोल हैं. उसका यह भी कहना था कि उसे आरुषि की हत्या का कोई स्पष्ट उद्देश्य नहीं मिला और यह भी कि घटनाएं जिस क्रम में घटीं उसे वह पूरी तरह से नहीं समझ सकी है.
कोई साधारण आदमी भी सोच सकता है कि पर्याप्त सबूतों और उद्देश्य—जो हत्या के मामले के दो अहम पहलू होते हैं—का अभाव राजेश और नूपुर तलवार को अपनी ही बेटी की हत्या के आरोप से मुक्ति देने के लिए पर्याप्त होता. इसके बावजूद नौकरों को क्लीन चिट देते हुए सीबीआई का कहना था कि उसे शक मुख्य तौर पर तलवार दंपति पर ही है. क्लोजर रिपोर्ट में हेमराज और आरुषि के अनैतिक संबंध की बात भी थी. राजेश और नूपुर तलवार इससे भौचक्के थे. यह उनकी बेटी की स्मृति के खिलाफ शब्दों से की गई हिंसा थी. उन्हें लग रहा था कि दोषी अब कभी पकड़े नहीं जाएंगे. वे इससे भी हैरान थे कि उन पर अपनी बेटी के संभावित हत्यारे जैसा लेबल चिपका दिया गया था. उन्होंने क्लोजर रिपोर्ट का विरोध करते हुए इस मामले की जांच फिर से करने की मांग की. जिसने अपराध किया हो, वह स्वाभाविक रूप से ऐसा नहीं करता. लेकिन हैरानी की बात है कि जिला मजिस्ट्रेट प्रीति सिंह ने उनकी याचिका खारिज करते हुए आदेश दिया कि सीबीआई द्वारा दाखिल की गई क्लोजर रिपोर्ट के आधार पर ही सुनवाई शुरू की जाए. वही रिपोर्ट जो कहती थी कि तलवार दंपति के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं मिल पाए. अब तलवार दंपति संदिग्ध से मुख्य आरोपित बन गए. दूसरे संदिग्ध मामले के दायरे से ही बाहर हो गए. सीबीआई अदालत में क्या हो रहा है यह जानने से पहले जरा इस तथ्य पर गौर करें और फिर खुद फैसला करें कि क्या यह सुनवाई निष्पक्ष तरीके से हो रही है.
अब तक सीबीआई 39 गवाह पेश कर चुकी है. उनमें से कुछ तलवार दंपति के हिसाब से बेहद लचर और गलत थे, इसलिए वे चाहते थे कि अभियोजन पक्ष 14 अन्य गवाह भी पेश करे जिनसे वे भी सवाल-जवाब (क्रॉस इग्जामिन) कर सकें और घटना का सही सिलसिला स्थापित करने के अलावा सीबीआई की दूसरी टीम की दुर्भावना भी साबित कर सकें. इन 14 संभावित गवाहों में से अधिकतर गवाह सीबीआई की पहली टीम में शामिल अरुण कुमार जैसे अहम अधिकारी थे. नोएडा पुलिस के भी कुछ अधिकारी. अदालत ने इसकी इजाजत नहीं दी. तलवार दंपति इलाहाबाद उच्च न्यायालय गया. वहां भी उन्हें यह इजाजत नहीं मिली. इसके बाद वे सर्वोच्च न्यायालय गए. यहां भी नतीजा वही रहा.
इसके बाद तलवार दंपति ने अपने यानी बचाव पक्ष के 13 गवाहों को पेश करने की इजाजत मांगी. उन्होंने यह भी अनुरोध किया कि इस मामले से जुड़े अहम दस्तावेजों तक उनकी भी पहुंच हो. इनमें उनके और घरेलू नौकरों के नार्को टेस्ट, कॉल रिकॉर्ड, पोस्टमॉर्टम रिपोर्टें आदि शामिल थे जिनकी वे भी पड़ताल कर सकें. इसके खिलाफ दलील देते हुए अभियोजन पक्ष के वकील आरके सैनी ने कहा कि उन्हें किसी भी गवाह को पेश करने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए. सैनी का कहना था तलवार दंपति सिर्फ अदालत का वक्त बर्बाद करने की कोशिश कर रहे है.
इस तरह दो व्यक्तियों को – जिनका गुस्से में पागल होकर किसी तरह का अपराध करने का कोई इतिहास नहीं है -अपनी इकलौती संतान की गुस्से में बर्बर हत्या का आरोपि बना दिया गया. उनके खिलाफ कोई मजबूत साक्ष्य नहीं है. फिर भी अभियोजन पक्ष को 39 गवाह बुलाने की इजाजत मिलती है. तलवार दंपति को एक भी गवाह बुलाने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए.
