शुरू हो चुका था कोल्हान देश बनाने का खेल 7 बेरोज़गारी ने किया आग में घी का काम
शुरू हो चुका था कोल्हान देश बनाने का खेल 7 बेरोज़गारी ने किया आग में घी का काम
3 जनवरी, 2022 को झारखण्ड के चाईबासा में जो कुछ हुआ, वह राज्य और आज़ाद भारत के दामन पर एक बदनुमा दाग़ है। आज़ादी के 75 साल बाद भी इस तरह की घटना ने न केवल झारखण्ड को, बल्कि पूरे देश को शर्मसार किया है। दरअसल पिछले दिनों झारखण्ड के चाईबासा में कोल्हान को अलग देश बनाने का मुद्दा उठाया गया। मामला इतना बढ़ा कि इसने हिंसक रूप ले लिया। यह सामान्य घटना नहीं थी; क्योंकि एक देश के अन्दर अलग देश बनाने की माँग करना और उसके लिए प्रदर्शन के साथ प्रक्रिया शुरू करने से कई जटिल सवाल खड़े होते हैं। जिस मुद्दे को कई वर्षों से दबा हुआ समझा गया था, वह दोबारा कैसे उठ गया? पुलिस-प्रशासन को जानकारी नहीं थी या इसे गम्भीरता से नहीं लिया गया? देश या राज्य सरकार का गुप्त सूचना तंत्र (इंटेलिजेंसी) को इसकी भनक क्यों नहीं लगी? आन्दोलन की पृष्ठभूमि क्या है? क्यों इस क्षेत्र में कुछ वर्षों के अंतराल पर अलग कोल्हान देश का मुद्दा उठता है? इसका निदान क्या है?
चाईबासा की इस घटना को महज़ क़ानून-व्यवस्था का मामला मानकर उससे निपटने के लिए बल प्रयोग ही काफ़ी नहीं होगा, बल्कि इस पर गम्भीरता से विचार करने की ज़रूरत है। देश में एकता और शान्ति बनाये रखने का रास्ता तलाशने के साथ-साथ अलग देश बनाने की माँग करने वालों को समझने, उन्हें शान्त करने के रास्ते तलाशने की ज़रूरत है। क्योंकि इस बार सैकड़ों युवा जुड़े हुए थे। ये वे युवा हैं, जो बेरोज़गारी का दंश झेल रहे हैं। अलग देश की माँग को रोज़गार से जोड़ा गया। नतीजतन सैकड़ों युवा इस देशविरोधी आन्दोलन में शामिल हो गये।
पहले भी उठी थी माँग
कोल्हान को अलग देश बनाने की माँग नयी नहीं है। इससे पहले भी कई बार विद्रोह हो चुका है। इस क्षेत्र में अलग देश की माँग इससे पहले 30 मार्च, 1980 में की गयी थी। उस दौरान चाईबासा के मंगला हाट में बैठक हुई थी, जिसमें हजारों की संख्या में आदिवासी पहुँचे थे। झारखण्ड के हो (लकड़ा-कोल) आदिवासियों के इस जमावड़े में अलग कोल्हान देश की माँग की गयी थी। इस भीड़ का नेतृत्व कोल्हान रक्षा संघ के नेताओं ने किया था। इन लोगों ने सन् 1837 के विल्किंसन नियम का हवाला देते हुए कहा कि कोल्हान इलाक़े में भारत का कोई अधिकार नहीं बनता है। तब उन्होंने ब्रिटेन की सत्ता के प्रति अपनी आस्था जतायी। चाईबासा तब अविभाजित बिहार राज्य के एक ज़िला ‘पश्चिमी द्वारका’ था। पूर्वी सिंहभूम और पश्चिमी सिंहभूम ज़िले इसके अधीन थे। अब यह इलाक़ा झारखण्ड में है। चाईबासा पश्चिमी सिंहभूम ज़िले का मुख्यालय है। पश्चिमी सिंहभूम के मंझारी निवासी स्व. रामो बिरुवाने ‘कोल्हान गवर्नमेंट एस्टेट’ का ‘खेवटदार (मालिक) नंबर-1’ घोषित कर दिया।
