प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली एक गैरसरकारी संस्था से जुड़ा होने के चलते मुझे अक्सर ही ग्रामीण इलाकों की यात्राओं पर जाना पड़ता है. मुझे भी नई-नई जगहों पर घूमने का बहुत शौक है. एक यही तो आकर्षण था जिसकी वजह से मैं यह नौकरी करने को तैयार हो गया था. उस दिन भी जब दिल्ली ऑफिस से फोन आया कि कल झारखंड जाना है तो मैं यह भूल गया कि कल ही तो बीस दिन के बाद घर लौटा हूं और शरीर किसी भी यात्रा से इनकार कर रहा है. मैंने झट से हां कर दी और अगले ही दिन झारखंड के लिए निकल पड़ा. यात्रा शुरू करते ही मैं मन ही मन झारखंड की एक तस्वीर अपने मन में बुनने लगा. एक ऐसे राज्य की तस्वीर जहां चहुंओर पसरी गरीबी की वजह से कोई भी इंसान हथियार उठाने पर विवश हो जाए और नक्सली या माओवादी बनने को तैयार हो जाए. ट्रेन की गति के साथ मेरी उत्सुकता में भी इजाफा हो रहा था.
हालांकि रांची स्टेशन पर पहुंचते ही मेरी कल्पनाओं के घोड़े ठहर-से गए. नजारा मेरी कल्पनाओं की तस्वीर से बिल्कुल उलट था. स्टेशन कैंपस में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बड़े-बड़े होर्डिंग्स और स्टेशन के ठीक सामने खड़ा एक भव्य-सा ‘चाणक्य’ होटल- यह दृश्य मेरी तस्वीर को सिरे से नकार रहा था. फिर अगले ही पल मुझे लगा कि मैं राज्य की राजधानी में हूं और यहां से वास्तविक स्थिति नहीं समझी जा सकती. मैं अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा. अगले दिन सुबह मैं जिला रांची के रातू नामक ब्लाक के भोंडा गांव में था.
इस गांव की दशा मेरी कल्पनाओं की तस्वीर वाले झारखंड से काफी मेल खाती थी. मुझे अपने काम के लिए बच्चों के बीच जाना होता है. इस सिलसिले में मेरी मुलाकात नौ साल के एक बालक से हुई. उसका नाम संग्राम था. मैंने उसे गणित के कुछ सवाल हल करने को दिए. उसने उन्हें झट से हल कर दिखाया. कई राज्यों के ग्रामीण इलाकों में घूमने के बाद मेरा अनुभव यह कहता है कि संग्राम जैसे बच्चे आसानी से हर कहीं नहीं मिलते. मैंने उससे पूछा, ‘बेटे, तुम कौन -सी कक्षा में पढ़ते हो?’ उसने जवाब दिया, ‘मैं स्कूल नहीं जाता.’मैं हैरत में पड़ गया. स्कूल क्यों नहीं जाते, और तुम्हें यह सब पढ़ना-लिखना कौन सिखाता है, यह सवाल पूछने पर संग्राम का कहना था, ‘बाबूजी सिखाते हैं, और वही स्कूल नहीं जाने देते.’
‘हजार लोगन में एक का उदाहरण मत दो बाबूजी, 999 का उदाहरण देकर बात करो, तब जानें कि इस शिक्षा प्रणाली में कितना दम है’
मेरी संग्राम के बाबू जी से मिलने की इच्छा प्रबल हो गई थी. मैंने उससे पूछा कि क्या वे घर पर हैं. उसने जवाब दिया, ‘हां, घर पर ही हैं.’ मैंने उससे कहा कि वह मुझे अपने घर ले चले. जल्द ही हम वहां जा पहुंचे. घर के आंगन में ही कोई 35-36 साल का व्यक्ति पेड़ की छांव में खाट पर लेटा आराम कर रहा था. संग्राम ने उनसे जाकर कहा, ‘बाबू जी, ये तुमसे मिलने आए हैं.’ उन सज्जन ने मेरी ओर देखा और फिर खाट बिछाकर मुझे बैठने को कहा. मैंने उन्हें अपना परिचय देने के बाद कहा, ‘आपका बेटा बहुत ही होशियार है और अपनी उम्र के बच्चों के मुकाबले काफी तेज भी है.’ उन्होंने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. फिर मैंने उनसे पूछा कि वे संग्राम को स्कूल क्यों नहीं भेजते. इस पर मुझे जवाब मिला, ‘काहे भेजें स्कूल?’ ‘आप नहीं चाहते कि वो स्कूल जाकर पढ़ना-लिखना सीखे?’, मैंने पूछा. संग्राम के बाबू जी ने जवाब दिया, ‘क्यों? वो पढ़ना-लिखना नहीं जानत है का? आप ही तो अभी कहे हैं कि वह बहुत ही होशियार है?’ इस पर मैंने कहा, ‘हां, लेकिन पढ़-लिख कर डिग्री हासिल करके बड़ा आदमी बन सकता है.’
संग्राम के पिता ने दार्शनिक अंदाज में कहना शुरू किया, ‘किसने आपसे यह कह दिया कि डिग्री से आदमी बड़ा बन जात है? इंसान अपने ज्ञान और कर्मों से बड़ा होत है बाबूजी. हमको ई व्यवस्था और सरकारी शिक्षा में कोई बिश्वास नाहीं. हम भी यह जान रहे हैं कि पढ़ना-लिखना जरूरी है, तभी न संग्राम को हम घर पर पढ़ना सिखा रहे हैं, परन्तु डिग्री की हमको कौनो जरूरत नाहीं है. स्कूल के बच्चों से ज्यादा तो संग्राम आज भी कर सकत है. और डिग्री तो गुलाम बनाए खातिर सरकार दे रही है, कौनो महान बनाए खातिर नहीं.’
‘लेकिन ऐसे कई उदाहरण हैं जो आपके जैसे गांव से ही निकल कर महान बने हैं. उन्होंने भी इसी सरकारी शिक्षा को ही ग्रहण किया और फिर सारे विश्व में अपना नाम.’ मुझे बीच में ही रोक कर वे बोल पड़े, ‘उदाहरण मत दीजिए, बाबूजी. उदाहरण तो हम भी दे सकत हैं. नेताजी (सुभाष चंद्र बोस) ने तो अफसरी की परीक्षा पास करके भी नौकरी को लात मार दी थी, देश की सेवा खातिर. आज उनकी तरह कितने लोग कर सकते हैं? ऐसा-वैसा उदाहरण देकर ही ई लोग इस गंदी व्यवस्था को बनाए हुए हैं और सभी लोग उदाहरण को सुनकर वैसा ही बनने की भेड़ चाल में लग जात हैं. हजार लोगन में किसी एक का उदाहरण मत दो बाबू जी, बाकी का 999 लोगन का उदाहरण देकर बात करो, तब जानंे कि इस व्यवस्था में और आपकी शिक्षा प्रणाली में कितना दम है.’ उस दिन मुझे उस गांव के व्यक्ति की बात से एहसास हुआ कि उसने कितना सच बोला था. एक ऐसा सच जिस पर हम कभी ध्यान नहीं देते. यह बात कितनी सच है कि उदाहरण तो हमेशा अपवादों के ही दिए जाते हैं.