विश्वकला के इतिहास में युद्ध चित्रों की एक लंबी परंपरा है. हजारों साल पहले बने गुफा चित्रों से लेकर पिछली सदी की कला में , हमें युद्ध को विषय बनाकर रचे गए असंख्य चित्र मिलते हैं. पश्चिमी देशों में युद्ध चित्रों की रचना के पीछे स्वदेश प्रेम , शौर्य , बलिदान आदि प्रेरक उद्देश्यों के साथ-साथ शत्रु राष्ट्र के प्रति घृणा भाव को लंबे समय तक जिंदा बनाए रखने का मकसद भी साफ दिखता है. इसलिए ऐसे अधिकांश युद्ध चित्र शासकों द्वारा प्रायोजित कहानी के साथ उस राष्ट्र के गलत-सही इतिहास को कुछ हद तक प्रामाणिकता भी देते हैं. कपोल कल्पित किस्से-कहानियों और धार्मिक कथाओं के साथ जुड़े चित्रों की एक विशिष्ट परंपरा के जरिए ही विशाल अनपढ़ जन समूह को किसी धार्मिक-सामाजिक नियमों के साथ बांधे रखना संभव रहा है. इस सच्चाई से शासक वर्ग सदियों से बखूबी परिचित रहा है, लिहाजा धार्मिक और सामंती विषयों के चित्रों को शासकों ने अपने संरक्षण में न केवल बनवाया बल्कि उनके सामूहिक प्रदर्शन का प्रबंध भी किया. दुनिया भर के संग्रहालयों और धर्मस्थानों की दीवारें इसके सबूत हैं.
हमारे देश में युद्ध चित्रों का कुछ हद तक व्यवस्थित स्वरूप देवों-असुरों, राम-रावण या कौरव-पांडव के युद्धों के चित्रणों में दिखता है. जो बाद में अपने विकास क्रम में धार्मिक कथाओं के नायकों को विस्थापित कर विभिन्न शासकों को चित्रों के केंद्र में स्थापित करते रहे हैं. पर बावजूद इन सबके भारतीय चित्रकला और साहित्य में स्वाभाविक कारणों से युद्धप्रसंगों का उल्लेख पाश्चात्य कला के ऐसे चित्रों की विशाल संख्या की तुलना में बहुत कम मिलता है. हालांकि, पिछली सदी के दो विश्व युद्धों की विभीषिका ने कई चित्रकारों को स्वतःस्फूर्त ढंग से चित्र रचने के लिए प्रेरित किया, पर लगभग हर युद्धरत राष्ट्र की ओर से बड़ी संख्या में कलाकारों को युद्धक्षेत्रों में युद्ध के चित्र बनाने भेजा गया. यहां गौरतलब है कि प्रथम विश्व युद्ध के पहले फोटोग्राफी का आविष्कार हो चुका था और युद्ध-पत्रकारिता में इसका खूब उपयोग भी किया जा रहा था. पर यहां यह मान लेने में जरा भी हिचक नहीं होती कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान बनाए गए युद्ध चित्र अपने प्रभाव में युद्धों के फोटोग्राफों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली थे. दरअसल , ये कैमरे से लिया गया यांत्रिक विवरण मात्र न होकर मनुष्य द्वारा दर्ज की गई मनुष्य के विनाश की गाथाएं थीं जहां असहाय इंसानियत की सिसक को सुना जा सकता था. इसीलिए आज सौ साल बाद भी ये सभी चित्र अपने अंतिम अर्थों में सार्थक युद्ध विरोधी चित्र बनकर हमें अमन का एक संदेश देते है , जो इन चित्रों के बनवाने वालों की मंशा के बिल्कुल विपरीत है.
ऐसा ही एक मार्मिक चित्र है ‘ गैस्ड’!
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान रासायनिक हथियार के रूप में जर्मनी ने एक गैस का प्रयोग किया था जिसे आम भाषा में ‘ मस्टर्ड गैस ‘ कहा जाता था. इस गैस के गोले जब फूटते थे तो गैस एक भारी धुएं की तरह जमीन पर रेंगती हुई फैलने लगती थी. गैस में तेज सरसों की महक के कारण ही इसका नाम मस्टर्ड गैस पड़ा था. यह गैस शरीर के जिस भी हिस्से के संस्पर्श में आती थी, उस हिस्से की कोशिकाओं को नष्ट कर देती. शरीर पर तुरंत फफोले पड़ जाने के साथ-साथ इस गैस का असर आंखों पर पड़ता था और पीड़ित तुरंत अंधा हो जाता था. इस गैस का प्रभाव जल्द ही फेफड़ों तक पहुंचकर ऑक्सीजन तंत्र को नष्ट कर देता था. पीड़ित को खून की उल्टियां आती थीं और वह अंततः एक दर्दनाक मौत मरता था. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस अमानवीय रासायनिक गैस के बारे में सबसे मार्मिक विवरण हमें विख्यात जर्मन साहित्यकार एरिक मारेया रेमार्क (1898 -1970 ) की कृति ‘ऑल क्वायट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट ‘ में मिलता है. जॉन सिंगर सार्जेंट द्वारा बनाए गए चित्र ‘ गैस्ड ‘ को देखकर हम रासायनिक युद्ध शस्त्रों की भयावहता और मौत का इंतजार करते असहाय सैनिकों की स्थिति के बारे में समझ सकते है.