क्या यह सुनवाई निष्पक्ष लगती है? ये वही आरके सैनी हैं जिन्होंने जुलाई, 2008 में यह दलील देते हुए राजेश तलवार को जमानत पर छोड़ने की गुजारिश की थी कि अपराध में उनकी भूमिका की पूरी तरह जांच कर ली गई है और उनके टेस्ट में कुछ भी असामान्य नहीं पाया गया है. यह भी कि अपराध स्थल पर जो भी संकेत मिले हैं वे उनकी तरफ इशारा नहीं करते और न्याय के हित में उन्हें हिरासत में रखना जरूरी नहीं है.
पिछले महीने इस स्टोरी के लिखे जाने के वक्त अदालत का एक फैसला आया था जिसमें तलवार दंपति को मामले से संबंधित और कागजात देने से मना किया गया था और 13 के बजाय केवल सात लोगों को गवाह बनाने की इजाजत दी गई थी. इनमें परिवार के सदस्य और मित्र थे, केस से जुड़ा कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं. तलवार दंपति कितने भयानक पूर्वाग्रह का सामना कर रहा है यह जानना तब तक संभव नहीं जब तक आप इस मामले के विस्तार में न जाएं. प्राकृतिक न्याय का बुनियादी तकाजा होता है कि आरोपित को ठीक से अपना बचाव करने की इजाजत मिलनी चाहिए. लेकिन यहां वह तक नहीं हो रहा. और यह तो इस पूर्वाग्रह का एक छोटा-सा हिस्सा भर है.
इस सबके केंद्र में एक सवाल है जिसका जवाब देने में सबको मुश्किल हो रही है. आखिर क्यों सीबीआई तलवार दंपति को फंसाने में एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है? न तो उन्हें और न ही दूसरे पक्ष यानी घरेलू नौकरों को ‘बड़े लोग’ कहा जा सकता है. तो ऐसा क्यों है कि एक के पीछे वह हाथ धोकर पड़ी है जबकि दूसरे की तरफ देख तक नहीं रही. आखिर न्याय की तलाश में वह निष्पक्ष दिखने वाले रास्ते पर क्यों नहीं बढ़ रही?
इसके जवाब में बस कुछ अनुमान ही लगाए जा सकते हैं. अभी तक जो कुछ भी हुआ है उससे दो चीजें साफ होती हैं. पहली तो यह कि पुलिस और सीबीआई दोनों की ही जांच शुरुआत से ही भयावह रूप से घटिया रही है. दूसरा यह कि ऐसा लगता है जैसे सीबीआई की दूसरी टीम के मुखिया एजीएल कौल तलवार दंपति के खिलाफ लगने वाले आरोपों पर बहुत गहराई और उत्साह से यकीन कर चुके हैं. यही मानकर यह बात समझी जा सकती है कि क्यों उनकी क्लोजर रिपोर्ट खामियों से भरी पड़ी है.
और मजिस्ट्रेट प्रीति सिंह ने जब इसी रिपोर्ट के आधार पर सुनवाई का आदेश दिया तो चीजें और भी जटिल हो गईं. इस सुनवाई में नियमित रूप से जाने वाले और मुंबई मिरर से जुड़े पत्रकार अविरुक सेन कहते हैं, ‘सीबीआई नहीं चाहती थी कि मामला सुनवाई तक जाए. लेकिन जब इसी रिपोर्ट के आधार पर सुनवाई का आदेश हो गया तो उन पर उसी तरह के सबूत जुटाने का दबाव बढ़ गया. अब कोर्ट में हर सुनवाई के बाद उन्हें अपनी ही कहानी में और गहरे जाना पड़ रहा है.’
[box]कृष्णा के कमरे से बरामद इस कवर पर हेमराज का खून होने का एक ही मतलब था और वह यह कि कृष्णा उस रात हेमराज के कमरे में मौजूद था[/box]
जावेद अहमद सीबीआई में संयुक्त निदेशक हैं और कौल व उनकी टीम अहमद के तहत ही अपना काम कर रही है. जब हम उनसे पूछते हैं कि आखिर तलवार दंपति द्वारा अपने बचाव के लिए गवाह पेश करने का सीबीआई क्यों विरोध कर रही है तो वे कहते हैं, ‘ऐसा हम अपने अधिकारों के तहत ही कर रहे हैं. इसमें कुछ भी गैरकानूनी नहीं है.’
