ऐसा क्या हुआ कि उत्तराखंड में कांग्रेसी मुख्यमंत्री के लिए एक भाजपाई विधायक ने अपनी सीट छोड़ दी ? मनोज रावत की रिपोर्ट:
उत्तराखंड विधानसभा में दलबदल का इतिहास दोहराया गया. पिछली बार भाजपा के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले चुके भुवन चंद्र खंडूड़ी के लिए कांग्रेस के विधायक और पूर्व मंत्री ले. जनरल टीपीएस रावत ने इस्तीफा दे दिया था ताकि खंडूड़ी उनकी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ सकें. इस बार राज्य के कांग्रेसी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए भाजपा विधायक किरन मंडल ने इस्तीफा दे दिया. नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट द्वारा मंडल के इस्तीफे में लेने-देन के सबूत होने का दावा करने के बाद राज्य में दलबदल की नैतिकता और अनैतिकता पर पिछले एक हफ्ते से चल रही बहस और तीखी हो गई है. 70 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के 32 और भाजपा के 31 विधायक चुनाव जीत कर आए हैं. बहुमत के आंकड़े से चार कम होने के बावजूद कांग्रेस निर्दलीयांे, बसपाइयों और उक्रांद के विधायक की मदद से सरकार बनाने में सफल रही थी. शपथ ग्रहण करने के बाद छह महीने के भीतर मुख्यमंत्री बहुगुणा का विधानसभा सदस्य बनना जरूरी है.
बहुगुणा के लिए सीट कौन छोड़ सकता है, इस बारे में उनके शपथ ग्रहण करने के दिन से ही कयास लगाए जा रहे थे. जानकार बताते हैं कि हाल के विधानसभा चुनाव और उसके बाद के हालात में हुए जातीय और सामाजिक विभाजन को देखा जाए तो पहाड़ की किसी भी सीट पर मुख्यमंत्री को चुनाव लड़वा कर आसानी से उसे जीत में बदलने की सौ फीसदी गारंटी कोई नहीं दे सकता था. सदन में संख्या बल के लिहाज से कांग्रेस इस स्थिति में भी नहीं थी कि वह अपने किसी विधायक को इस्तीफा दिलाकर उस सीट से मुख्यमंत्री को चुनाव लड़वाए. ऐसा करना उसके लिए आत्मघाती मुकाबले में उतरने जैसा होता. किसी कांग्रेसी विधायक के इस्तीफा देते ही विधानसभा के भीतर दोनों दलों के विधानसभा सदस्यों की संख्या बराबर यानी 31 हो जाती. खाली हुई सीट पर हो रहे उपचुनाव में अप्रत्याशित हार की स्थिति में कांग्रेस सबसे बड़े एकल दल की हैसियत तो गंवाती ही, सरकार बनाए रखने का उसका संवैधानिक और नैतिक अधिकार भी चला जाता. इसलिए पार्टी अपने विधायक के बजाय भाजपा के विधायक को इस्तीफा दिलाना चाहती थी.
वैसे भी विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद से ही कांग्रेस के भीतर सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा था. बहुगुणा के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद से ही केंद्रीय राज्य मंत्री हरीश रावत का खेमा लगभग हर मुद्दे पर बगावती तेवर दिखा रहा था. ‘सत्याग्रह’ के बाद भले ही उनके खेमे को राज्य सभा सीट, विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी और चार मंत्री पद मिल गए हों, पर फिर भी हरीश रावत और उनके समर्थकों के मन से मुख्यमंत्री पद हाथ से जाने का मलाल नहीं गया है. धारचूला के विधायक और रावत समर्थक विधायक हरीश धामी विधानसभा के बजट सत्र के पहले दिन सदन में काली पट्टी बांध कर आए. उन्होंने चेतावनी दी कि यदि चार दिन में उनके विधानसभा क्षेत्र की समस्याएं सुलझाई नहीं जातीं तो वे पहले अनशन पर बैठेंगे और फिर विधानसभा से भी इस्तीफा दे देंगे. धामी अपने क्षेत्र धारचूला के 82 गांवों को पिछड़ा क्षेत्र घोषित करने सहित अन्य कई मांगों को लेकर अपनी ही सरकार का विरोध कर रहे हैं.