सन् 2018 को खूँटपानी प्रखण्ड के बिंदीबासा में अपना झण्डा फहराने की घोषणा कर दी। उन्होंने ब्रिटेन की महारानी से सन् 1995 में हुए अपने पत्राचार का हवाला देते हुए दावा किया कि वह इस इलाक़े के खेवटदार नंबर-1 अर्थात् प्रशासक (राष्ट्रपति) हैं। लिहाज़ा उन्हें झण्डा फहराने का अधिकार प्राप्त है। इसके बाद चाईबासा पुलिस ने रामो बिरुवा समेत 45 लोगों के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मुक़दमा दर्ज कर लिया।
पुलिस के भारी बंदोबस्त के कारण रामो बिरुवा बिंदीबासा में झण्डा नहीं फहरा सके; लेकिन कुछ लोगों ने उसी दिन जमशेदपुर के पास अपना झण्डा फहरा दिया। इसे लेकर जमशेदपुर के बागबेड़ा थाना में भी राजद्रोह का एक मुक़दमा दर्ज कराया गया था। 83 साल के रामो बिरुवा तबसे फ़रार थे। आख़िरकार चाईबासा के मिशन कम्पाउंड से सन् 2018 को चाईबासा पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया था। गिरफ़्तारी के एक साल बाद उन्हें गम्भीर बीमारी से जूझना पड़ा। जेल प्रशासन की ओर से सदर अस्पताल चाईबासा में उनका इलाज कराया जा रहा था। इलाज के दौरान ही उनकी मौत हो गयी। तबसे आन्दोलन तथा कथित रूप से बन्द हो गया था। चार साल के बाद बीते महीने जनवरी में फिर एक बार कोल्हान अलग देश का आन्दोलन उभरकर सामने आया और चाईबासा के मुफ्फसिल थाना परिसर में देखने को मिला।
हिंसक हुई भीड़
नियंत्रण के लिए बल प्रयोग चाईबासा में और 23 जनवरी, 2022 को कोल्हान को अलग देश घोषित करने की माँग को लेकर जमकर विवाद हुआ। माँग का समर्थन करने वाले आठ युवाओं की गिरफ़्तारी के विरोध में जनाक्रोश भडक़ गया। स्थानीय ग्रामीणों ने पारम्परिक हथियार के साथ ज़िले के मुफ्फसिल थाने को घेर लिया। सुरक्षाबलों पर पत्थरबाज़ी की गयी। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज कराना पड़ा। आँसू गैस के गोले छोड़े गये। घटना में सात पुलिसकर्मी घायल हुए हैं। इस बार आन्दोलन का मुख्य किरदार आनंद चातार है। चातर कोल्हान का ख़ुद को राष्ट्रपति घोषित करने वाले स्व. रामो बिरुआ का सहयोगी है। चातार भी देशद्रोह के मामले में जेल में ही था। अब वह ज़मानत पर बाहर निकला था और एक बार फिर इस तरह की गतिविधियों में शामिल हो गया।
चार महीने से चल रही थीं गतिविधियाँ
इस बार अलग कोल्हान देश की माँग अचानक नहीं उठी है। इसकी पृष्ठभूमि चार महीने पहले से तैयार हो रही थी। लेकिन ख़ुलासा हिंसा भडक़ने के बाद हुआ। क्षेत्र में सितंबर से ही ‘कोल्हान गवर्नमेंट एस्टेट’ के नाम पर हो भाषा के 10,000 शिक्षक और 30,000 सिपाहियों की नियुक्ति की तैयारी चल रही थी। गाँव-गाँव के युवाओं की भर्ती हो रही थी। इलाक़े के लादुराबासा गाँव के स्कूल परिसर और पास के मैदान में रोज़ भीड़ बढ़ रही थी। कई गाँवों में नियुक्ति शिविर लगाये गये थे। गाँवों में स्वास्थ्य परीक्षण (फिटनेस टेस्ट) कर युवाओं को नियुक्ति पत्र बाँटे जा रहे थे।