वे आगे कहते हैं, ‘यह आरोप गलत है कि हम उनके खिलाफ जान बूझकर निष्पक्षता से हट रहे हैं. वे जितने चाहें उतने गवाहों को बुलाने की इजाजत मांग सकते हैं. हम इस पर अपना एतराज जता सकते हैं. इसके बाद तो फैसला कोर्ट को करना है. हमारा फर्ज यह है कि सुनवाई तेजी से हो और कोई भी इसे लंबा खींचने की कोशिश न करे.’ इसके बाद अहमद हैरानी में डालने वाली एक बात कहते हैं, ‘अगर तलवार दंपति ने अपने बचाव में 2,432 गवाह पेश करने की इजाजत मांगी होती तो आप क्या कहतीं?’ हम उन्हें याद दिलाते हैं कि उन्होंने दो हजार नहीं 13 गवाह पेश करने की इजाजत मांगी थी. उनका जवाब आता है, ‘मैं तो बस उदाहरण दे रहा था.’
हम सीबीआई के संयुक्त निदेशक से पूछते हैं कि क्या यह अजीब नहीं कि सीबीआई अपनी आखिरी रिपोर्ट में यह कहे कि उसके पास किसी के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं, फिर सुझाव दे कि केस बंद कर दिया जाना चाहिए और फिर उसे उसी रिपोर्ट के आधार पर किसी के खिलाफ मुकदमा लड़ना पड़ेे.
अहमद कहते हैं, ‘आपकी बात बिल्कुल सही है. यह तो रिकॉर्ड में है कि हमारे पास पूरे सबूत नहीं थे. लेकिन जब एक बार जज ने सुनवाई का आदेश दे दिया तो इस फैसले का विरोध करने वाला मैं कौन होता हूं? इसके बाद तो हमारा कर्तव्य है कि हम अदालत की मदद करें और हमें जिस तरह से भी हो सके अपना काम करना होता है.’
दुर्भाग्य से, आगे हम देखेंगे कि ‘अदालत की इस मदद’ में सबूतों के साथ छेड़छाड़ और फर्जी सबूत गढ़ना भी शामिल है.
जज का विरोध करने वाला मैं कौन होता हूं, सुनकर भी निराशा होती है. आप खुद को देश की शीर्ष जांच एजेंसी बताते हैं और आप जानते हैं कि आपके पास सबूत नहीं हैं. न्याय के हित में क्या यह ठीक नहीं होता कि आप कम से कम जज से क्लोजर रिपोर्ट के आधार पर सुनवाई के बजाय आगे और जांच की मांग करते?
अब राजेश और नूपुर तलवार की स्थिति देखिए. वे एक ऐसे मामले में अकेले आरोपित हैं जिसमें उनके खिलाफ कोई वास्तविक सबूत नहीं है. इसके बावजूद जब वे यह अपील करते हुए उच्च और सर्वोच्च न्यायालय गए कि इस मामले की गहराई से पड़ताल हो जो किसी बाहरी व्यक्ति की संभावित भूमिका का पता लगा सके और साथ ही टच डीएनए (जिसमें उनका खुद का दोष भी साबित हो सकता है) जैसी आधुनिक फॉरेंसिक जांचों का आदेश दिया जाए तो दोनों ही जगह उनकी याचिका ठुकरा दी गई. सर्वोच्च न्यायालय ने तो उनकी इस कोशिश को अपने बचने की आखिरी कोशिश करार दिया और नूपुर तलवार से कहा कि अगर वे ट्रायल कोर्ट के हर आदेश से असहमति जताते हुए शीर्ष अदालत आएंगी तो उन्हें इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी.
कानून कहता है कि जब तक दोष साबित नहीं होता, तब तक व्यक्ति निर्दोष माना जाए. इस मामले में तो तलवार दंपति के लिए ऊंची अदालतों में जाने का संवैधानिक अधिकार तक खत्म कर दिया गया है. जावेद अहमद और आरके सैनी इस मामले से सीधे जुड़े सवालों का जवाब देने से इनकार करते हैं. अहमद कहते हैं, ‘आप मेरी स्थिति समझेंगी.’ आरुषि-हेमराज की हत्या के इस मामले की पड़ताल दो दिशाओं की तरफ जाती है. एक, यह माना जाए कि इसके तार हेमराज के दोस्तों और घरेलू नौकरों से जुड़ते हैं. दूसरा, यह माना जाए कि इसमें राजेश और नूपुर तलवार की भूमिका थी. अब एक-एक कर इस मामले की पड़ताल की दोनों दिशाओं और सीबीआई ने इनमें क्या किया और क्या नहीं, के बारे में जानने की कोशिश करते हैं.
हेमराज की लाश मिलने के बाद तलवार दंपति स्वाभाविक रूप से शक के घेरे में आ गया क्योंकि घर में जबरन घुसने का कोई संकेत नहीं था. तो धारणा यह बनी कि घर में चार लोग थे. दो की हत्या हो गई. बाहर से कोई आया नहीं तो जो दो लोग बचे उन्हें यह साबित करना होगा कि वे बेकसूर हैं.
