वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग निकलने को लेकर जो खींचतान मची है, उसने पूरे देश में तर्क-वितर्क के दरवाज़े और खिड़कियाँ खोल दिये हैं। इस मामले में उलझन एक ही है कि ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर में मिला शिवलिंगनुमा पत्थर वास्तव में शिवलिंग है या नहीं? मगर एक उलझन से प्रश्न इतने खड़े हो गये हैं कि अब इनका उत्तर दे पाना वर्तमान में किसी के लिए सम्भव नहीं है। अदालतें भी इन प्रश्नों के उत्तर आसानी से नहीं दे सकेंगी। मगर फिर भी रहना तो अदालतों के सहारे ही होगा। मगर अदालतें तो एक महीने के लिए बन्द हो चुकी हैं, इसलिए अब फ़ैसला जुलाई में ही होगा।
इससे पहले ही जाँच के लिए मस्जिद परिसर को सील कर दिया गया था, जिसके बाद सर्वोच्च अदालत ने अपने एक आदेश में कहा कि मस्जिद में मिले शिवलिंग तथा उस हिस्से को सुरक्षा में लिया जाए और मस्जिद में नमाज़ पढऩे से किसी को न रोका जाए। देखना यह होगा कि अब तक अदालतों ने क्या-क्या कहा और किस तरह के फ़ैसले दिये। क्योंकि स्थानीय अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत तक पहुँचा यह मामला काफ़ी उलझ चुका है। ज्ञानवापी मस्जिद का मामला सबसे पहले स्थानीय अदालत में गया। प्रश्न यह भी है कि यह मामला उठा कैसे? नई दिल्ली की पाँच महिलाओं राखी सिंह, लक्ष्मी देवी, सीता साहू, मंजू व्यास तथा रेखा पाठक ने 18 अगस्त 2021 को सिविल जज (सीनियर डिवीजन) की अदालत में इस मामले में एक याचिका लगायी। इस याचिका में उत्तर प्रदेश सरकार, स्थानीय ज़िलाधिकारी, पुलिस आयुक्त, अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद कमेटी और काशी विश्वनाथ मन्दिर ट्रस्ट को पक्षकार बनाया गया। इन महिलाओं की ओर से दायर याचिका पर बीते 8 अप्रैल, 2022 को अदालत ने अजय कुमार मिश्र को अधिवक्ता आयुक्त नियुक्त किया और ज्ञानवापी परिसर का सर्वेक्षण करके इसकी रिपोर्ट 10 मई तक अदालत में प्रस्तुत करने को कहा। बीती 6 को जाँच शुरू हुई।
7 मई को अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद कमेटी ने अदालत में प्रार्थना पत्र देकर एडवोकेट कमिश्नर बदलने की माँग की। वादी पक्ष ने मस्जिद की बैरिकेडिंग करके उसके अन्दर तहख़ाने समेत अन्य स्थलों का निरीक्षण करने का स्पष्ट आदेश देने की अपील की। दोनों ही अपीलों पर तीन दिन सुनवाई चली। बाद में कड़ी सुरक्षा के बीच जाँच वीडियोग्राफी के साथ हुई और कुएँ में मिले पत्थर को जाँच टीम ने शिवलिंग बताया, जबकि मुस्लिम पक्ष ने इसे फ़व्वारा बताया। इसकी भी जाँच हुई और सवाल उठे कि अगर यह फ़व्वारा है, तो बिना बिजली के चलता कैसे था? सिविल जज सीनियर डिवीजन रवि कुमार दिवाकर की अदालत ने सात पन्नों के आदेश में कहा कि कमीशन कार्यवाही स्थल पर अदालत के पूर्ववर्ती आदेश के तहत सम्बन्धित वादीगण, प्रतिवादी गण, अधिवक्ता आयुक्त, अधिवक्तागण, इनके सहायक तथा कमीशन कार्यवाही में शामिल व्यक्तियों को छोडक़र कोई भी अन्य व्यक्ति वहाँ उपस्थित नहीं होगा।