अमेरिकी चित्रकार जॉन सिंगर सार्जेंट (1856-1925 ) अपने समय के जाने-माने चित्रकारों में थे जो धनी और अभिजात परिवारों की महिलाओं के आकर्षक पोर्ट्रेट बनाने के लिए प्रसिद्ध थे. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इंग्लैंड-अमेरिका का एकजुट होकर जर्मनी के खिलाफ लड़ने की ऐतिहासिकता को एक मूर्त रूप देने के उद्देश्य से जॉन सिंगर सार्जेंट को ब्रिटिश वार मेमोरियल कमेटी की ओर से विशेष रूप से नियुक्त किया गया था. 62 वर्षीय जॉन सिंगर सार्जेंट शौकीन मिजाज, आराम पसंद और खासे धनी चित्रकार थे पर उन्होंने इस दायित्व को एक चुनौती के रूप में लिया. उन्होंने इस चित्र को बनाने के लिए 1918 की जुलाई में अरास और येप्रेस के कठिन युद्ध क्षेत्रों का दौरा किया. जॉन सिंगर सार्जेंट को सूचना मंत्रालय की ओर से निर्देश दिया गया था कि चित्र का आकार बड़ा हो जिसमें अंग्रेजों और अमेरिकियों की मैत्री को भव्य महाकाव्य की तरह प्रस्तुत किया जा सके. बिल्कुल भिन्न सामाजिक परिवेश से आए चित्रकार सार्जेंट के लिए यह बिल्कुल एक नया अनुभव था पर वे इतना तो समझ गए थे कि चित्र में महाकाव्य के गुणों को दिखाने के लिए एक बड़े जन समूह को दिखाना आवश्यक होगा. इसी उद्देश्य से वे युद्ध क्षेत्रों के बीच जाकर चित्र के लिए मुकम्मल विषय तलाशते रहे. उन्हें तोपों को ढोते ट्रकों की कतार का दृश्य या फिर युद्ध के दौरान सड़क पर फौजियों और आम लोगों की अफरातफरी जैसे दृश्य उन्हें आकर्षित तो करते रहे पर एक चित्र रचने के लिए प्रेरित नहीं कर सके. संशय के ऐसे दौर में सार्जेंट यकायक उस भयावह हकीकत से रूबरू हुए जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी न की थी. 21 अगस्त, 1918 को अरास और डालिंस प्रांतों से सटी सैनिक छावनी पर जर्मन सेना ने मस्टर्ड गैस के गोलों से हमला किया था. इसकी खबर मिलते ही सार्जेंट घटना स्थल पर जा पहुंचे और उन्होंने वह ‘ खौफनाक दृश्य ‘ देखा जिसके चलते विश्व के युद्ध चित्रों के इतिहास की अन्यतम कृति ‘गैस्ड ‘ की रचना हो सकी.
जॉन सिंगर सार्जेंट की आंखों के सामने सैकड़ों सैनिक मरे पड़े थे, सैकड़ों मर रहे थे और कुछ को उपचार के लिए चिकित्साकर्मियों द्वारा अस्पताल ले जाया जा रहा था. सभी पीड़ित सैनिकों की आंखों पर पट्टियां बंधी थीं वे एक दूसरे के कंधों पर हाथ रख कर एक कतार बना कर चल रहे थे. कला इतिहास के बारे में सुशिक्षित जॉन सिंगर सार्जेंट को निश्चय ही पीटर ब्रुगेल का 1568 में बनाया हुआ ‘अंधों की अगुआई करता अंधा ‘ चित्र याद आया होगा. सार्जेंट अपने स्केच बुक पर सधे हाथों से उन सैनिकों के चित्र बनाने लगे. सार्जेंट के जिन हाथों ने कभी सैकड़ों महिलाओं के खूबसूरत चेहरों और उनके बेशकीमती वस्त्रों को अपने स्केच बुक में उतारा था आज वही हाथ युद्ध के खौफनाक चेहरे को चित्रित कर रहे थे. सार्जेंट के अध्ययन रेखांकनों से एक बात साफ समझ में आती है कि वे इन रेखांकनों में किसी सैनिक के नाक -नक्श के आधार पर उसकी विशिष्टता नहीं दर्ज कर रहे थे (जो पोर्ट्रेट बनाते समय उन्हें अनिवार्य रूप से करना पड़ता था ) बल्कि इन रेखांकनों में दृष्टिहीन, पीड़ित, असहाय सैनिकों की भंगिमा समझने की एक ईमानदार कोशिश कर रहे थे. सार्जेंट की यह कोशिश दरअसल चित्र को यांत्रिकता के परे ले जाकर उसे एक मर्मस्पर्शी ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में रचने के उद्देश्य से प्रेरित रही थी. प्रभाव के स्तर पर ‘गैस्ड ‘ चित्र कला को एक कालजयी ऊंचाई तक ले जाती है.