लेकिन अगर उस रात घर में इन चार के अलावा भी कुछ लोग रहे हों जिन्हें घर में जबरन घुसने की जरूरत नहीं थी तो? सीबीआई अधिकारी अरुण कुमार की प्रेस कॉन्फ्रेंस के मुताबिक कृष्णा, राजकुमार और विजय मंडल ने नार्को टेस्ट में और सीबीआई के सामने पूछताछ में माना था कि उस रात हेमराज ने उन्हें बुलाया था और वे देर रात उसके कमरे में इकट्ठा हुए थे. कृष्णा (जिसकी हाल ही में तलवार दंपति से तकरार हुई थी) पहले आया और उसने शराब पी. उसके बाद राजकुमार और विजय मंडल आए और सबने शराब का सेवन किया. इसके बाद आरुषि की चर्चा हुई. ये लोग उसके कमरे में घुसे. आरुषि ने चिल्लाने की कोशिश की लेकिन उसका मुंह बंद कर दिया गया और उसके सिर पर किसी कठोर चीज से वार किया गया. इसके बाद उसके साथ गलत हरकत करने की कोशिश की गई जिसके चलते इन सबमें झगड़ा हुआ. झगड़े के बाद ये लोग छत पर गए और काफी संघर्ष के बाद हेमराज की हत्या कर दी गई. इसके बाद उन्होंने छत पर ताला लगाया, आरुषि के कमरे में वापस आए (शायद यह देखने के लिए कि वह जिंदा तो नहीं) और भाग गए.
नार्को टेस्ट और पुलिस को दिए गए बयान भले ही कानूनी रूप से सबूत न माने जाएं लेकिन इसका समर्थन करते दूसरे सबूत हैं जो तहकीकात की एक तार्किक दिशा बनाते हैं. जैसे हेमराज के कमरे में तीन बोतलें पाई गई थीं. एक स्प्राइट, दूसरी किंगफिशर बीयर और तीसरी सुला वाइन की. हेमराज खुद शराब नहीं पीता था. यह साफ तौर पर संकेत है कि उस रात उसके कमरे में दो या इससे ज्यादा लोग मौजूद थे. घर की चाबियां उसके पास रहती थीं और उसका खुद का कमरा घर में खुलता था. तो घर में बेरोक-टोक प्रवेश पूरी तरह से संभव था.
इन लोगों द्वारा बताया गया घटनाओं का क्रम आरुषि और हेमराज की शुरुआती पोस्टमॉर्टम रिपोर्टों से भी मेल खाता था. रिपोर्टों के मुताबिक शायद आरुषि और हेमराज दोनों ही सिर पर हुए पहले वार से खत्म हो गए थे. उनका गला बाद में रेता गया. वैज्ञानिकों और दिल्ली स्थित एम्स के डॉक्टरों से बनी सात सदस्यीय समिति जिसने अपराध स्थल का विश्लेषण किया था, उसका भी यह निष्कर्ष था कि आरुषि को उसके बेड पर ही मारा गया जबकि हेमराज की हत्या छत पर की गई.
इसके अलावा कृष्णा की स्वीकारोक्ति और नार्को टेस्ट के बाद उसके कमरे से एक खुखरी बरामद की गई. उस पर खून के बारीक धब्बे जैसे कुछ निशान भी थे. 31 अगस्त, 2008 को पोस्टमॉर्टम करने वाले डॉक्टरों ने कहा कि निश्चित रूप से यह वह हथियार हो सकता है जिससे हमला करके घातक चोट पहुंचाई गई. उनके मुताबिक यह भी संभव था कि गर्दन पर मिले घाव भी खुखरी की धार से हुए हों और यह भी हो सकता है कि ऐसा किसी और ज्यादा धारदार हथियार से किया गया हो. एम्स की समिति ने भी इस बात का समर्थन किया. सीबीआई सूत्र बताते हैं कि राजकुमार ने एक दूसरी खुखरी का भी जिक्र किया था जो उसने नोएडा के एक मॉल के पास फेंक दी थी. हालांकि इस दिशा में कभी आगे नहीं बढ़ा गया.
नार्को टेस्ट के दौरान तीनों ने यह भी बताया कि उस समय हेमराज के कमरे में मौजूद टीवी सेट पर चल रहे नेपाली भाषा के चैनल पर कौन-से गाने चल रहे थे. सीबीआई ने यह चैनल चलाने वालीं पत्रकार और निर्माता नलिनी सिंह सहित अन्य स्रोतों से इसकी पुष्टि के लिए पूछताछ की और पाया कि चैनल पर उस समय वही गाने चल रहे थे.