लादुराबासा गाँव के स्कूल में आवेदन फॉर्म लेने और नियुक्ति पत्र देने के लिए पटल (काउंटर) बने थे। रोज़ सुबह 7:00 बजे से दोपहर 3:30 बजे तक युवाओं की कतारें लगती थीं। नियुक्ति फॉर्म की क़ीमत 50 रुपये रखी गयी थी। लेकिन गाँव-गाँव में बिचौलिये इसे 100 रुपये से 500 रुपये तक में बेच रहे थे। भर्ती के लिए आ रहे युवा भी भ्रम में थे। उन्हें लग रहा था कि झारखण्ड सरकार नियुक्ति कर रही है। इसलिए भीड़ उमड़ रही थी। नियुक्ति पत्र मिलने के छ: महीने बाद नौकरी पर आने (ड्यूटी ज्वाइन) करने को कहा जा रहा था। उन्हें 70,000 रुपये वेतन और ड्यूटी पर मौत होने पर आश्रितों को 50 लाख रुपये देने का झाँसा दिया जा रहा था। यानी सारा मामला रोज़गार से जुड़ा था।
पुलिस अनभिज्ञ, ख़ुफ़िया तंत्र फेल
कोल्हान को अलग देश बनाने की माँग और भर्ती प्रक्रिया की चर्चा पूरे पश्चिमी सिंहभूम ज़िले में थी। पुलिस ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। इतना ही नहीं कोल्हान गवर्नमेंट एस्टेट के उत्तराधिकारी खेवटदार आनंद चातार ने 17 फरवरी, 2021 को ही केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय को पत्र लिखा था। इस पत्र में कहा गया था कि कोल्हान एस्टेट क्षेत्र में विल्किनसन नियम के तहत मुंडा-मान की स्वशासन विधि-व्यवस्था के तहत 9 अगस्त, 2020 से कोल्हान के बेरोज़गारों को रोज़गार देने की शुरुआत की है। इसलिए केंद्रीय मंत्रालय झारखण्ड सरकार को सूचना दे कि वह इस क्षेत्र के बेरोज़गारों को रोज़गार देना बन्द करे। इसकी कॉपी झारखण्ड के राज्यपाल और मुख्यमंत्री को भी भेजी गयी थी। इसके बावजूद पुलिस सोयी रही और केंद्र तथा राज्य का ख़ुफ़िया तंत्र फेल रहा।
विल्किंसन रूल को मानते हैं द्रोही
स्व. रामो बिरुवा या आनंद चातार कोल्हान को अलग देश के लिए विल्किंसन नियम (विल्किंसन रूल) का हवाला देते हैं। इसलिए इस नियम को जानना भी ज़रूरी है। ब्रिटिश शासन-काल में साउथ वेस्ट फ्रंटियर एजेंसी (एसडब्लूएफए) का प्रमुख सर थामस विल्किंसन था। उसने सैन्य हस्तक्षेप कर कोल विद्रोह को दबाया और कोल्हान इलाक़े के 620 गाँवों के मुंडाओं (प्रधानों) को ब्रिटिश सेना के समक्ष आत्म-समर्पण करने को मजबूर कर दिया। तब इन मुंडाओं के नेतृत्व में कोल विद्रोह अपने उफान पर था। सर विल्किंसन ने सन् 1837 में ‘कोल्हान सेपरेट एस्टेट’ की घोषणा कर चाईबासा को उसका मुख्यालय बना दिया। तब लोगों को अपने पक्ष में करने के उद्देश्य से उसने इस इलाक़े में पहले से चली आ रही मुंडा-मानकी स्वशासन की व्यवस्था लागू कर दी। इसे विल्किंसन रूल या विल्किंसन नियम कहा जाता है। इसके तहत सिविल मामलों के निष्पादन का अधिकार मुंडाओं को मिल गया, जबकि आपराधिक मामलों के निष्पादन के लिए मानकी को अधिकृत कर दिया गया।
क्यों प्रभावी है विल्किंसन रूल?