इधर इससे पहले 14 मई को ही अंजुमन-ए-इंतज़ामिया मस्जिद वाराणसी की प्रबंधन समिति ने सर्वोच्च अदालत में याचिका लगा दी। याचिकाकर्ता के वकील हुजेफ़ा अहमदी ने ज्ञानवापी पर हक़ जताने को प्लेसेज ऑफ वरशिप अधिनियम-1991 के ख़िलाफ़ बताते हुए सर्वोच्च अदालत से तुरन्त सुनवाई की माँग की। इस पर अदालत ने फाइल देखने के बाद ही सुनवाई पर निर्णय देने की बात कही। सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायाधीश सूर्यकांत तथा न्यायाधीश पी.एस. नरसिम्हा की पीठ में हिन्दू पक्ष ने कहा कि उसे हलफ़नामा दाख़िल करने के लिए और समय दिया जाए। अदालत ने मुस्लिम पक्ष से पूछा कि आपको कोई दिक़्क़त है? इस पर मुस्लिम पक्ष के वकील हुज़ैफ़ा अहमदी ने दिक़्क़त होने से मना कर दिया, मगर निचली अदालत में दीवार तोडऩे और वज़ूख़ाने को लेकर सुनवाई का ज़िक्र किया। इसके बाद सर्वोच्च अदालत ने कहा कि हम आदेश जारी कर रहे हैं कि कोई भी कार्रवाही वाराणसी लोअर कोर्ट से न लिया जाए। साथ ही कहा कि शिवलिंग के दावे वाली जगह को सुरक्षित किया जाए। मुस्लिमों को नमाज़ पढऩे से न रोका जाए। सिर्फ़ 20 लोगों के नमाज़ पढऩे वाला ऑर्डर अब लागू नहीं। अब पीठ ने कहा है कि यह मामला जटिल तथा संवेदनशील है, इसीलिए इस मामले की सुनवाई कोई वरिष्ठ व तजुर्बेकार न्यायाधीश करें, तो बेहतर होगा। इससे स्पष्ट है कि अब सुनवाई सर्वोच्च अदालत की बड़ी पीठ करेगी।
इधर सर्वोच्च अदालत ने ज़िला न्यायाधीश से कहा है कि वह पहले मस्जिद कमेटी के उस आवेदन पर फ़ैसला लें, जिसमें हिन्दू पक्ष की याचिका को क़ानून के तहत सुनवाई के लायक नहीं कहा गया है। सर्वोच्च अदालत ने मस्जिद की वीडियोग्राफी और उसकी सर्वे रिपोर्ट लीक होने पर भी संज्ञान लेते हुए कहा कि लोकल कमिश्नर की रिपोर्ट से चुनिंदा चीज़ें लीक करके लोगों को भडक़ाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। केवल ट्रायल कोर्ट के जज ही रिपोर्ट खोल सकते हैं। इधर मामला इलाहाबाद उच्च अदालत में भी जा चुका है, जिस पर अभी इसी महीने सुनवाई होनी है।
पूजा स्थल अधिनियम-1991
देश में बने धार्मिक स्थलों को विवाद मुक्त करने के इरादे से सन् 1991 में तत्कालीन कांग्रेस प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव सरकार एक ऐसा क़ानून लेकर आयी, जिससे किसी एक धर्म के धार्मिक स्थल पर दूसरे धर्म के लोग दावेदारी न कर सकें। इस क़ानून का नाम पूजा स्थल अधिनियम-1991 अर्थात् प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट-1991 है। इस अधिनियम के अनुसार, देश की आज़ादी अर्थात् 15 अगस्त, 1947 से पहले बने किसी भी धर्म के धार्मिक स्थल (मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च, मठ आदि) को किसी दूसरे धर्म के धार्मिक स्थल में नहीं बदला जा सकता। यदि कोई इस क़ानून का उल्लंघन करने का प्रयास करेगा, तो उस पर ज़ुर्माना होने के अलावा तीन साल तक की जेल की सज़ा हो सकती है। अयोध्या के बाबरी मस्जिद बनाम राम मन्दिर विवाद में भी इस क़ानून का हवाला दिया गया और अब ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग मिलने के दावे के मामले में भी इस क़ानून का हवाला दिया जा रहा है।