हालांकि सबसे अहम सबूत तो वह तकिया था जो 14 जून, 2008 को कृष्णा के कमरे से बरामद किया गया. बैंगनी रंग के इस तकिये पर खून जैसे कुछ धब्बे थे. इस अहम सबूत के साथ जो हुआ वह न सिर्फ डरावना है बल्कि इस मामले की सुनवाई का एक और स्याह पहलू भी है. यह हमारी जांच और फॉरेंसिक संस्थाओं की कुव्यवस्था तो दिखाता ही है, साथ यह भी बताता है कि वे किसी को फंसाने या अपनी गर्दन बचाने के लिए किस हद तक जा सकती हैं.
[box]सामान्य स्थिति में इस रिपोर्ट से हंगामा मच जाना चाहिए था. यह इस केस के रहस्य पर से पर्दा उठाती दिखती थी[/box]
लेकिन पहले यह जानते हैं कि खुखरी के साथ क्या हुआ. 17 जून, 2008 को दिल्ली स्थित सेंट्रल फॉरेंसिक साइंस लैबोरेट्री (सीएफएसएल) में सेरोलॉजिस्ट एसके सिंघला ने कहा कि वे खुखरी पर मानव रक्त की पहचान करने में असमर्थ रहे हैं. इसके बाद यह हथियार सीएफएसएल में डीएनए विशेषज्ञ बीके महापात्र के पास भेजा गया. महापात्र ने कहा कि वे इससे किसी भी डीएनए तक नहीं पहुंच सके. प्राथमिक रूप से इसी खुखरी को कत्ल का हथियार माना जा रहा था. इसके बावजूद सीबीआई ने इस सबूत को और भी पड़ताल के लिए हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर डीएनए फिंगरप्रिंटिंग ऐंड डायग्नोस्टिक्स (सीडीएफडी) नहीं भेजा. सुनवाई के दौरान जब तलवार के वकील ने सिंघला से खुखरी पर मौजूद खून के निशानों पर सवाल किए तो सिंघला ने फिर कहा कि यह इंसान का खून नहीं था. जब उनसे और सवाल किए गए तो उन्होंने कहा कि यह मुर्गे, कुत्ते, गाय या भैंस का भी खून नहीं था. वे खून के धब्बों का कोई और संभावित स्रोत भी नहीं बता पाए और खुखरी की कहानी तब से वहीं पर अटकी पड़ी है.
अब यह जानते हैं कि बैंगनी रंग के उस तकिये के कवर का क्या हुआ. यह बेहद डरावना है. कृष्णा के कमरे से बरामद यह कवर सीडीएफडी, हैदराबाद भेजा गया. छह नवंबर, 2008 को वहां से जो रिपोर्ट आई उसमें एक विस्फोटक जानकारी थी. इस पर लगा खून हेमराज के खून से मेल खाता था.
सामान्य स्थिति में इस रिपोर्ट से हंगामा मच जाना चाहिए था. यह इस केस के रहस्य पर से पर्दा उठाती दिखती थी. तार्किक रूप से देखें तो कृष्णा के कमरे से बरामद इस कवर पर हेमराज का खून होने का एक ही मतलब था और वह यह था कि कृष्णा उस रात हेमराज के कमरे में मौजूद था. इसे खुखरी की बरामदगी, नार्को टेस्ट की स्वीकारोक्तियों, हेमराज के कमरे में मिली शराब की बोतलों के साथ जोड़कर देखें तो निश्चित रूप से मामला कुछ आकार लेता सा लगता है.
लेकिन सावधानी को हैरतअंगेज रूप से ताक पर रखते हुए करीब ढाई साल तक सीबीआई की इस रिपोर्ट पर नजर नहीं गई. तब भी जब इस केस का जिम्मा अरुण कुमार वाली टीम के पास था. हैरानी की बात यह भी है कि जब सुनवाई के दौरान सितंबर, 2008 से लेकर मार्च, 2009 तक जांच अधिकारी रहे एमएस फर्त्याल से इस बारे में सवाल किया गया तो उनका कहना था, ‘मैंने यह रिपोर्ट नहीं देखी क्योंकि मैं जांच में व्यस्त था.’
इस जानकारी के साथ कि कृष्णा के तकिये का अब तक पता नहीं चला है, दिसंबर, 2010 में सीबीआई ने अपनी क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की. इस तरह उसने कृष्णा और अन्य को दोषमुक्ति दे दी. उसकी यह चूक तो बुरी थी ही, लेकिन जब उसे इस अहम सबूत के बारे में पता भी चला तो भी उसकी जो प्रतिक्रिया थी उसे सुनकर कोई भी सिहर जाए.