जानकारों के मुताबिक इन विपरीत परिस्थितियों में बहुगुणा किसी कांग्रेसी विधायक से इस्तीफा दिला कर चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते थे. यों भी पिछले आम चुनाव में मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए खंडूड़ी के चुनाव हार जाने के बाद मुख्यमंत्रियों के हर हाल में चुनाव जीतने का मिथक खत्म हो गया है. बहुगुणा कहां से चुनाव लड़ेंगे, इस सवाल के बीच उछलती कई संभावनाओं के बीच उधमसिंह नगर जिले की सितारगंज विधानसभा सीट का किसी को अंदाजा नहीं था. वैसे भी पिछले विधानसभा चुनाव में सितारगंज से भाजपा के प्रत्याशी किरन मंडल प्रदेश में सबसे अधिक मतों से जीतने वालों में एक थे. विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के उम्मीदवार की पतली हालत के कारण भी इस सीट पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा था.
सदन में संख्या बल के लिहाज से कांग्रेस इस स्थिति में नहीं थी कि वह अपने किसी विधायक से इस्तीफा दिलाकर उस सीट से मुख्यमंत्री को चुनाव लड़वाए
फिर 17 मई को अचानक विधायक किरन मंडल के कांग्रेसियों के संपर्क में होने की अफवाह फैलने लगी. 91 हजार मतदाताओं वाली बहुवर्गीय जनसंख्या वाली सितारगंज विधानसभा सीट पर बंगाली समुदाय का वोट 25 फीसदी से ज्यादा है. मुसलिम मतदाता भी यहां अच्छी संख्या में हैं. जनसंख्या के लिहाज से इस सीट पर ठीक-ठाक संख्या में पंजाबी और पहाड़ी मतदाता भी हैं. बताया जाता है कि इस तरह बहुजातीय, बहुसमुदायी और बहुभाषाई इस सीट पर मुख्यमंत्री के विरुद्घ कोई वाद चलने की गुंजाइश न के बराबर है. मंडल के भाजपा के हाथ से निकलने के पहले ही मुख्यमंत्री एक-दो जगहों पर अपने पूर्वजों के बंगाल से उत्तराखंड आने का रहस्योद्घाटन कर बंगालियों से अपना भावनात्मक नाता जोड़ने की कोशिश कर चुके थे. सूत्रों के अनुसार सभी सर्वेक्षणों और खुफिया सर्वे के बाद पहले ‘ऑपरेशन मंडल तोड़ो’ पर पूर्व मंत्री और उधमसिंह नगर के बड़े कांग्रेसी नेता तिलक राज बेहड़ को लगाया गया था. बेहड़ को सफलता न मिलने पर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और राजस्व मंत्री यशपाल आर्य के समर्थक युवा नेताओं ने मंडल को कांग्रेस के पाले में करने की कमान संभाली और मंडल की भेंट मुख्यमंत्री से करा दी. सितारगंज सहित उधमसिंह नगर के कई हिस्सों में 1950 के बाद बड़ी संख्या में बंगाली शरणार्थी आए थे. इसके छह दशक बाद भी उन्हें भूमिधरी अधिकार नहीं मिल पाए हैं. इस कारण वे अपनी ही जोत-भूमि के स्वाभाविक मालिक होने के बजाय किरायेदार की दोयम हैसियत में हैं. मंडल से मुलाकात के बाद मुख्यमंत्री ने उन्हें आश्वासन दिया कि जल्दी ही भूमिधरी का मामला कैबिनेट के सामने लाया जाएगा. एक सप्ताह बाद ही सरकार ने 23 मई को कैबिनेट निर्णय करवाकर ‘गवर्नमेंट ग्रांट ऐक्ट’ के तहत पट्टे पर मिली भूमि को भूमिधरी में बदलने का निर्णय कर दिया. उसी दिन किरन मंडल ने विधानसभा सदस्य के पद से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री के लिए सीट छोड़ने की घोषणा भी कर दी.
सूत्रों के मुताबिक यह सारा अभियान मुख्यमंत्री बहुगुणा, प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य और उनकी युवा टीम के बीच ही सीमित रहा. दरअसल सितारगंज उत्तराखंड के गठन से पहले यशपाल आर्य का विधानसभा क्षेत्र रहे खटीमा का ही हिस्सा है. यशपाल दो बार खटीमा से विधायक रहे थे. इसलिए उनके सितारगंज और उधम सिंह नगर में सभी लोगों से नजदीकी ताल्लुकात हैं. इन सभी समीकरणों को देखते हुए दबंग नेता बेहड़ के बजाय किरन मंडल ने सहज-सरल स्वभाव के यशपाल आर्य की मध्यस्थता में विधायकी छोड़ना उचित समझा. इस तरह जिन आर्य को कुछ महीने पहले राज्य के सभी बड़े नेताओं ने मुख्यमंत्री पद की दौड़ में सवर्ण बहुल राज्य उत्तराखंड का ‘कमजोर दलित नेता’ बताकर किनारे कर दिया था वही मुख्यमंत्री बहुगुणा के लिए अप्रत्याशित दलबदल करा सकने वाले अध्यक्ष सिद्घ हुए. जानकारों के मुताबिक बहुगुणा ने भी इस दांव से यह साबित कर दिया है कि वे भी पिता हेमवती नंदन की तरह राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं.