मुस्लिम पक्ष का कहना है कि अगर ज्ञानवापी मस्जिद को तोडऩे या उसे बन्द कराने की अनुमति दी गयी, तो फिर पूजा स्थल अधिनियम-1991 का कोई मतलब नहीं रह जाएगा, क्योंकि वाराणसी में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद 500 साल से वहाँ है। इस पर सर्वोच्च अदालत ने कहा कि फिर तो इस मामले में मुश्किल होगी। मगर अदालत ने इसी क़ानून के अनुच्छेद-3 की चर्चा करते हुए कहा कि सर्वे के आदेश में ख़ामी नहीं थी, साथ ही यह क़ानून इस बात से नहीं रोकता कि किसी धर्मस्थल के चरित्र का पता न लगाया जाए। वर्तमान में ज्ञानवापी मस्जिद पर भारी सुरक्षाबल तैनात है और लोगों को अदालती फ़ैसले की प्रतीक्षा है।
पहले ही उठ चुका है विवाद
ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर पहला मुक़दमा सन् 1936 में दीन मोहम्मद बनाम राज्य सचिव के बीच चला। मगर इस मुक़दमे में दीन मोहम्मद ने निचली अदालत में दावा किया था कि ज्ञानवापी मस्जिद तथा उसके आसपास की ज़मीनों पर उसका अधिकार है। हालाँकि निचली अदालत ने इसे मस्जिद की ज़मीन मानने से इन्कार कर दिया था। इसके बाद दीन मोहम्मद इलाहाबाद उच्च अदालत पहुँचा, जहाँ अदालत ने सन् 1937 में फ़ैसला सुनाया कि मस्जिद के ढाँचे को छोडक़र बाक़ी सभी ज़मीनों पर वाराणसी के व्यास परिवार का अधिकार है।
इसके उपरांत 14 अक्टूबर, 1991 तक मामला शान्त रहा। मगर 15 अक्टूबर, 1991 को एक याचिका काशी विश्वनाथ मन्दिर के पुरोहितों के वंशज पंडित सोमनाथ व्यास, संस्कृत प्रोफेसर डॉ. रामरंग शर्मा और सामाजिक कार्यकर्ता हरिहर पांडे की ओर से दाख़िल की गयी। वादियों ने इस याचिका में कहा कि काशी विश्वनाथ के मूल मन्दिर को 2050 वर्ष पहले राजा विक्रमादित्य ने बनवाया था। इसी मन्दिर के एक बड़े हिस्से को सन् 1669 में औरंगज़ेब ने तुड़वाकर यहाँ ज्ञानवापी मस्जिद में बदल दिया, इसलिए अदालत ज्ञानवापी परिसर में नये मन्दिर निर्माण और पूजा पाठ की अनुमति प्रदान करे। इतिहास की बात करें, तो 12वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी तक मोहम्मद गौरी से लेकर अकबर के पोते शाहजहाँ तक काशी विश्वनाथ मन्दिर को तोडऩे का प्रयास किया गया। इन्हीं वर्षों के बीच वाराणसी में मस्जिदों का निर्माण भी हुआ, जिसका वर्णन कई इतिहासकारों ने किया है। यह तो तय है कि मुस्लिम इस देश में बाहर से आये, जिससे यह भी तय है कि उनके द्वारा किये गये सभी निर्माण बाद में ही हुए होंगे। मगर यह भी सच है कि अब इस देश में कई धर्मों के लोग रहते हैं, इसलिए यहाँ विवादों को हवा देने से देश में अराजकता फैलने का डर है। हालाँकि लोगों में इस मुद्दे को लेकर तनातनी चल रही है।
तहलका के बड़े सवाल
क्या मौज़ूदा सरकार ज्ञानवापी मस्जिद की आड़ लेकर 2024 के चुनाव जीतना चाहती है?
क्या ज्ञानवापी का मामला अयोध्या मामले से बड़ा बनेगा?
क्या ज्ञानवापी की भूमि का भी बँटवारा होगा?
क्या देश में अन्य मस्जिदों को लेकर भी विवाद होगा?
क्या कुतुब मीनार और ताजमहल का विवाद भी आगे बढ़ेगा?
क्या सरकार धार्मिक मुद्दे उठाकर ज़मीनी मुद्दे दबाना चाहती है?
क्या लोगों के लिए रोटी, रोज़गार से ज़्यादा ज़रूरी धर्म है?
क्या धार्मिक स्थल बनाने भर से देश का भला हो जाएगा?