लेकिन उससे पहले क्लोजर रिपोर्ट अपनी कहानी कहती है. एजीएल कौल के नेतृत्व में सीबीआई ने अपनी क्लोजर रिपोर्ट में कई कारणों का जिक्र किया जिनके चलते कृष्णा आदि को इस मामले का संदिग्ध नहीं माना जा सकता. कृष्णा और अन्य को भी दोषी साबित न होने तक निर्दोष कहलाने का अधिकार है. लेकिन अक्सर गंभीर तर्कों के खिलाफ तलवार दंपति के पीछे पड़ जाने वाली सीबीआई क्लोजर रिपोर्ट में कृष्णा और अन्य की दोषमुक्ति कितनी आसानी से मनवाना चाहती है, यह देखना दिलचस्प हैः
सीबीआई की दलील– नौकरों के नार्को टेस्ट अविश्वसनीय थे
जवाबी दलील– रिपोर्ट बता ही चुकी है कि क्यों उन्हें भी उतना ही विश्वसनीय माना जा सकता था.
सीबीआई की दलील– कृष्णा और राजकुमार की नार्को रिपोर्ट में जिक्र किया गया था कि आरुषि का मोबाइल नेपाल भेजा गया था जबकि हेमराज का फोन तोड़ दिया गया था. लेकिन ये बातें सही नहीं पाई गईं क्योंकि आरुषि का मोबाइल नोएडा से बरामद हुआ जबकि हेमराज का फोन पंजाब में सक्रिय था.
जवाबी दलील– यह हैरत की बात है कि दो इतने अहम सबूतों की सीबीआई ने पूरी तरह से जांच नहीं की है. क्रॉस एग्जामिनेशन के दौरान अभियोजन पक्ष के एक गवाह और टाटा टेल्कॉम से जुड़े एमएन विजयन का कहना था कि उन्हें याद नहीं कि सीबीआई द्वारा कभी हेमराज का नंबर निगरानी पर लगाया भी गया था. अगर यह सही है तो जांच अधिकारी एजीएल कौल को कैसे पता चला कि यह फोन पंजाब में इस्तेमाल किया जा रहा था? अगर यह सही है भी तो इस बात की जांच क्यों नहीं की गई कि उस फोन को वहां कौन इस्तेमाल कर रहा है?
यही बात आरुषि के फोन के बारे में कही जा सकती है. कुसुम नाम की एक घरेलू नौकरानी का दावा था कि यह फोन उसे फुटपाथ पर पड़ा मिला जिसे उसने अपने एक रिश्तेदार रामभूल को दे दिया. कौल के जांच का जिम्मा संभालने के बाद ही सीबीआई को यह फोन मिला. कौल का दावा है कि फोन के डाटा कार्ड की मेमोरी फॉर्मैट कर दी गई और वे इसका आरोप तलवार दंपति पर लगाते हैं. हालांकि उन्होंने रामभूल को कभी अदालत में पेश नहीं किया. कौल ने यह भी माना कि उन्होंने उस पुलिस अधिकारी से कोई बयान नहीं लिया था जिसने यह फोन उन्हें दिया था. वे यह भी नहीं बता पाए कि अपराध के बाद आरुषि का फोन पहली बार कब और कहां इस्तेमाल हुआ.
अपराध की अगली सुबह कृष्णा को गैराज के कमरे में उसके परिवार के साथ पाया गया, इसलिए वह संदिग्ध नहीं हो सकता. उसके परिवार का कहना है कि वह पूरी रात उनके साथ ही था. न तो उसके पास कोई फोन आया और न ही उस दिन किसी अन्य नौकर ने उससे संपर्क किया.
जवाबी दलील– केवल घर पर होने से ही यह तय नहीं हो जाता है कि वह संदिग्ध नहीं हो सकता. दिल्ली के कुख्यात गैंगरेप मामले में भी कई संदिग्धों को उनके घरों से गिरफ्तार किया गया. परिवार का यह दावा जिसमें कहा गया है कि कृष्णा सारी रात घर पर ही था, उसके बचाव की कोशिश भी हो सकता है. इस बात का कोई सबूत नहीं है कि घटना के दिन उसकी फोन पर किसी से बात नहीं हुई. दरअसल तलवार दंपति ने अपनी हालिया याचिका में यह अनुरोध भी किया है कि उन्हें नौकरों के उस दिन के कॉल रिकॉर्ड मुहैया कराए जाएं.
सीबीआई की दलील– नौकरों में इतना ‘साहस’ नहीं हो सकता है कि वे उस समय घर में घुसें जबकि तलवार दंपति घर पर मौजूद हों.
