गाँव की बात दिमाग़ में आते ही एक सुकून भरे शान्त, सजह, सादगीपूर्ण वातावरण का आभास उभर जाता है। हरे-भरे खेत, हल जोतते किसान, मवेशियों के गले में टुनटुन करती घंटियाँ, चौपाल पर हुक्के की गुडग़ुड़ाहट के बीच बतियाते बुजुर्गों का दृश्य मानस पटल पर उभर आता है। क्योंकि बचपन से इसी तरह का दृश्य हमने पाया या समझाया गया था। लेकिन हक़ीक़त इससे परे है। कुछ गाँव शहरों के नज़दीक होने के कारण बदल गये हैं और उन्होंने आधुनिकता की चादर ओढ़ ली है। जीवनशैली बदल गयी है, तो कुछ गाँव आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहे हैं। लोग पलायन कर रहे हैं।
यह सही है कि हम सूचनाओं के युग में जी रहे हैं। हर तरफ़ की सूचनाएँ मिनटों में मिल रही हैं। पर गाँव की सही स्थिति देखनी है, तो सूचना देनी वाली तमाम तकनीकों को हटाकर नंगी आँखों से गाँव जाकर देखें। आज़ादी के 75 साल हो गये हैं। देश आज अमृत महोत्सव मना रहा है; लेकिन झारखण्ड के कई ऐसे गाँव हैं, जो आज भी अमृत यानी विकास की बाट जोह रहे हैं। वहाँ के लोगों को अमृत-काल के किसी अमृत के रूप में आधुनिक सुख-सुविधा की दरकार नहीं है; केवल बिजली, पानी, सडक़, स्वास्थ्य, पेंशन, शिक्षा, रोज़गार जैसी बुनियादी सुविधाएँ चाहिए।
सरकारी सुविधाएँ नहीं
झारखण्ड की राजधानी रांची है। इसलिए कम से कम यह तो उम्मीद की ही जा सकती है कि इस ज़िले के सुदूरवर्ती गाँव भी आदर्श गाँव होंगे। हक़ीक़त इससे से परे है। रांची से महज 50 किलोमीटर दूर तमाड़ प्रखण्ड में गाँव गोमिया कोचा और इसी से सटा दूसरा गाँव कुरुचुडीह है। यह तमाड़ प्रखण्ड का पहाड़ी की तलहटी में बसा है। गोमिया कोचा में मुंडा और महतो परिवार के लगभग 250 लोग रहते हैं। इसी तरह कुरुचुडीह में 350 लोग रहते हैं। इन गाँवों की स्थिति देख कर मन द्रवित हो जाता है। यहाँ के लोग समस्याओं के मकडज़ाल में फँसे हैं। गाँव के लोग वृद्धा और विधवा पेंशन से महरूम हैं। स्कूल के नाम पर एक प्राथमिक विद्यालय। हाईस्कूल 20 किलोमीटर दूर और कॉलेज तो बुंडू या रांची आकर ही। पूरे गाँव में केवल एक युवा संजय मुंडा स्नातक हैं। गाँव से आने-जाने का कोई साधन नहीं, केवल सुबह-शाम ऑटो चलता है। वह भी एक तरफ़ का किराया 20 रुपये है, जो ग़रीबों की जेब पर भारी है। अँधेरा होने के बाद अवागमन का वह साधन भी बन्द। सडक़ वर्षों पहले बनी थी, जो इतनी जर्जर हो चुकी है कि होना न होना बराबर ही है। शाम के बाद कोई भी व्यक्ति अपने घर से नहीं निकलता; क्योंकि जंगली हाथियों का डर रहता है। बिजली के खम्भे हैं; लोकिन बिजली भगवान भरोसे। स्वास्थ्य सेवा के नाम पर झोलाछाप डॉक्टर मिल जाते हैं, जो चीर-फाड़ तक करते हैं। राशन कार्ड है; लेकिन राशन लाने के लिए 20 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। सारा दिन बर्बाद करके गये भी, तो डीलर कुछ-न-कुछ नुक्स निकालकर राशन नहीं देता है या कम देता है। जीवनयापन थोड़ी-बहुत खेती पर निर्भर है। वह भी हाथियों ने अगर उपद्रव नहीं मचाया, तो फ़सल मिल जाती है, अन्यथा यह मेहनत भी बेकार।
योजनाओं से अनभिज्ञता
गोमिया कोचा में लोग लगभग 70 साल से रह रहे हैं। खुंटकटी क्षेत्र होने के कारण युगल सिंह मुंडा ने उन्हें सादा पट्टा देकर बसाया था। मुंडा रसीद उन्हें दी गयी। आज भी उन्हें वही रसीद मिलती है। यही प्रमाण है उनके निवासी होने का। इस प्रमाण का सरकारी अधिकारियों की नज़र में कोई मोल नहीं है। उनके पास खतियान नहीं होने के कारण इनके समक्ष समस्याओं का अंबार खड़ा हो गया है। वे सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित हैं। उन्हें यह तक नहीं पता कि केंद्र या राज्य सरकार उनके हित के लिए क्या-क्या योजनाएँ चला रही हैं?
वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, आयुष्मान योजना, कुपोषण से मुक्ति के लिए चल रही कल्याणकारी योजनाओं के नाम तक वह नहीं जानते। गाँव वाले बताते हैं कि कभी न ही कोई जनप्रतिनिधि यहाँ आता है और न ही कभी कोई अधिकारी। इनकी सुध लेने वाले कोई नहीं है। इलाके के लोगों ने आज तक अपने सांसद और विधायक का चेहरा नहीं देखा है।
दूरदराज़ के गाँव और भी बदतर
केंद्र या राज्य की सरकार हो या फिर कोई भी राजनीतिक दल के नेता, सभी गाँव की बात करते हैं। गाँव के विकास की बात कहते हैं। उनकी ज़ुबान पर हर समय रहता है कि गाँव का विकास होगा, तभी शहर विकसित होंगे। हक़ीक़त में ऐसा हो रहा है क्या? झारखण्ड में कुल 32,623 गाँव हैं। जो भारत के कुल गाँव का लगभग 5.42 फीसदी है।
राज्य में सबसे अधिक गाँव दुमका ज़िला और सबसे कम गाँव लोहरदगा में है। शहरों से सटे गाँव को तो फिर भी थोड़ी-बहुत सुविधाएँ मिल रही हैं, विकसित भी हो रहे हैं। लेकिन सुदूरवर्ती गाँव की स्थिति दयनीय है। राज्य में कई ऐसे गाँव हैं, जहाँ तक पहुँचना भी दूभर है। इनकी सुध न ही कभी सरकार लेती है और न ही अधिकारी। केवल चुनाव में मतदान के समय स्थानीय स्तर पर इनका उपयोग कर लिया जाता है।
हर ज़िले में हैं बदहाल गाँव
दुमका ज़िले के जामा प्रखण्ड का एक लकडज़ोरिया गाँव है। इस गाँव के लोग बताते हैं कि बदहाली का आलम यह है कि यहाँ आसपास के गाँव के लोग अपनी लड़कियों की शादी करना नहीं चाहते। क्योंकि गाँव में आने-जाने के लिए सडक़ ही नहीं है। कार तो पहुँच ही नहीं सकता, मोटरसाइकिल से भी आना-जाना दूभर है। इसी तरह खूँटी ज़िले के गोविंदपुर लापुंग गाँव की ओर जाने वाली सडक़ की स्थिति है। गाँव के लोग बताते हैं कि सडक़ 25 साल पहले बनी थी। मौज़ूदा स्थिति में लोग सडक़ की बजाय खेत-खलिहान से निकलना ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। गुमला ज़िले के पहाड़ी की तलहटी में बसा गाँव बहेरापाट और पहाड़ टुडुमरा की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। साहिबगंज का रामपुर-बांसजोरी गाँव हो, या फिर लातेहार जले का कुजरूम गाँव, या फिर जामताड़ा का सियारकेटिया गाँव। हर गाँव की दास्ताँ एक जैसी हैं।
राज्य में सभवत: शायद ही कोई ऐसा ज़िला हो, जिसके अधिनस्थ सभी गाँवों में बुनियादी सुविधाएँ मौज़ूद हों। लोग सडक़, बिजली, पानी, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधा और अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ मुकम्मल तौर पर मिल रहा हो। कुछ गाँव तो ऐसे हैं, जहाँ आज भी लोग पानी जैसी समस्या से जूझ रहा। लोग पहाड़ की तलहटी में स्थित कुआँ से पानी लाते हैं या फिर कोसों दूर नदी-नाले के पानी का उपयोग कर रहे।
स्मार्ट गाँव बनाने की ज़रूरत
सन् 2011 के सेंसेक्स के अनुसार, देश में 6,49,481 गाँव हैं। देश की 65 प्रतिशत आबादी गाँवों में रहती है। भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है। ऐसे में शहरों से ज़्यादा गाँव को प्यार और विकसित करने की ज़रूरत है। भारत में केंद्र सरकार ने स्मार्ट सिटी बनाने की बात की थी। हालाँकि सरकार इस दिशा में अच्छे स्तर पर काम करे, तो स्मार्ट सिटी बनने में भी समय लगेगा। लेकिन देश हित केवल स्मार्ट सिटी से ही नहीं, स्मार्ट गाँवों के बनने से होगा।
स्मार्ट गाँव का मतलब बेतरतीब तरी$के से निर्माण या आधुनिकता से ढकना नहीं, बुनियादी सुविधाएँ और खेती के लिए नयी तकनीक उपलब्ध कराना है। रोज़गार का अवसर देना, जिससे पलायन रुके। हमारा पेट गाँव से आये अनाज, फल, सब्ज़ियों से भरता है। अगर ये उत्पादन बन्द हो जाएँगे, असुविधा के कारण लोग पलायन करने लगेंगे, तो शहरी क्षेत्र में पेट भरना भी मुश्किल हो जाएगा। शहरी क्षेत्र की सारी सुविधाएँ धरी-की-धरी रह जाएँगी। इसलिए गाँवों को विकसित करने के लिए सजगता की ज़रूरत है। हर स्तर पर ठोस प्रयास की ज़रूरत है। लोगों तक सडक़, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार जैसी बुनियादी सुविधा पहुँचाने की ज़रूरत है। तभी हमारी परम्परा भी बची रहेगी। सभ्यता भी बची रहेगी, हम भी बचे रहेंगे।