जानकार बताते हैं कि देश के रियासतों के भारत में विलय के वक़्त कोल्हान इलाक़े में कोई रियासत प्रभावी नहीं था। ये इलाक़ा मुगलों के वक़्त से ही पोड़ाहाट के राजा की रियासत थी। लेकिन कोल्हान एस्टेट बनने के बाद सारे अधिकार मुंडाओं के हाथों में आ गये थे। लिहाज़ा पोड़ाहाट के राजा अस्तित्व में ही नहीं थे। इस वजह से कोल्हान इलाक़े के भारतीय संघ में विलय का कोई मज़बूत दस्तावेज़ नहीं बन सका। भारत की आज़ादी के बाद भी यहाँ विल्किंसन नियम प्रभावी बना रहा। इसी को आधार बनाकर गाहे-ब-गाहे कोल्हान में दशकों से कोल्हान गवर्नमेंट एस्टेट की पुन: स्थापना की माँग कई लोग उठाते रहे हैं।
बेरोज़गारी के चलते हुआ विद्रोह!
झारखण्ड के चाईबासा में 23 जनवरी को जो कुछ हुआ, वह केवल एक क़ानून-व्यवस्था से जुड़ी घटना नहीं है। यह एक दीगर बात है कि फ़िलहाल मामला शान्त हो गया है। वह भी तब, जब इलाक़े को छावनी में तब्दील कर दिया गया है। पुलिस का दावा है कि इलाक़े में शान्ति है। पर इसे अलग नज़रिये से देखने की ज़रूरत है। जिससे कोल्हान को अलग देश बनाने की माँग जड़ से ही समाप्त हो जाए। भविष्य में इस तरह की मुद्दे उठे ही नहीं। दरअसल कोल्हान या सिंहभूम के कई इलाक़े आज भी विकास की हवा से कोसों दूर हैं। दरअसल शासन की उनसे दूरी ही इस तरह की ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों का आधार बनती है।
बढ़ती बेरोज़गारी और सरकार द्वारा रोज़गार देने में अक्षमता के कारण ही युवा ऐसे खेल का शिकार हो रहे हैं। अभी तक पुलिस-प्रशासन इस बात को जनता के बीच साफ़ नहीं कर सकी है कि नियुक्ति राज्य सरकार की ओर से नहीं की जा रही थी। चाईबासा में जिस तरह भोले-भाले ग्रामीणों को उकसाया और बरगलाया गया, फिर उनसे पुलिस थाने पर हमला कराया गया; यह साफ़ संकेत देता है कि यह चंद लोगों की एक सुनियोजित साज़िश थी। कोल्हान गवर्नमेंट एस्टेट के नाम से वर्तमान मुहिम के विरुद्ध सरकार को क़ानूनी कार्रवाई पर ज़ोर न देकर लोगों तक सही जानकारी पहुँचाने पर ध्यान देना चाहिए। अक्सर क़ानूनी कार्रवाई में निर्दोष लोग पिसते हैं, जिसके दूरगामी दुष्परिणाम होते हैं।
पुराना ज़िला है सिंहभूम