जवाबी दलील– अजीब बात है. एक तरफ सीबीआई ने अपनी क्लोजर रिपोर्ट में कहा था कि हेमराज ने आरुषि की सहमति से उसके साथ तब यौन संबंध बनाए जबकि ठीक बगल के कमरे में उसके मां-बाप सो रहे थे. दूसरी तरफ वह कह रही है कि नौकरों में इतना साहस नहीं था कि तलवार दंपति की मौजूदगी में वे हेमराज के कमरे में भी एकत्रित हो पाते.
सीबीआई की दलील– राजकुमार प्रफुल्ल दुर्रानी के साथ उनकी पत्नी अनीता को लेने रेलवे स्टेशन गया हुआ था. वे रात तकरीबन 10.30 बजे घर पहुंचे जिसके बाद राजकुमार ने अनीता के लिए खाना पकाया. अनीता ने रात तकरीबन 12 बजे खाना खाया. करीब साढ़े बारह बजे दुर्रानी दंपति सोने चला गया. दुर्रानी के घर से तलवार के घर तक साइकिल से जाने में करीब 20 मिनट लगते हैं. सीबीआई का कहना है कि ऐसे में राजकुमार का घटना के वक्त तक तलवार दंपति के घर पहुंच पाना असंभव है. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक आरुषि की हत्या रात 12 से एक बजे के बीच हुई. डॉ दुर्रानी ने भी अपना घर भीतर से बंद कर दिया था, इसलिए राजकुमार के लिए बाहर निकल पाना आसान नहीं था.
जवाबी दलील– इस दलील में उस शाम घटी हर घटना को घड़ी की सुइयों के सहारे आंका गया है. इस मामले में फोरेंसिक्स की हालत जितनी खस्ता रही है उसके आधार पर यह कल्पना करना गलत नहीं होगा कि आरुषि की हत्या रात एक बजे के कुछ देर बाद भी की गई हो सकती है या फिर दुर्रानी परिवार के आने-खाने और सोने को लेकर सीबीआई ने जिस समय का अनुमान जताया है उसमें कुछ हेरफेर संभव है. राजकुमार के पास घर की चाबी थी, इसलिए वह दुर्रानी दंपति के सोने के बाद घर से बाहर जा सकता था.
जब मजिस्ट्रेट प्रीति सिंह ने जांच का आदेश दिया था तब नूपुर तलवार को अचानक राजेश तलवार के साथ सहअभियुक्त बना दिया गया. फरवरी, 2011 में नूपुर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इस आदेश को चुनौती दी. अभी यह प्रक्रिया चल ही रही थी कि तलवार दंपति को छह नवंबर, 2008 की रिपोर्ट केस की सामग्री के रूप में दी गई. इसमें कृष्णा के तकिये पर हेमराज के खून के निशान मिलने की सनसनीखेज जानकारी थी. इसे पढ़कर नूपुर ने अनुपूरक याचिका दायर करते हुए दलील दी कि यह नया प्रमाण स्पष्ट संकेत करता है कि अपराध में कोई अन्य व्यक्ति शरीक था, ऐसे में मामले की नए सिरे से जांच की जाए.
सीबीआई अगर निष्पक्ष थी तो उसे नए और मजबूत सबूतों का स्वागत करना चाहिए था. इसके बजाय 8 मार्च, 2011 को जांच अधिकारी एजीएल कौल ने उच्च न्यायालय में कहा कि कृष्णा के तकिये के बारे में जो तथ्य दिए गए हैं वे दरअसल हैदराबाद के सीडीएफडी विशेषज्ञ द्वारा की गई ‘टाइपिंग की त्रुटि’ थी. उनके मुताबिक हेमराज के तकिये और कृष्णा के तकिये का ब्योरा आपस में बदल गया था. 18 मार्च को उच्च न्यायालय ने नूपुर की याचिका खारिज कर दी.
कोई भी यदि छह नवंबर की रिपोर्ट पढे़ तो उसे पता चलेगा कि कृष्णा के तकिये के बारे में लिखे विवरण में ‘टाइपिंग की गलती’ की गुंजाइश बिल्कुल नहीं है. तकिये का विवरण इस रिपोर्ट में लगातार कई पृष्ठों में आता है. हर बार इसका जिक्र सबूत संख्या की तरह किया गया है और उसके आगे कोष्ठक में दर्ज है कि यह बैंगनी कवर वाला तकिया है. इस बात पर कोई असहमति नहीं है कि बैंगनी तकिया कृष्णा का है. इसे कौल भी मानते हैं. इसके बाद भी सबसे विचित्र बात है कि कौल के मुताबिक विशेषज्ञ जब यह कह रहे थे कि हेमराज का खून कृष्णा के तकिये के कवर पर पाया गया है तब असल में वे हेमराज के तकिये का जिक्र कर रहे थे.