दूसरी ओर मंडल के इस्तीफा देने तक भाजपा आत्मसमर्पण की मुद्रा में हाथ पर हाथ धरे बैठी दिखी. दरअसल मंडल के गायब होने तक भाजपा में नेता प्रतिपक्ष का चुनाव तक नहीं हुआ था. पार्टी के तीनों बड़े खेमे और प्रभावशाली विधायक नेता प्रतिपक्ष बनने की होड़ में लगे थे. मुंबई अधिवेशन से वापस आकर भाजपा के नेता विधायक मंडल के इस्तीफे और स्वाभाविक दलबदल और कुछ और विधायकों के टूटने की अफवाह से उपजी निराशा सेे जूझने की कोशिश कर रहे हैं. विधानसभा के भीतर लेन-देन के संगीन आरोप लगा कर भाजपा आक्रामक रुख अपना रही है. इसके जवाब में कांग्रेस के सांसद सतपाल महाराज कहते हैं, ‘ इस परंपरा की नींव तो भाजपा ने 2007 में टीपीएस के दलबदल से डाल दी थी.’ कांग्रेसी मंडल के इस्तीफे को भाजपा द्वारा पूर्व में दी गई ‘टीपीएस लंगड़ी’ का उपयुक्त जवाब बता रहे हैं. हालांकि पहले खामोश दिख रही भाजपा इस मामले में लंबी लड़ाई लड़ने के मूड में दिख रही है. हालांकि इस घटनाक्रम से राज्य के लोग तो चिंतित हैं ही कई कांग्रेसी भी इस पर चिंता जता रहे हैं. पार्टी के बहुत से नेता दबी जुबान में यह आशंका जताते हैं कि इस तरह की परंपराएं राज्य को झारखंड जैसे हालात में झोंक सकती हैं.
प्रश्नोत्तर:भाजपा के मुख्यमंत्री मेरी मांगों पर बहाने बनाते थे’
मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए अपनी विधानसभा सीट छोड़कर उत्तराखंड का राजनीतिक तापमान बढ़ाने वाले किरन मंडल से मनोज रावत की बातचीत:
अपनी विधायकी और राजनीतिक विचारधारा की बलि देने की वजह?
यह निर्णय मैंने सिर्फ बंगाली कौम के लिए नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए किया है. कैबिनेट के इस निर्णय से सभी तरह के पट्टेधारकों को भूमिधरी मिल जाऐगी. तब वे अपनी जमीन के सचमुच मालिक हो जाएंगे.
कई साल तक कार्यकर्ता रहने के बाद विधायक बनने पर आपने भाजपा छोड़ी. ऐसा क्यों?
भाजपा कार्यकर्ता के रूप में भूमिधरी की मांग मैंने भाजपा के सभी मुख्यमंत्रियों के सामने भी रखी थी. चुनाव से पहले वे सब हां कहते थे पर चुनाव खत्म होते ही बहाने बनाने लगते.
लेकिन वहां तो पट्टे किसी और को बिक चुके हैं. ऐसे में कई बवाल नहीं होंगे क्या ?
नहीं, पट्टे बेचने वाले और उस पर काबिज दोनों ही में समझौता और तालमेल हो जाएगा. अभी तो दोनों के ही नाम कानूनन कुछ नहीं है.
अब अफवाहें उड़ रही हैं कि सितारगंज से मुख्यमंत्री के बजाय आपको या किसी और कांग्रेसी को चुनाव लड़ाया जाएगा.
मैंने केवल मुख्यमंत्री के लिए सीट छोड़ी है. मैं कांग्रेस में शामिल हो रहा हूं परंतु मुझे यह लालच नहीं है कि मैं फिर सितारगंज से चुनाव लड़ूं. मेरा मुख्यमंत्री से अनुरोध है, वे सितारगंज से चुनाव लड़ कर उस दूरस्थ और पिछड़े क्षेत्र को चमका दें.
लेकिन सितारगंज में आपके निर्णय का विरोध हो रहा है.
वहां सब खुश हैं. भाजपा के कुछ लोग जो अपना कद बढ़ाना चाहते हैं वे विरोध कर रहे हैं.
हवा उड़ रही है कि आपको विधायकी छोड़ने के लिए मोटा पैसा मिला है.
यह गलत है. अगर ऐसा होता तो हमारी भूमिधरी जैसी कठिन मांग को क्यों पूरा करती सरकार? अपने लोगों की भलाई के लिए मैं फांसी भी चढ़ सकता हूं.