कोल्हान प्रमण्डल के अंतर्गत तीन ज़िले आते हैं- पश्चिमी सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम और सरायकेला खरसावाँ। सिंहभूम झारखण्ड (पूर्व के समूचे बिहार) का सबसे पुराना ज़िला है। सन् 1837 में कोल्हन पर ब्रिटिश विजय के बाद एक नये ज़िले को सिंहभूम उभर कर आया, जिसका मुख्यालय चाईबासा था। पुराने सिंहभूम से सन् 1990 में विभाजन के बाद पश्चिमी सिंहभूम ज़िला उभरकर आया। इस प्रमण्डल के तीसरे ज़िले सरायकेला खरसावाँ की बात करें, तो यह पश्चिमी सिंहभूम को काटकर बनाया गया है। यह सन् 2001 में अस्तित्व में आया।
अब कोल्हान प्रमण्डल के तहत पूर्व सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम व सरायकेला-खरसावाँ आते हैं। सर थामस विल्किंसन के द्वारा सन् 1837 में बनाये गये कोल्हान सेप्रेट एस्टेट (कोल्हान अलग इलाक़ा) के समय में मुख्यालय बना चाईबासा आज अलग देश की माँग करने वाले द्रोहियों का भी मुख्यालय बनता रहा है। कोल्हान क्षेत्र में पश्चिमी सिंहभूम का भौगोलिक क्षेत्रफल 7224 वर्ग किलोमीटर है। इस क्षेत्र में 1,681 गाँव हैं। यहाँ की आबादी लगभग 1.82 लाख है और यहाँ की साक्षरता दर 58.63 फ़ीसदी है। पूर्वी सिंहभूम का क्षेत्रफल 3533 वर्ग किलोमीटर है। इस क्षेत्र में 1810 गाँव हैं। यहाँ की आबादी 22.91 लाख है और साक्षरता दर 76.13 फ़ीसदी है। वहीं सरायकेला-खरसावाँ का क्षेत्रफल 2724.55 वर्ग किलोमीटर है। इस क्षेत्र में 1148 गाँव हैं। यहाँ की जनसंख्या 10.56 लाख है और साक्षरता दर 67.70 फ़ीसदी है।
सिंहभूम झारखण्ड राज्य का सबसे बड़ा ज़िला है। विश्व की सबसे प्रसिद्ध जंगलों में एक सारंडा जंगल इसी ज़िले के अंतर्गत आता है। यह इलाक़ा खनिज सम्पदा से भरपूर होने के बाद भी काफ़ी पिछड़ा हुआ है। यह क्षेत्र इसलिए भी राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध है; क्योंकि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में झारखण्ड की जनजातियों का अप्रतिम योगदान रहा है। सन् 1857 के प्रथम संग्राम के क़रीब 26 साल पहले ही झारखण्ड की जनजातियों ने अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह किया था। झारखण्ड की सांस्कृतिक पहचान का राजनीतिक अर्थ भी पहली बार सन् 1831 के कोल विद्रोह से उजागर हुआ था। उसमें मुंडा, हो, उरांव, भुइयां आदि जनजातियाँ शामिल हुईं। झारखण्ड के इसी सिंहभूम ज़िले, जो मौज़ूदा में कोल्हान प्रमण्डल (पश्चिमी सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम और सराइकेला-खरसावाँ) का क्षेत्र है; से अलग देश की माँग उठती है। यहाँ तक कि कर (टैक्स) वसूलने, रोज़गार देने और अन्य विकास काम भी अपने स्तर पर किये जाने की बात कही जाती है।
तहलका विचार
कब-कब, कहाँ-कहाँ उठी अलग देश की माँग?