एक बार के लिए हम यह मान लेते हैं कि कौल की बात सही है. पर एक अनुत्तरित सवाल यह है कि कैसे सिर्फ रिपोर्ट पढ़कर और बिना सीडीएफडी अधिकारियों से बात किए कौल रिपोर्ट में ‘टाइपिंग की गलती’ वाले निष्कर्ष पर पहुंच गए? क्या इसलिए कि रिपोर्ट को सही मानने पर तलवार दंपति को हत्यारा मानने वाली उनकी धारणा गलत साबित हो जाती. सीडीएफडी विशेषज्ञ एसपीआर प्रसाद से जिरह के दौरान मिली जानकारी साफ तौर पर कौल के दुराग्रह को उजागर करती है. प्रसाद के मुताबिक सीडीएफडी को इस बाबत कौल का एक पत्र 17 मार्च को मिला था. यानी उस तारीख के ठीक दस दिन बाद जब वे उच्च न्यायालय में ‘टाइपिंग की गलती’ वाला तर्क दे चुके थे. पत्र की भाषा भी अपने आप में संदेह पैदा करती है. प्रसाद के मुताबिक कौल ने पत्र में लिखा था कि तकिये के विवरण में कुछ गलती प्रतीत होती है इसलिए सीडीएफडी अपने दस्तावेजों में जांच करे कि क्या ऐसी गलती है.
प्रसाद यह भी मानते हैं कि कौल का पत्र मिलने के ढाई साल पहले तक सीडीएफडी में किसी को पता नहीं था कि इस तरह की कोई गलती है. उन्होंने न्यायालय में एक और चौंकाने वाली बात मानी. जब प्रसाद ने सीबीआई को तकियों के कवर दिए थे तो उन पर सीडीएफडी की मोहर थी और वे सीलबंद थे. लेकिन जब वे वापस किए गए तब सील टूटी हुई थी. प्रसाद को नहीं पता कि सील कब व क्यों तोड़ी गई और यह काम किसका था. कौल के पत्र के जवाब में 28 मार्च, 2011 को सीडीएफडी ने सीबीआई को जवाबी पत्र लिखा था. इसमें कहा गया था कि विवरण में टाइपिंग संबंधी गलती की गई है.
पत्र मिलने के बाद कौल ने सर्वोच्च न्यायालय में एक शपथपत्र के साथ तकियों के कवर के ऐसे फोटो जमा किए थे जिन पर इस तरह के लेबल लगे थे जिनसे सीबीआई का पक्ष मजबूत होता था. यहां तलवार दंपति की अपील फिर खारिज हो गई. इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि कौल ट्रायल कोर्ट में लगातार इन तस्वीरों को जमा करने और इन पर जिरह से बचते रहे. यहां तक कि जब बचाव पक्ष के वकील ने उनके सर्वोच्च न्यायालय में तस्वीरों के बारे में जमा किए गए शपथ पत्र की प्रमाणित कॉपी पेश की तो उन्होंने उसे पहचानने तक से इनकार कर दिया. ‘यह मेरा नहीं है’, कौल ने अपने शपथ पत्र से मुकरते हुए कहा, ‘मैं इस विषय पर कुछ नहीं कह सकता.’ इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि ट्रायल जज ने भी इस एफिडेविट का संज्ञान लेने से इनकार कर दिया.
इस दौरान ट्रायल कोर्ट में कौल ने कई बेतुके तर्क दिए. टाइपिंग की गलती के बारे में उनका कहना था कि 2009 में जैसे ही उन्हें इस मामले की जांच का जिम्मा सौंपा गया था, टाइपिंग की गलती वाली बात उनकी पकड़ में आ गई थी. मगर ढाई साल के दौरान उन्होंने इसका जिक्र न तो केस डायरी में किया न ही सीडीएफडी से इस बारे में जानकारी लेने की कोशिश की. उन्होंने अपने साथियों से भी इस बात की चर्चा करना जरूरी नहीं समझा और न ही क्लोजर रिपोर्ट में इसका जिक्र किया. इसकी वजह पूछने पर वे कहते हैं कि उन्होंने सोचा कि जब जरूरत होगी या कभी मामला ट्रायल के लिए आएगा तब वे विशेषज्ञों को इस बारे में बताएंगे.
रिपोर्ट के अगले भाग में: आरुषि मामले में जहां नौकरों की भूमिका की जांच में सीबीआई ने बेहद लापरवाही बरती वहीं तलवार दंपति की भूमिका की जांच और सुनवाई के दौरान वह संतुलन की हर सीमा लांघती नजर आई