‘गैस्ड ‘ चित्र अपने आकार में एक अति विशाल कृति है (ऊंचाईं 8.5 फुट और लंबाई 20 फुट). इस चित्र में रंगों के सीमित प्रयोग के बावजूद आकृतियां और उनकी भाव भंगिमाएं स्पष्ट हंै. चित्र का मूल अंश 10 सैनिक और एक चिकित्साकर्मी द्वारा बनी एक कतार है जो चित्र के बाएं से दाहिने ओर बढ़ता दिखता है. जमीन पर घायल और मृत सैनिकों को देखा जा सकता है. यूं तो चित्र में हर सैनिक के दर्द को अलग-अलग कर देखा जा सकता है पर चित्र के इस हिस्से के आठवें सैनिक को उल्टी करते हुए पाते हैं, आंखों पर पट्टी बंधे रहने के कारण इस सैनिक को यह नहीं पता चल पा रहा है कि दरअसल वह खून की उल्टियां कर रहा है. चित्र के तमाम अन्य विवरणों में यह एक अत्यंत करुण वृत्तांत है .
चित्र के दाहिने हिस्से में एक दूसरा दल भी उसी दिशा की ओर एक कतार में बढ़ रहा है. इस चित्र का वक्त दिन के समाप्त हो जाने और रात के उतरने के ठीक पहले का है. गौर से देखने पर दूसरे दल के सैनिकों के चेहरों और कपड़ों पर ढलते दिन की अंतिम किरणों द्वारा एक हाई-लाइट बना है साथ ही इस दल के ठीक पीछे क्षितिज पर पूनम के चांद को निकलते देखा जा सकता है. सार्जेंट ने ,दिन के इस खास वक्त में प्रकाश और रंग का एक अपरिचित अंतर्सम्बंध तैयार किया है जो चित्र को विषयानुरूप बेहद गंभीर बनाता है. इस प्रयास को और अधिक प्रभावशाली बनाने में इस चित्र के आकार की भी अपनी विशिष्ट भूमिका है. चित्र की संरचना में एक अद्भुत संयम दिखाई देता है. जहां चित्र के इतने विशाल आकार के होने के बावजूद पृष्ठभूमि में फैले आकाश को सीमित रख कर सैनिकों की आकृतियों और उनकी अलग-अलग गतिविधियों को ज्यादा महत्व दिया गया है. सार्जेंट ने इस (सतही तौर पर सरल लगने वाले ) जटिल संरचना के माध्यम से दर्शक की दृष्टि को किसी एक सैनिक पर टिकने नहीं दिया है वे हर सैनिक और उसकी दुर्दशा से दर्शक को परिचित करना चाहते हैं.
चित्र की पृष्ठभूमि में फुटबॉल खेलते कुछ खिलाडि़यों की उपस्थिति निश्चय ही चित्र का एक चौंकाने वाला पक्ष है. चित्र में खिलाडि़यों की उपस्थिति के बारे में विभिन्न कला समीक्षकों ने अपने विचार रखे हैं. कइयों ने तो इसे प्रतीक के रूप में भी देखा. वास्तव में चित्र के मूल विषय को आपस में जोड़ते हुए हम परस्पर भिन्न रूपों और गुणों वाले चार तत्वों को पाते हैं. चित्र के बाएं छोर पर कुछ तंबुओं की उपस्थिति, मूल सैनिकों के दल के बीच अस्पष्ट दिख रहे फुटबॉल खिलाडि़यों का दल, सैनिकों के दूसरे दल के पीछे, क्षितिज पर निकलता धुंधला चांद और चित्र के दाहिने छोर से अदृश्य तंबू की तनी रस्सियां ऐसे तत्व हैं जो चित्रकार की मौलिक रचनाशीलता के परिचायक हैं. पूरे चित्र को यदि इन गैरजरूरी या अप्रासंगिक से लगने वाले तत्व से काट कर देखा जाए तो इनकी अहमियत सहज ही समझ में आ सकती है.
जॉन सिंगर सार्जेंट को इतिहास शायद सैकड़ों में महज एक और पोर्ट्रेट चित्रकार के रूप में ही याद रखता पर ‘ गैस्ड ‘ जैसी कालजयी कृति ने सार्जेंट को चित्रकला इतिहास में अमर बना दिया.