भारत एक एकजुटता वाला अखण्ड राष्ट्र है। इसके इतिहास में विद्रोह, विभाजन का ज़हर घोलने वाले इसके इतिहास से परिचित नहीं हैं। हमारा यह महान् देश वही अखण्ड राष्ट्र है, जिसका विस्तार कभी पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, भूटान, नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश के अलावा एशिया के कई अन्य देशों तक हुआ करता था। आज़ादी के दौरान बँटने के बाद यह दुर्भाग्य ही रहा है कि आज़ाद भारत में भी कई राज्यों के लोगों ने अपने लिए अलग देश की माँग करने की गुस्ताख़ी की है। हालाँकि उनकी अपनी समस्याएँ और केंद्र सरकारों द्वारा उनका समाधान नहीं किया जाना एक अलग समस्या है; लेकिन इसका मतलब यह तो क़तर्इ नहीं है कि किसी भी राज्य अथवा क्षेत्र के लोग अलग देश की ही माँग कर डालें।
भारत से अलग होकर एक अलग देश बनाने की सोच यह दर्शाती है कि लोग बिखराव की राजनीति करने में देशद्रोही वाली भूमिका निभाते हैं। लेकिन ये लोग इस बात को नहीं समझते कि भारत की एकजुटता ही हमारी सबसे बड़ी ताक़त है। आज दुनिया में कोई भी देश इतनी अलग-अलग संस्कृतियों और अलग-अलग भाषाओं, रीति-रिवाज़ों वाला नहीं है। न ही यहाँ की तरह कहीं इतने मौसम और इतनी ऋतुएँ आती-जाती हैं। यहाँ की भूमि में दुनिया भर के हर देश की मिट्टी की ख़ासियत है। कभी सोने की चिडिय़ा और विश्वगुरु कहा जाने वाले हमारे इस महान् देश की बर्बादी का इतिहास अगर देखें, तो इसमें देशद्रोहियों की भी भूमिका रही है। आज भी देश में कई अलगाववादी संगठन मौज़ूद हैं, जिनके लाखों सदस्य हैं। लेकिन यह लोकतांत्र की ताक़त है कि देश अखण्ड है और अखण्ड रहेगा। अलग देश की माँग करने का इतिहास बताता है कि सन् 1980 और सन् 1990 में पंजाब में ख़ालिस्तान बनाने की माँग उठी थी।
उग्रवादी संगठन यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उलफा) असम के मूल निवासियों के लिए एक अलग देश की माँग करता है। भारत सरकार ने सन् 1990 में उलफा पर प्रतिबन्ध लगा दिया था और आधिकारिक तौर पर इसे आतंकवादी समूह घोषित कर लिया था। सन् 1996 में स्थापित मुस्लिम यूनाइटेड लिबरेशन टाइगर्स ऑफ असम (मुलटा) क्षेत्र के मुसलमानों के लिए एक अलग देश की वकालत करता है। पूर्वोत्तर भारत में त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, असम और नागालैंड में भी अलगाववाद और उग्रवाद रहा है, जिससे निपटने के लिए सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्सपा) लगाया हुआ है। इसके अलावा सन् 1989 में एक सशस्त्र विद्रोह के फैलने के बाद से सन् 1990 में इसे भारत के राज्य जम्मू और कश्मीर के अधिकांश हिस्सों में भी लगाया गया।
मार्च, 1999 में गठित यूनाइटेड पीपुल्स डेमोक्रेटिक सॉलिडेरिटी (यूपीडीएस) कार्बी लोगों के लिए एक संप्रभु राष्ट्र की माँग करता रहा है। सन् 1950 के दशक में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ने ऑफ नागालैंड भारत सरकार के ख़िलाफ़ एक हिंसक विद्रोह करके अलग देश की माँग की। नगालिम नागा लोगों के लिए एक प्रस्तावित स्वतंत्र देश है। आज भी नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड के विभिन्न गुटों के तहत काम करने वाले अधिकांश नागा एक अलग देश की माँग करते हैं।
सन् 1915-16 में ग़ाज़ीपुर के गाँव बाघपुर के रहने वाले रामवृक्ष यादव ने अपने एक बड़े गुट के साथ मिलकर अलग देश बनाने की न सिर्फ़ माँग कर दी, बल्कि अपनी पुलिस, अपनी मुद्रा और अपने बैंक भी बना डाले। उसने 11 जनवरी, 2014 को मध्य प्रदेश के सागर ज़िले से सत्याग्रह यात्रा शुरू की और फरवरी, 2014 में मथुरा पहुँचकर अलग देश बनाने पर काम शुरू करते हुए 280 एकड़ के जवाहरबाग़ पर क़ब्ज़ा भी कर लिया था। यह मामला तब खुला, जब 2 जून, 2016 को हिंसा भडक़ गयी। इस हिंसा में बहुत लोग मारे गये। बाद में सरकार ने बड़ी कार्रवाई करते हुए 101 लोगों को जेल भेजा। सवाल यह है कि इस तरह के लोगों को पनपने कौन देता है? किस तरह ऐसे लोगों की जमात देश में खड़ी हो जाती है? इसके पीछे किन ताक़तों का हाथ होता है?